डॉ. सर्वेश व्यास
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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मैं उन सभी रसिक एवं विज्ञ पाठकों का हृदय से आभारी हूं, जिन्होंने मेरी कहानी “सखी” को पढ़ा और पसंद किया। लेकिन कुछ पाठकों का तर्क था कि कहानी और आगे बढ़ सकती है, उसे बीच में ना छोड़ा जाए और आगे बढ़ाया जाए तो एक कोशिश की है, उसे आगे बढ़ाने की, तो प्रस्तुत है कहानी का दूसरा भाग :-
विश्वास एवं सखी की बातचीत लगातार होने लगी। जिस दिन विश्वास की सखी से बात होती उस दिन विश्वास मन ही मन मुस्कुराता रहता, वह दिन भर खुश एवं प्रसन्न रहता, उसे ऐसा लगता मानो अंदर ही अंदर उसे कोई गुदगुदी कर रहा हो। उधर सखी की हालत भी ऐसी ही थी, लेकिन बातों ही बातों में विश्वास को यह महसूस हुआ कि सखी की बातों में कोई गहरा अर्थ छुपा हुआ है, सखी कुछ कहना चाहती हैं, कुछ जताना चाहती है और विश्वास उसे समझ नहीं पा रहा है। कहते हैं ना “अरथ अमित-आखर थोरे”। अतः विश्वास अब दिन भर उन्हीं बातों को बार-बार स्मरण कर, उनका अर्थ समझने की चेष्टा करने लगा। वह सोचने लगा कहीं २० वर्ष पूर्व अधूरी कहानी पुनः शुरू तो नहीं हो रही है। कहीं भूमि में पड़े बीज पुनः अंकुरित तो नहीं हो रहे हैं। कहीं भावनाओं के पंख को परवाज तो नहीं मिल रही है। अब उसे महसूस होने लगा कि निष्ठा ने जो महसूस किया था, जो अनुमान लगाया था, कहीं वह सही तो नहीं था। क्या सखी भी उधेड़बुन में है? वह भी अपनी मनो स्थिति को परिभाषित नहीं कर पा रही है? कहीं सामाजिक बंधनों और कंधों पर पड़ी जिम्मेदारियों ने उसे भी खुद को समझने का मौका नहीं दिया? क्या उसने खुद ही, खुद की भावनाओं और संवेदनाओं को कुचल दिया? इस प्रकार विश्वास उस वक्त की सामाजिक परिस्थिति एवं खुद के भय और डर को कोसने लगा, जिसके कारण वह अपने आपको अपनी ही कैद से कभी आजाद न कर पाया। वह जिसे एक-दूसरे के प्रति मान-सम्मान व आदर समझ रहा था, वह वास्तव में एक निश्चल प्रेम था, जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता था। जिसे वह कभी समझ ही नहीं पाया। वास्तव में जिस प्रेम को वह बंधन समझ रहा था, वह तो मुक्ति का प्रथम सोपान था। शायद अब वह समझ रहा था कि “प्रेम एक स्वतंत्र भाव है, ना कि रिश्तो का बंधन”। यह सोचते सोचते विश्वास के सामने अचानक सखी का चेहरा आ जाता है, वह डर जाता है कि कहीं वह गलत तो नहीं सोच रहा है? कहीं सखी के मन में ऐसा कुछ नहीं हुआ और यह उसकी कोरी कल्पना हुई तो सखी उससे नाराज ना हो जाए? वह सखी हो नाराज नहीं देखना चाहता था। वह अपने जीवन से एक बेहतरीन और बेशकीमती व्यक्तित्व को खोना नहीं चाहता था। सखी को खोने के डर से वह पीछे हट गया। कारण उसके लिए सखी
“एक ताजगी-एक एहसास,
एक खूबसूरती-एक आस,
एक आस्था-एक विश्वास” थी
वह जानता था कि यह किताबी नहीं जीवन का गणित है, इसमें दो में से एक गया तो कुछ भी नहीं बचता, वह चाहे जीवन-साथी या दोस्त। लेकिन जिस प्रकार का विश्वास का व्यक्तित्व था, वह अपने आप से लड़ने लगा। वह सोचने लगा कि रिश्तो में शुद्धता, सत्यता, सात्विकता, पवित्रता एवं पारदर्शिता होनी चाहिए। वह झूठ के सहारे रिश्ता आगे नहीं बढ़ सकता, जो झूठ के सहारे आगे बढ़े वह रिश्ता नहीं समझौता होता है। अतः उसने सोचा मेरे मन में कुछ और चल रहा है और मैं सखी से कुछ और व्यवहार करूं तो यह तो कपट होगा। उसने दृढ़ संकल्प किया चाहे जो भी हो वह इस उपादोह एवं जद्दोजहद से ऊपर उठेगा। वह सखी से अपने मन की सारी बात कहेगा एवं उसके मन की सारी बातें भी जानेगा, चाहे इसका परिणाम कुछ भी हो। कारण जब तक रिश्तो में पारदर्शिता ना हो, वह सच्चे रिश्ते नहीं होते, वह तो खाना-पूर्ति होते है, मन को बहलाने का खिलौना होते है। अगर सखी मुझे समझती और मुझे सच्चा और अच्छा इंसान मानती है, तो वह मेरे मनोभावों को समझेगी और जो भी स्थिति हो, वह स्पष्ट कर देगी। विश्वास के सामने गीता का सार आने लगा कि “व्यक्ति सच्चाई के रास्ते पर चलता है, तो उसके जीवन में परेशानी जरूर आती है, लेकिन उसकी नाव कभी भी नहीं डूबती।” और वैसे भी उसे पता था कि सखी जिसकी “सरलता ही परम सुंदरता है, क्षमा ही परम बल है, विनम्रता सबसे अच्छा तर्क है और अपनापन सबसे अच्छा संबंध है।” अतः जिसके चरित्र में इतनी गहराई हो, वह उसे कभी गलत नहीं समझेगी। अत: उसने सखी से पूछा कि आप अपने मम्मी पापा से मिलने कब जाएंगी? सखी ने कहा दीपावली के बाद जाने की सोच रही हूं, हो सके तो आप भी आ जाना इस बहाने मुलाकात हो जाएगी। विश्वास हतप्रभ रह गया, मानो सखी की जिव्हा पर सरस्वती बैठ गई, वह भी तो यही चाहता था। शायद विश्वास के मन की तरंगे थी, उसका निश्चल प्रेम था, जो उसके हृदय की बात सखी बोल रही थी। विश्वास ने तुरंत हां कर दी और कहा जब तुम आओ मुझे फोन कर देना मैं भी आ जाऊंगा। दीपावली के बाद सखी अपने मम्मी पापा के घर आई और उसने विश्वास को फोन किया। विश्वास के लिए तो जैसे एक-एक दिन एक-एक युग के समान बीत रहा था। सखी का फोन उस विश्वास रूपी चातक के लिए स्वाति नक्षत्र में वर्षा के जल के समान था, जिससे वह तृप्त हो सकता था। निर्धारित दिन दोनोंं तय समय से पूर्व ही तय स्थान पर पहुंच गए। दोनों एक दूसरे को देखते ही रह गए, मानो मरुस्थल में बहता हुआ झरना मिल गया। २० वर्ष पश्चात भी दोनों में कोई परिवर्तन नहीं आया था। सखी की सुंदरता के बारे में विश्वास की वाणी इसलिए नहीं कह सकती थी, क्योंकि वाणी के नेत्र नहीं है, और जो नेत्र उसकी सुंदरता देखते हैं उन नेत्रों के पास वाणी नहीं हैै। सखी की तुलना वह किसी और से नहीं कर सकता था क्योंकि सखी जैसी केवल वही थी और कोई नहीं। उधर सखी की हालत शब्दों में बयां नहीं की जा सकती थी। बस उसकी दोनों आंखों से अश्रु धारा बह निकली, मानो उसकी हृदय की अग्नि को अश्रु जल शांत कर रहा हो। बड़ा ही अद्भुत एवं मार्मिक दृश्य था वह। दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। दोनों ने अपने आप को संभालते हुए, एक दूसरे का हाल जाना। फिर विश्वास ने अपनी मन की व्यथा, उपादोह, जद्दोजहद, विचार एवं हृदय में उठने वाली तरंगों को ज्यों का त्यों कह दिया और पूछा क्या मैं गलत हूं? तुम्हारे मन में क्या कुुछ था और अब क्या कुछ है? यह कहने के बाद उसने नजरें नीची कर ली एवं अपने पैरों की अंगूठे से मिट्टी कुरेदने लगा। सखी ने गंभीरता पूर्ण वाणी में कहा जो तुम सोच रहे हो वह शब्दश: सत्य है, तुम बिल्कुल भी गलत नहीं हो। सच तो यह है कि जो तुम्हारा हाल है, वही स्थिति मेरी भी है। हम दुनिया से नहीं अपने आप से लड़ रहे थे। “हां मैंने भी प्यार किया है”। इतना कहते ही सखी ने गहरी सांस ली और कहा अभी तक मैंने पढ़ा था, लेकिन आज महसूस किया है कि “आत्मा स्वीकारोक्ति से शांति मिलती है।” यह बात सुनते ही दोनों प्रसन्न हुए, मानो उनकी आत्मा से बहुत बड़ा बोझ हट गया हो। लेकिन जैसा कि पहले बताया गया था कि दोनों धीर-गंभीर एवं अपनी मर्यादाओं को जानते थे। अतः अपने मन की सारी बातों का आदान-प्रदान करने के बाद, कुछ पुरानी यादों को ताजा करने के बाद, अपनी गलतियों और अपने डर पर हंसने लगे। फिर विश्वास ने कहा किस्मत भी अजीब खेल खेलती है, जब हमारे पास अवसर था, तब ना तो माहौल था, ना ही शब्द और अब…..। तब सखी नेे तुरंत कहा अब हमारे पास माहौल भी है, शब्द भी है, मगर अब अवसर या वह समय नहीं है। इसके बाद दोनों सखी के मम्मी पापा के घर गए, वहां उनसे मिले, विश्वास ने खाना खाया और शाम तक रुकने के बाद फिर घर आ गया। आज उसके जीवन का सबसे स्वर्णिम और यादगार दिन था। यही हाल सखी का भी था, क्योकि सच तो यह था कि सखी उसके मम्मी पापा से नहीं बल्कि विश्वास से मिलने आई थी। इस मुलाकात के बात दोनों के मध्य अपनत्व और बढ़ गया। एक दूसरे के प्रति मान-सम्मान, आदर और बढ़ गया। कारण यह दोनो एक दूसरे के निश्चल, पावन एवं अपरिभााषित प्रेम को पहचानने लगे, जिसमें पवित्रता थी, पावनता थी, पूजा थी, नही थी तो बस हवस और एक दूसरे से कुछ चाह। कहते हैं “जिंदगी में एक ऐसा भी व्यक्ति चाहिए जो बिना मतलब के हाल-चाल पूछता हो” यह दोनों एक दूसरे के लिए वही थे। इन दोनों के रिश्तो की बुनियाद थी – विश्वास। दोनों जानते थे कि “अगर रिश्तो को लंबे समय तक आगे बढ़ाना है और ईमानदारी से निभाना है तो कभी भी एक दूसरे की कमियो को मत देखो, केवल अच्छाइयो को देखो।” इनके रिश्ते में पर्दा, छल-कपट, छुपाउ और स्वार्थ नहीं था, थी तो बस सच्चाई, ईमानदारी, समर्पण, पारदर्शिता एवं सकारात्मकता। जिसने इस रिश्ते को अमर बना दिया था। कहने को तो इस रिश्ते का कोई नाम नहीं था, लेकिन नाम वाले रिश्तो से कई गुना ज्यादा अटूट, पवित्र एवं गहरा रिश्ता था यह। सच पूछो तो यह रिश्ता इन दोनों की शक्ति था, आत्म-चेतना था, जो शुरू से ही था, लेकिन यह दोनो उसे कभी भी परिभाषित नहीं कर पाए थे। लेकिन अब समय के साथ मस्तिष्क की परिपक्वता ने उसे परिभाषित करने, संजोनेे और आगे बढ़ाने का अवसर प्रदान किया, जिसे इन दोनों ने अपनी परिपक्वता, साधना और तपस्या से बखूबी निभाया।
परिचय :- डॉ. सर्वेश व्यास
जन्म : ३० दिसंबर १९८०
शिक्षा : एम. कॉम. एम.फिल. पीएच.डी.
निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश)
लेखन विधा : व्यंग्य, संस्मरण, कविता, समसामयिक लेखन
व्यवसाय : सहायक प्राध्यापक
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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