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बेटी: एक सुंदर अल्पना

श्रीमती विभा पांडेय
पुणे, (महाराष्ट्र)

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मैं बेटी हूं, अपने पिता का मान हूं।
हां, मैं बेटी हूं, अपनी मां का अभिमान हूं।
क्यों समझते तुम बेटियों को कम?
क्यों मनाते बेटियों के होने पर गम?
क्या विश्वास नहीं तुम्हें खुद पर।
या खा रहा तुम्हें पुरुष होने का अहम।

मैं बेटी हूं, अपने भाई का गर्व हूं।
हां, मैं बेटी हूं उच्च संस्कारों की पहचान हूं।

मैं झुक जाती हूं जो स्नेह की वर्षा हो मुझ पर।
मैं रुक जाती हूं अधिकार भरा आदेश सुनकर।
मगर जो तोड़ना चाहो मुझे, तो बस कल्पना हूं।
मैं बेटी हूं, नए भारत का नया अरमान हूं।
हां , मैं बेटी हूं, अपने पिता का सम्मान हूं।

जो दिखलाते सदा सर्वदा मेरी सीमाएं मुझको,
तुम्हें क्या अपनी सत्ता के छिन जाने का भय है।
जो अत्याचार का बिगुल बजाते, सुनाते मुझको
कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने सामर्थ्य पर संशय है।
नहीं आश्रिता मैं तुम्हारी, मैं
तो स्वयंं पर अवलंबित हूं।
मैं बेटी हूं, नव रंगों से सजी अल्पना हूं।
मैं बेटी हूं, अपने घर की जान हूं।
मैं बेटी हूं, युगों से बहती आ रही
देश की परम्परा का यशगान हूं।

बहुत दबाया, बहुत अत्याचार किए।
आज भी मन नहीं भरा,
खड़े रहते शब्दों के बाण लिए।
मगर अब वक्त आ गया, समझो।
मैं अनुचरी नहीं तुम्हारे ही
सदृश्य प्रकृति की परिकल्पना हूं।
मैं बेटी हूं सृजन का गुरूतम
भार उठाती, धरा की धरोहर हूं।
मैं बेटी हूं, वंश की गौरव गाथा का बखान हूं।
हां मैं बेटी हूं, देश का अभिमान हूं।
हां, मैं बेटीहूं, अनूठे विश्वास से
परिपूर्ण स्वत: ही अपनी पहचान हूं।

परिचय :- श्रीमती विभा पांडेय
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी एवं अंग्रेजी), एम.एड.
जन्म : २३ सितम्बर १९६८, वाराणसी
निवासी : पुणे, (महाराष्ट्र)
विशेष : डी.ए.वी. में अध्यापन के साथ साथ साहित्यिक रचनाधर्मिता में संलग्न हैं ।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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