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कुदरत के फैसले…

मीना सामंत
एम.बी. रोड (न्यू दिल्ली)

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                                                     पिछले महीने सितम्बर के आखिरी हफ्ते की बात है, मैं कुछ अनमनी, हैरान,परेशान सी थी, अपने ही लोगों से कुछ आहत थी! जीवन में यह सब नया नही था और ना पहली बार! सब कुछ चलता रहता है यही सोचकर मैं घर के छोटे-मोटे काम निबटा कर नहाई! समय लगभग दिन के एक बज चुके थे, मंदिर में दीप जलाते ही मुझे याद आया कि तुलसी का पौधा सूखने लगा होगा, इसलिए जल चढ़ाने के लिए बाहर गई! मन में संशय था कि कहीं कोई देखेगा तो क्या सोचेगा…? कि दिन के एक-दो बजे तुलसी में जल चढ़ा रही है, कितनी लापरवाह और आलसी औरत है! यूँ तो सरपट भागती दिल्ली नगरिया में किसी को किसी से कोई विशेष मतलब नहीं रहता है, फिर भी आस पड़ोस की कुछ महिलाएँ दूसरी महिलाओं की कमियाँ और खोट निकाल कर मजे लेने से पीछे नहीं हटती हैं! जो भी हो लेकिन मैं धीरे से दरवाजा खोलकर बाहर लगे तुलसी को जल देकर जैसे ही पीछे मुड़ी कि जिसका डर था वही हुआ! पड़ोस की एक महिला काम से घर लौट रही थी उसकी नजर मुझ पे पड़ गयी दुआ सलाम हुआ! दोपहर में तुलसी में पानी देने को देखकर वो हंस रही थी सो मुझे भी औपचारिकता बस हंसना पड़ा! हंसी सुनकर आस-पड़ोस की और महिलाएं भी बाहर आ गयीं! इतने में ही एक बारह साल की बिटिया वहीं आकर लेटने लगी मिट्टी में, मैं ने पूछा कौन है यह बच्ची? जो इस कदर मिट्टी में लेट रही है, काम से लौटी महिला ने बताया कि वो बच्ची उसके भाई कि बेटी है भाई कि किडनी खराब है! भाई का ईलाज कराने बिहार से दिल्ली ले आए हैं! उसकी यह बेटी भी मानसिक विक्षिप्त है ना बोल पाती है ना चल पाती है भूख लगने पर रोती है, और जमीन पर लेटने लगती है! इसका पिता जिसकी किडनी खराब है वह बेरोजगार है कोरोना के चलते सरकारी अस्पताल में इलाज नहीं हो पा रहा है और प्राईवेट अस्पताल में इलाज कराने की क्षमता नहीं है! सबसे बड़ा संकट इस बिटिया के मां को है पति बीमार, बेटी बीमार, मायके से दीन, हीन, गरीब है! अगर भाई को किडनी के चलते कुछ हो गया तो उस महिला पर दुखों पहाड़ टूट पडे़गा! इतना सुनते ही मेरे हाथ पैर ठंडे पड़ गए मैं सिहर उठी… उस असहाय महिला की जगह खुद को रखी तो एक मिनट में मेरी आँखों से निर्झर नीर अविरल प्रवाहित हो उठी! मैं सोचने लगी की वाह रे विधाता किस कलम से कितनों की और कैसे किस्मत लिखता है तू?? किसी को सुख ही सुख तो किसी के भाग्य में दुख ही दुख आंसू ही आसूं सिसकन ही सिसकन! उस दिन भगवान के फैसले से दुखी थी, कोस रही थी मुक्कद्दर गढ़ने वाले को किसी को इतना दुख आखिर कौन सी गलती उस बेचारी औरत कि पति की किडनी खराब, बेटी लाचार मानसिक अस्वस्थ, दो वक्त की रोटी के लिए जद्दोजहद! मेरे ज़हन से यह वाकया तीन चार दिन गया ही नहीं! पांच वे या छठे दिन मैं फिर तुलसी को जल चढ़ाने गयी तो मेरी रायबरेली वाली पड़ोसन ने बताया कि मीना वो उस दिन जो महिला अपने भाई और भतीजी की दुख भरी दास्ताँ बता रही थी, उसका वह बीमार भाई चल बसा..! इतना सुनते ही मैं आवाक रह गई जैसे मुझे सुन्नपात हो गया हो ना तो मेरे कदम आगे बढ़ रहे थे और ना पीछे हट रहे थे! मेरे आखें सजल हो उठीं! उस मृतक इंसान की पत्नी के बारे में सोचकर ही मैं जमीन पर बैठ गई! कि आखिर अब क्या करेगी वो असहाय गरीब महिला उसका एक आसरा दुनिया से चला गया, संसार उजड़ गया, मांग का सिंदूर गया बेचारी का! लेकिन कहते हैं कि विधाता का लिखा कोई टाल भी नहीं सकता है! उस दिन से मैं यह समझ गई कि यहाँ सब अपने दुख से दुखी हैं यदि गौर से देखा जाये तो दुनिया में इतना गम है मेरा गम फिर भी कितना कम है! मैं बिना तुलसी को जल चढ़ाए वापस कमरे में लौट आई, कुदरत के इस हतप्रभ करने वाले फैसले से हैरान परेशान रही आई!

परिचय :- मीना सामंत
एम.बी. रोड (न्यू दिल्ली)

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