राकेश कुमार तगाला
पानीपत (हरियाणा)
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उर्मि, तंग आ गई थी। सभी ने उसका जीना हराम कर रखा था। बात-बात पर टोका-टाकी उसे पसंद नही थी। पर परिवार था कि मानने को तैयार नहीं था। कोई ना कोई बहाना निकाल ही लेता था, उसे परेशान करने का। माँ तो जब देखो समझाने बैठ जाती थी। बेटी बाहर ना जाया करो, यहाँ ना जाया करो। आजकल पहले वाला जमाना नहीं है, लोग लड़कियों को भूखी नजरों से देखते रहते हैं। यहाँ इंसानों के भेष में राक्षस घूम रहे हैं। पर तुम मेरी बात सुनती ही कहाँ हो? एक हमारा जमाना था। क्या मान-सम्मान था, गाँव में लड़कियों का? गाँव की लड़की को सारा गाँव अपनी ही लड़की समझता था। मजाल है कोई किसी लड़की को छेड़ दे।
बेटी, मैं तुम्हें बताती हूँ, एक कहानी जरा ध्यान से सुनना। क्योंकि तू हमेशा मेरी बातों को हल्के में लेती है। ठीक है माँ, कहो अपनी रामकथा, उसने चिल्लाकर कहा। यही रवैया तो सुधरना है मुझें तेरा। हर बात पर तू अड़ियल बनी रहती है। ठीक है माँ गलती हो गई। अब कहो भी अपनी कहानी। यह कहानी बहुत सही है, समझी तू। ठीक है माँ तुम जीती, मैं हारी। जब मेरी उम्र सोलह साल की थी। मैंने बीच में टोक दिया, पर माँ तुम तो कह रही थी कि सोलह साल की उम्र में तुम्हारी शादी हो गई थी। फिर से, अरे सुन भी लिया कर पहले या अपनी-अपनी कहती रहेंगी।यह घटना शादी से पहले की है।
मैं और तेरी चाची घर जाने के लिए, सवारी गाड़ी में बैठ गई। मैंने फिर टोका सवारी गाड़ी, मतलब बस में। नहीं रे पगली, जिसे तुम वैन कहते हो। ओह वैन हाँ, वही वैन। हम दोनों औरतें थी वैन में, बाकी सभी मर्द थे। चार-पांच किलोमीटर चलने के बाद, एकदम वैन रुक गई। ड्राइवर गाड़ी को बार-बार स्टार्ट कर रहा था। पर गाड़ी चल ही नहीं रही थी। हार कर ड्राइवर ने सभी सवारियों को उतरने के लिए कह दिया। ड्राइवर ने सारी कोशिश कर ली, पर गाड़ी नहीं चल सकी। ड्राइवर ने सभी सवारियों को पैदल जाने के लिए कह दिया। साँझ हो रही थी, सर्दियों के दिन थे, तुम तो जानती ही हो सर्दियों की साँझ जल्दी अंधेरी हो जाती है। सारी सवारियाँ पैदल ही चल पड़ी। हम भी उनके साथ-साथ चल पड़े। सवारी अपने-अपने गंतव्य पर पहुँच गई थी। अब हम दोनों ही रह गए थे। जैसे-जैसे अंधेरा बढ़ रहा था, मेरा दिल बैठा जा रहा था। मेरी चाची भी इस जगह से बिल्कुल अनजान थी। कुछ महीने पहले ही तो उनकी शादी हुई थी। मुश्किल से शादी को चार महीने हुए थे।
मुझें तेरे नाना पर बड़ा गुस्सा आ रहा था। जो उन्होंने हमें अकेले ही भेज दिया था। बस हिदायत दी थी कि ये वैन वाला तुम्हें सीधे गाँव के बाहर उतार देगा। उस समय यह फोन भी तो नहीं थे। अब हम दोनों सड़क के किनारे चुपचाप चल रही थी। सड़क के दूसरी तरफ खेत ही खेत थे। वहाँ पर आदमी का नामो-निशान नहीं था। मेरी चाची मुझसे भी ज्यादा घबरा रही थी। वह डर से कांप रही थी। मेरा दिल बड़ी तेजी से धड़क रहा था। जब भी खेतों में थोड़ी सी आहट होती, डर के मारे हलक में जान आ जाती। चाची कह रही थी, अब तो हमें राम ही बचाए। मैं चाची की हिम्मत बढ़ा रही थी। बस तुम चलती रहो, गाँव आने ही वाला है। पर वह कहने लगी, आज हम गाँव नहीं जा पाएगे, यहीं हमारा काम हो जाएगा। मैं भी लगातार राम-राम कर रही थी, मन ही मन में।
तभी पीछे से घंटी बजाने की आवाज सुनाई दी। कोई साइकिल पर आ रहा था। हम दोनों का मन बुरी तरह घबरा गया। मन में बुरे ख्याल आ रहे थे। पर हम चलने के बजाय दौड़ने लगी। साइकिल भी तेजी से हमारा पीछा कर रही थी। साइकिल सवार ने साइकिल हमारे करीब लगा दी।एक जोरदार आवाज के साथ हम रुक गए। वह कड़क आवाज में चिल्लाया, कहाँ भागी जा रही हो? किस गाँव की हो दोनों? मैंने हिम्मत करके अपने गाँव का नाम बता दिया। और पिता जी का नाम भी, अच्छा तो तुम भरतू के घर से हो। जी, मैंने जवाब दिया, पर यहाँ क्या कर रही हो?मैंने सारी घटना बता दी।
अच्छा यह बात हैं, बेटी चलो बैठो मेरी साइकिल पर। मैं तुम्हें गाँव तक छोड़ दूंगा। चाची बैठने को तैयार नहीं थी, पर मैंने उन्हें समझाया। तभी साइकिल सवार ने हमें धमकाया क्या खुसर-फुसर लगा रखी हैं? जल्दी चलो मौसम भी खराब होने वाला हैं। थोड़ी देर में धुन्ध भी पड़ने लगेगी।हम दोनों साइकिल पर बैठ गई। वह तेजी से साइकिल दौड़ा रहा था, जैसे हमें कहीं उड़ा ले जाना चाहता हो। हमारे मन में बहुत उधेड़बुन चल रही थी।
आखिर हम अपने गाँव में पहुँच गए। हमनें साइकिल से उतर कर उनका बहुत धन्यवाद किया। पर वह बोले, गाँव की बहू-बेटी तो साँझली होती है। तुम भी तो मेरी बहू-बेटी जैसी हो। हमारा सारी उधेड़बुन समाप्त हो चुकी थी।
हम अपने घर पहुँच गए थे। चारों तरफ घना कोहरा था। पर इस कोहरे में भी चाँद चमक रहा था। हमारे मन में भी खुशी से चहक रहे थे।
माँ- उर्मि-अब समझ आया तुम्हें, हमारा जमाना कैसा था? कितने अच्छे लोग थे, उस समय? उर्मि समझ रही थी कि अपने अनुभव से ही मुझें समझा रही हैं कि जीवन में कुछ भी घट सकता हैं। पर क्या समाज इतना भाव हीन हो गया है कि आजकल बहू-बेटी सुरक्षित नहीं रह गई हैं।आए दिन बलात्कार की घटनाएं घट जाती हैं। देर-सवेर घर पहुंचने वाली लड़कियों को गलत समझ लिया जाता है।
उर्मि आज खुश थी कि कुछ बंदिशें माता-पिता हमारी भलाई के लिए ही लगाते हैं। इन बंदिशों के कारण ही हम कुछ अनहोनी घटनाओं से बच सकते हैं। वह आज वह भली-भाँति समझ रही थी कि ये बंदिशें भी हमारे जीवन मे उत्साह ला सकती है। उसने अपनी माँ को गले से लगा लिया था। जैसे कह रही हो अब आपकी सारी बंदिशें स्वीकार हैं, मुझें।
परिचय : राकेश तगाला
निवासी : पानीपत (हरियाणा)
शिक्षा : बी ए ऑनर्स, एम ए (हिंदी, इतिहास)
साहित्यक उपलब्धि : कविता, लघुकथा, लेख, कहानी, क्षणिकाएँ, २०० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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