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सृजन

अनुराधा बक्शी “अनु”
दुर्ग, छत्तीसगढ़

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पत्तों पर अल्लड़ अटखेलियां करतीं बूंदें।
पेड़ों के कानों में धीरे से कुछ कहती हवा।
पेड़ों का उन्मुक्त भाव से झूम उठना।
दोपहर में श्याम का गुमा होने लगना।
कलरव करते विहग वृंद की घर वापसी।
शरारतें, अटखेलियां, प्रकृति की कोख में हलचल।
मेंघों की गर्जन पर लहरों का नाचना-गाना।

ये बारिश नहीं,बीज वो रहा है समय,
परमात्मा की किलकारी का, सृजन का।
जैसे प्रकृति खेल रही है, लुभा रही है,
मीठी उमंग भर रही है, जवां जवां हो।
पोखरों में खुदको निहारते बादल।
जाने किसकी प्यास बुझाते बदल।
कभी वसुधा के करीब आते,
कभी ललचाकर दूर भाग जाते बादल।
मचलकर तीव्र वेग से जल तरंगों का,
सागर में समाहित होने उसकी तरफ भागना।

क्या ऐसा मिलन तुमने कभी देखा है?
क्या ऐसा सृजन तुमने कभी देखा है?

परिचय :- अनुराधा बक्शी “अनु”
निवासी : दुर्ग, छत्तीसगढ़
सम्प्रति : अभिभाषक
मैं यह शपथ लेकर कहती हूं कि उपरोक्त रचना पूर्णतः मौलिक है।


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