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प्रकृति और मानव

सुनीता पंचारिया
गुलाबपुरा (भीलवाड़ा)

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प्रकृति और मानव का,
रिश्ता बहुत पुराना है,
हम प्रकृति से,
प्रकृति हम से है,
साधु संतों के आध्यात्म में,
विश्व की सभ्यता के विकास में,
मनुष्य की चीर सहचरी,
ईश्वर प्रदत्त उपहार है।
भावाभिव्यक्ति का उद्गम स्थल,
सर्वव्यापी सत्ता का भाव है।
प्रकृति नदियों की कलकल,
समुंदर की हलचल,
रिमझिम सावन की बरसात है,
मौसम का मिजाज है।

लेकिन…..
जब मानव मन में लालच जन्मा,
ताप बढ़ा धरती का,
धरती कांपी अंबर कांपा कांपा ये संसार,
बूंद बूंद पानी को तरसा ये सारा जहान,
गुस्सा फूटा प्रकृति का किया जो तूने खिलवाड़,
बढाधरती पर भूकंप बाढ़ व सुखा सैलाब का तूफान,
नहीं बचा पाएगा तू अपना सम्मान रे।
मानव तू नहीं सुधरा तो,
दूर नहीं विनाश रे,
मुझ पर कहर खूब ढाया,
अब बारी मेरी है।
मैं थी और मैं हूं और मैं रहूंगी,
पर तेरा अस्तित्व नहीं रहेगा,
यह कहावत सिद्ध हो पाई
“जैसा बोएगा वैसा काटेगा”
“और कर भला तो हो भला”
जैसे नियम हुए साकार,
अटूट है सम्बन्ध, पूरक है हम
सम्भल जा रे मानव।

परिचय : सुनीता पंचारिया शिक्षिका
निवासी : गुलाबपुरा (भीलवाड़ा)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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