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विजयादशमी

डॉ. पंकजवासिनी
पटना (बिहार)

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विजयादशमी पर्व प्रतीक है विजय का! अधर्म पर धर्म की विजय!! अन्याय पर न्याय की जीत!!! और सबसे बढ़कर उच्छृंखलता एवं निरंकुशता पर संयम तथा मर्यादा की विजय!!! और इसलिए विजयादशमी पर्व की प्रासंगिकता हर युग में बनी रहेगी।

पिता के वचन की लाज रखने के लिए पल भर में रघुकुल के सूर्य से देदीप्यमान साम्राज्य के सिंहासन को एक तुच्छ तिनके-सा त्याग दिया और वैभव-विलास से पूर्ण राजमहल का सुविधासम्पन्न, सुखमय जीवन छोड़कर १४ वर्ष के लिए शीत, ताप, वर्षा से आचछन्न कंकरीले-पथरीले डगर वाले हिंस्र पशुओं से भरे भयावह एवं अभाव तथा आशंकाओं से ग्रस्त वन्य जीवन को स्वीकार कर लिया जानकीवल्लभ श्री राम ने!साथ चलीं धरती पुत्री सीता और जगत्- दुर्लभ भ्राता लक्ष्मण!!
आज हम अपने छोटे-छोटे क्षुद्र स्वार्थों के लिए अपने मूल्यों-आदर्शों की, यहाँ तक की अपनी आत्मा और अपने राष्ट्र एवं मानवता के कल्याण की बेहिचक आहुति दे देते हैं!!
कष्ट साध्य जीवन बड़े ही धैर्य साहस और संयमपूर्वक जीते हुए राम ने १३ वर्ष व्यतीत कर दिए वन में! आत्मा की संगी सीता को उनका राम दे दिया!! राम ने अपने बहुमूल्य १३ वर्ष सीता को समर्पित कर दिया!!!

पर अवतारी पुरुष राम की परीक्षा लेने के लिए विधाता ने कुछ और कष्ट तथा पीड़ा नियत कर रखा था! १४वें वर्ष के प्रारंभ में ही लंका का परम समृद्धिशाली राजा, प्रकांड विद्वान पर निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी अहंकारी रावण जगत-जननी सीता को चुरा ले गया!
उनके वियोग में राम विह्वल! हर तरु, लता, पुष्प, पशु-पक्षी से पूछते सीता का पता!! साधारण मनुष्य के समान अपनी सुध-बुध खोए भावविह्वल अवतारी पुरुष राम!!! संसार का कोई पुरुष/पति अपनी पत्नी के लिए इतना ना रोया होगा जितना रोए राम! इतना तो सावन भी नहीं बरसा होगा कभी, जितना बरसे राम के नयन प्राणवल्लभा सीता के वियोग में!! अतुलनीय है पत्नी सीता के प्रति राम का प्रेम और उनकी निष्ठा!!! साधनहीन वनवासी होते हुए भी भिड़ गए सोने की लंका के राजा रावण से!!
और इसमें साथ दिया उनका वन में रहने वाले साधारण वानरों-भालुओं और जटायु से पक्षी ने! ध्यातव्य है कि धनी एवं सामर्थ्यवान मानव समृद्धि में ही पूछता है… साथ देता है… या सहायता करता है….!!
अभाव में दुख में छोटे एवं तुच्छ समझे जाने वाले अति सामान्य लोगों की ही करुणा और सहायता मिलती है यदि उसे महत्त्व दिया जाए। दुख और विपत्ति में राम को भी महत्वहीन समझे जाने वाले जंगली, वन-कंदराओं में रहने वाले तुच्छ मानेजाने वाले जीवों की ही निष्ठा तथा सहायता मिली और राम ने उन्हें स्नेह-सम्मान देते हुए शिरोधार्य किया।

अप्रतिम साहस के पगों से मनुष्य पर्वत श्रृंखलाओं के ऊपर अपनी विजय पताका फहराता है। अप्रतिम धैर्य और अदम्य साहस के बल पर दृढ़संकल्पी राम ने अपनी वानरी सेना के समर्पित निष्ठावान सहयोग से अथाह लहराते सागर पर अविश्वसनीय रूप से सेतु बनाकर लंका पर चढ़ाई कर दी।

उनके पास संबल था सत्य का, न्याय का, साहस का, मर्यादा का, राष्ट्र-कल्याण हेतु उत्सर्ग- भावना का, पत्नी के प्रति एकनिष्ठ प्रेम का! और सबसे बढ़कर आत्मबल था!! तभी उनके समक्ष निरंकुश, उच्छृंखल, अमर्यादित, स्वेच्छाचारी रावण की प्रकांड विद्वता, अकूत संपदा, प्रभूत ऐश्वर्य-वैभव, अपरिमित साधन, पर्वतराज हिमालय को बाहों से उठा लेने वाला अतुलित बल, देवताओं को पराजित कर देने वाला अद्भुत पराक्रम —— सब- के-सब धराशायी हो गए।
कई गुणों से संपन्न ऐश्वर्यशाली रावण नैतिकता एवं मर्यादा की राह पर चलने वाले मानवता के पोषक, राष्ट्र-कल्याण के उन्नायक, आत्मबल के धनी, साधनहीन वनवासी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से पराभूत/पराजित हो गया!! स्वर्ण नगरी लंका अनाथ और निर्जन हो गई!

आज युग और मानवता की पुकार है कि हम स्वार्थरहित, संयमी, नारी का सम्मान करने वाले, लघु को महत्त्व देने वाले परम मर्यादित संस्कृति पुरुष श्री राम के पदचिन्ह का अनुसरण करें… उनके बताए मार्ग पर चलें! तभी गरिमा और महिमा की भूमि भारत का कल्याण होगा।
विजय पर्व की अशेष मंगलकामनाएँ!

परिचय : डॉ. पंकजवासिनी
सम्प्रति : असिस्टेंट प्रोफेसर भीमराव अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय
निवासी : पटना (बिहार)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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