विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.
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बीते अनेक वर्षों मे, फिल्मों में दुर्जन खलनायकों को महिमामंडित करते बाजारवाद का योजनाबद्द षड्यंत्र हम देखते आ रहें हैं। इसमें सद्गुणी, सज्जन नायक कहीं तो भी पीछे पड़ता गया। आगे चल कर नायक में ही खलनायक की विशिष्टता (दुर्गुण) की भी बाजार को जरुरत महसूस होने लगी। इसी तरह आज वर्तमान में समाज में भी नायक और खलनायक में अंतर करना कठिन हो गया हैं। अच्छाई और बुराई में आज इतना साम्य हो गया हैं कि उनमें भेद करना कोई जरुरी नहीं समझता। नैतिकता और अनैतिकता के सारे मापदंड ही ध्वस्त हो चुके हैं। समाज के लिए भी अहितकर बातें समाज के ध्यान में ही नहीं आती। उसका एक महत्वपूर्ण कारण यह हैं कि समाज ने विकृती को जीवन का अभिन्न अंग समझ लिया हैं और उसे स्वीकार भी कर लिया हैंI यह भले हीं विडम्बना लगे परन्तु आज का कटु सत्य यहीं हैंI
‘सब चलता हैं,’ हमें क्या करना?’,’हम क्या कर सकते हैं?’, ‘हम भले और हमारा जग भला‘, या ज्यादा ही हुआ तो फ़िल्मी संवाद, ‘टेंशन नहीं लेने का’, समाज में अधिकांश लोग वर्तमान में इसी तरह से सोचते हैं, मानों उनका किसी से कोई संबंध ही नहीं हैंI वस्तुस्थिति यह हैं कि कोई भी व्यक्ति आज के समय में, अपने आसपास की या वैश्विक घटित घटनाओं से अलिप्त रह ही नहीं सकताI परन्तु सर्वसामान्य लोगों की इसी अलिप्त रहने की मानसिकता के कारण आज सामाजिक संघर्ष सिर्फ व्यक्तिगत संघर्ष में तब्दील हो कर रह गया हैंI बीते साठ-सत्तर वर्षों में हमने जितनी प्रगति की हैं, उतनी ही मात्रा में बल्कि उससे कहीं अधिक हम अपने आप में ही सिकुड़ गए हैंI हमने स्वयं में ही अपने स्वयं का एक ऐसा विश्व निर्माण कर लिया हैं जिसमे दिनरात हम खोये रहते हैंI व्यक्ति के आत्मकेन्द्रित होने से उसका परिस्थितयों पर, परस्थितियों को निर्माण करनेवाले घटकों पर, और अन्य घटकों पर स्वाभाविक नियंत्रण नहीं रहा हैंI राष्ट्र से, समाज से और यहाँतक कि अपने परिवार से भी ज्यादा कुछ लेनादेना नहीं हैं ऐसी वृत्ती को बढ़ावा मिला हैंI समाज में खुद के लिए ही जीवन जीने की एक नयी व्यवस्था सी निर्माण हो गयी हैंI व्यक्ति की जीवन जीने की यह अलिप्त वृत्ती और मानसिकता और उसका आत्मकेंद्रित स्वभाव वर्तमान समय की सबको चुनौती देती विनाशकारी विकृती साबित होती जा रही हैंI इस विकृतीको अंगीकृत कर हम सभी जीवन जी रहें हैंI वर्तमान पीढ़ी भी इसी विकृति की इस विषबेली की छाँव तले विकसित होने से विकृतियुक्त होने के कारण अब आने वाली पीढ़ी को इन विकृतियों से कैसे छुटकारा मिलेगा यह एक प्रश्न चिन्ह ही हैंI
विकृति का पहला कदम हैं बातबात पर अनुशासन भंग करना और अनुशासनहीनता से और स्वछंदता से जीवन जीनाI अनुशासनहीन रहना, प्रचलित नियम और कानून को न मानना, इतना ही नहीं पर हमेशा नियमों का उल्लघन करने के लिए प्रवर्त्त होना, प्राप्त मूलभूत नागरिक अधिकारों का और प्राप्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता का दुरुपयोग करना, इन सब के प्रति कोई आदर ना होना, किसी तरह का संकोच या डर ना होना, दूसरे शब्दों में देश और समाज में प्रचलित एक योग्य और उत्तम, उन्नत स्थापित व्यवस्था को नकारना और उसमें आस्था न रखना यह सबसे बड़ी विकृती है और यही सब आजकल फेशन हो गया हैंI महत्वपूर्ण यह हैं कि सुचारू एवं सुव्यवस्थित व्यवस्था को जो खंडित करने का प्रयास करते हैं उन तत्वों के प्रति अलिप्त रहना, उन घटकों को दुर्लक्षित करना, इतना ही नहीं ऐसे तत्वों को प्रश्रय या प्रोत्साहन देना ही विकृती को सर्वमान्यता मिलने जैसा ही हैंI
नैतिक मूल्यों की आज कही चर्चा ही नहीं होतीI संस्कार अब सिर्फ पाठ्यक्रम की किताबों में ही बचे हैंI जीवन जीने के सारे मानदंड, मूल्य और साधन बदल गए हैI कम्प्युटर, मोबाइल, और टिव्ही के ज्यादा इस्तेमाल के कारण आज सोशल मिडिया इतना प्रभावशाली हो गया हैं कि उसने सब के मन मस्तिक्ष को बंधक बना लिया हैंI सोशल मिडिया के प्रभावशाली होने के कारण नागरिक उनके मूलभूत अधिकारों से तो भलीभांति परिचित हैं पर इसी सोशल मिडिया में नागरिकों के कर्तव्य की भूले से भी कहीं चर्चा नहीं होतीI जनसँख्या बढ़ने से मांग बढ़ी और पूर्ति भी बढ़ी और हम विकास की राह पर सरपट दौड़ने लगेI भले ही जीवनस्तर बढ़ गया और भले ही प्रतिव्यक्ति आय भी बढ़ गयी हो फिर भी रोजमर्रा की जरूरतें पूर्ण करने के लिए लोगों को कडा संघर्ष करने के बावजूद, हमें जीवन यापन हेतु बहुत बड़ी कीमत आज भी चुकानी पड़ रही हैं, इसलिए जरूरतें पूर्ण करने हेतु आसान मार्ग खोजे जाते हैंI परिणामत: किसी भी तरह से जरूरतें पूरी करने के हमें आदत सी हो गयी हैंI एक तरफ भ्रष्टाचार के कारण धन की महत्ता और उपयोग अनावश्यक रूप से बढ गया तो दूसरी ओर नये नये तकनीकी विकास के कारण अनेक क्षेत्रों में युवाओं को रोजगार उपलब्ध होने से उपभोक्तावाद और बाजारवाद बढ़ा और मौजमस्ती की वृत्ती बढ़ने से मानवीय मूल्य कम होते गएI जीवन में योग्य प्राथमिकताओं को अयोग्य प्राथमिकताओं ने बहुत पीछे छोड़ दिया एवं समाज में अवास्तव उपभोग की विकृत वृत्ती बढ़ गयीI
अभावों में जरूरतें पूरी नहीं होती इसलिए जरूरतें पूरी करने के लिए व्यक्ति के मन में स्वार्थ आता हैं एवं उसमें योग्य और अयोग्य का विचार करने की मन:स्थिति शायद ना हो पर बीते अनेक वर्षों में समाज में विकृती की जो बाढ़ सी आ गयी हैं और विकृती को हमने जिस तरह अंगीकृत कर लिया हैं और सारे समाज में जिस तरह इन विकृतियों को सर्वमान्यता प्राप्त हो गयी हैं वह किन्हीं अभावों और जरूरतें पूर्ण ना होने के कारण या विपन्नता के कारण नहीं बल्कि,जरूरतें पूरी होते जाने के कारण और संसाधन और संपन्नता के कारण आयी हुई विकृतियाँ हैंI उदाहरणार्थ हाल ही में मध्यप्रदेश के इंदौर में एक विधायक द्वारा बल्ले से अधिकारी को मारना, महाराष्ट्र के कणकवली में एक विधायक द्वारा अधिकारी को कीचड से नहलाना, उत्तराखंड के एक विधायक द्वारा एक हाथ में बंदूक और दुसरे हाथ में पिस्तौल लेकर नाचना, सरेआम पुलिस पर होते हमले, बातबात पर ट्रेन रोकना , रस्ते जाम करना, सडक पर निर्बाध बिना किसी डर के मारपीट करना, यह सब क्या दर्शाता हैं? यह किसी गरीबी के कारण नहीं हैंI हमारे देश में रोज दिखता आयाराम गयाराम का खेल भी किसी विपन्नता के कारण नहीं हैंI
छोटी छोटी बातें हैं जिन्हें समाज आसानी से दुर्लक्षित करता हैंIशराब पीकर वाहन चलाना, मोबाइल पर बात करते वाहन चलाना या ट्रेफिक के नियमों का पालन ना करना और नियम तोड़ने पर गर्व महसूस करना और जानबूझकर व्यवस्था को धता बताना यह सब किसी अभाव या गरीबी के कारण उत्पन्न विकृती नहीं हैं बल्कि व्यवस्था को नाकारने और दादागिरी के कारण हैंI आश्चर्यजनक यह हैं कि पुणे जैसे महानगर में लोग फूटपाथ पर आसानी से बाइक चलाते हुए देखे जा सकते हैंI मेरे गलत बर्ताव के कारण मेरा कोई भी कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता यह भावना ही विकृत मानसिकता की पहली सीढ़ि हैंI इस मानसिकता के कारण नागरिक कर्तव्यों का विस्मरण हो जाता है और व्यवस्था से स्वयं को बड़ा समझने की अहंकारी वृत्ती विकृती ही तो कहलाती हैंI उपरोक्त उदहारण वैसे बहुत ही छोटे उदहारण हैं, पर जानबूझ कर नियम तोडना, कानून तोडना, व्यवस्था बिगाड़ना, अपने अधिकारों का अतिक्रमण करना, अपनी बारी का इंतजार ना कर योग्य व्यक्ति का हक़ छिन कर अपना काम पहले हो की दबंगई, इन सब विकृती के दर्शन हमें रोज ही होते हैंI अब इनमें लूटपाट, ह्त्या और बलात्कारों की घटनाएँ भी बहुतायत में पाई जाती हैंI आश्चर्य हैं कि इन सबका मूलभूत जरूरतों(रोटी,कपडा और मकान)से कोई नजदीक का संबंध ना होकर भी ऐसी विकृती के क्या मायने?कहने को पिछले पांच वर्षों से केंद्र में हमारे यहाँ साफ़ सुथरी सरकार हैं पर करोड़ों रुपयों की भ्रष्टाचार की गंगोत्री सूखने का नाम ही नहीं ले रही हैंI और ये सब भ्रष्टाचार, सम्पन्न, प्रभावशाली रसूखदार व्यक्तियों द्वारा ही किया जा रहा हैं, गरीबों का इससे दूर दूर तक सम्बन्ध नहीं हैं फिर भी दुर्भाग्य यह हैं कि समाज भी इन सब विकृतियों के लिए उदासीन हैं मानो सभी ने भ्रष्टाचार को अंगीकृत कर लिया हो दूसरे शब्दों में मान्यता दे दी होI धीरेधीरे सभी प्रकार की विकृतियों ने विशाल भस्मासुरी दैत्य का रूप ले लिया हैंI
आज सम्पन्नता के कारण संसाधनों की उपलब्धता इतनी बढ़ी हुई हैं कि हैरानी होती हैंI हरएक कमरे में एसी, हरएक कमरे में टिव्ही, हरएक घर में कार और बाइक, स्कूटरों की भरमार, हरएक के पास दो दो तीन तीन मोबाइल, कम्प्यूटर वगैरे सब साधन जरूरतों से भी ज्यादा उपलब्ध हैं और जरुरत से भी अधिक सम्पन्नताI इसे क्या कहेंगे? हमारे देश की जनसँख्या १३o करोड़, उसमें ६५ करोड़ गरीबों की आमदनी १०० रुपये रोज की भी नहीं है और अधिकांश को एक वक्त का भरपेट भोजन भी नसीबा नहीं हैं, परन्तु मोबाइलधारकों की संख्या १०० करोड़ से भी ज्यादा हैंI इसीका अर्थ हैं कि सम्पन्नता और साधन अपने विकृत स्वरूप में बढ़ रहें हैंI मध्यमवर्गीय, उच्चमध्यम वर्गीय और उच्चवर्गीय के पास सभी उन्नत साधन सुविधाएँ उपलब्ध हैंI नाबालिग बिना लायसेंस के वाहन चलाते हैंI डीजल पेट्रोल के भाव कितने भी बढे देश में वाहनों की बिक्री दुगने से भी ज्यादा प्रतिवर्ष बढ़ रही हैंI साधारण मोंटेसरी स्कूलों की फ़ीस लाखों रुपयों में होती हैं और उसे देकर आज के माँ-बाप अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते हैंI विद्यालय अध्ययन का केंद्र ना होकर पंचतारांकित हॉटेल्स हो गए हैंI अध्ययन और अध्यापन जरुरत हैं या फेशन यह संभ्रम बना रहता हैंI महंगे फेशनेबल कपड़ों का और अन्य महंगी उपभोक्ता वस्तुओं का बाजार बढ़ा हैं, ऑनलाइन बिक्री का बाजार गुलजार हैं, हवाई सफ़र बहुत बढ़ गया हैंI तात्पर्य भोगवाद ही असीमित रूप से बढ़ा हैं और अगर समाज में इतनी सम्पन्नता होने के बावजूद भी विकृतिया बढ़ी हुई हैं तो इसमें दलितों की और गरीबों की हिस्सेदारी ना के बराबर हैं, परन्तु इन विकृतियों के ज्यादातर दुष्परिणाम गरीबों और दलितों को ही भुगतने पड़ते हैंI
संपन्नता के कारण अपराध और अपराधियों में बेतहाशा वृद्धि हुई हैं परन्तु इनमें भी दलितों और गरीबों का प्रतिशत ना के बराबर हैं, लेकिन इसके भी दुष्परिणाम उन्हीं के हिस्से आते हैंI अमीर लोगों द्वारा भ्रष्टाचार किया जाना और हजारों-लाखों करोड़ रुपयों की बेंकों के साथ धोखाधडी इसका सटीक उदहारण हैं जिसके कारण देश की सम्पति और सुविधाओं का सभी लोगों में समसमान वितरण नहीं हो पाता और अधिकांश गरीब इससे वंचित होने के कारण समाज में असंतोष पनपता हैंI विकास के साथ बल्कि विकास से भी कई कदम आगे विकृती दौडती रही हैंI विकास या विकृती …..? निश्चित ही विकास चाहिए और किसी भी तरह की विकृती परिवार, समाज और राष्ट्र की कीमत पर नहीं होनी चाहिएIवर्तमान में हम समाज में जो विषमता देखते हैं और उस कारण विभिन्न जातियों में वर्ग संघर्ष बढ़ गया हैंI इसके अलावा प्रस्थापित और विस्थापितों में आर्थिक संघर्ष के कारण असंतोष पनप रहा हैंI बलात्कार की घटनाएँ बढ़ गयी हैं और इनमें गरीबों की और दलित जातियों की बच्चियां सर्वाधिक पीड़ित हैं और यह सम्पन्नता से उपजी विकृती के कारण हैंI हैरानी की बात यह हैं ऐसे प्रतिष्ठित सम्पन्न लोगों के विरुद्ध समाज में कोई भी आगे नहीं आताI कोई सामाजिक आन्दोलन भी दिखाई नहीं देता, इसके विपरीत एक प्रसिद्द नेता कहते हैं कि ‘ बलात्कार तो होते रहते हैI ‘ आज जो आर्थिक अपराध, आंतकवाद और तीव्र असहिष्णुता दिखाई देती हैं उसकी जड़ में भी विकृत मानसिकता ही होती हैंI रसूखदार बड़े लोगों और नेताओं के गैरव्यवहार पर अंकुश रखने तथा उनकी अपराधी वृत्ती पर रोकथाम हेतु पुलिसतंत्र, न्याय व्यवस्था और कायदा कानून भी लाचार और असहाय लग रहा हैंI ग्रामीण भारत में पहले ऐसे लोगों पर सामाजिक बहिष्कार का अस्त्र होता था, पर अब विकसित भारत में समाज और परिवार ही कुछ ना कर रहे हो तो व्यवस्था भी कहाँ तक कारगर हो सकती हैं? समाज में विकृती ज्यादा मात्रा में होने के कारण 99 प्रतिशत बलात्कार और स्त्रियों पर हुए अत्याचारों के अपराध सामने ही नहीं आ पातें और जो एक प्रतिशत सामने आते हैं उनमें न्याय बहुत देरी से मिलता हैं या मिल ही नहीं पाताI यहीं व्यवस्था की क्रूर सच्चाई हैंI व्यवस्था(पुलिस)से नहीं,न्यायालय से नहीं, समाज से भीं नहीं,अर्थात अगर किसी भी स्तर पर न्याय ही मिलने वाला ना हो तो व्यक्तिगत स्तर पर अन्याय सहन करना ही होगा और अपराधियों के लिए इसका रूपांतरण विकृत मानसिकता को और ज्यादा बढाने वाला ही साबित होगाI प्रत्येक स्तर पर अपराध और अपराधियों के लिए अलिप्तता और उदासीनता भी विकृती के सर्वमान्यता का सटीक उदहारण हैंI
हमारे देश में राजनीति में भी अब सभी प्रकार की विकृतियों को समाजने हजम कर लिया हैं और स्वीकार भी कर लिया हैंI चुनाव जितने के लिए हो, खुद के अपराध छुपाने के लिए और कहीं कहीं उन्हें उचित ठहराने की कवायद हो, भ्रष्टाचार हो, राजनीतिज्ञों और उनके दल की ओर से व्यवस्था और कानून की पर्वाह नही की जाती और उनकी अनदेखी कर पलायन का रास्ता खोज खुद को सही ठहराने के लिए एक अट्टहास सा होता हैंI मासूमियत भरे अंदाज में भोलेपन का प्रदर्शन कर धूर्त राजनीतिज्ञ, उद्योगपतियों और व्यवसायियों की मिलीभगत अपने निजी स्वार्थ के लिए व्यवस्था का हमेशा मखौल उड़ाते रहते हैंI इन्हीं काकस ने सारी व्यवस्थाओं को नाकारा बना कर रख दिया हैंI सारी सम्पतियों का केंद्रीकृत कुछ हाथों में इक्कठा होना समाज में आर्थिक असमानता पैदा करती एक भस्मासुरी वृत्ति हैं जो राष्ट्र के लिए हानिकारक हैंI सोचिये व्यवस्था की दुर्दशा के बारे में जब एक स्वर्गीय प्रधानमंत्री यह सार्वजनिक रूप से स्वीकार स्वीकार करते हैं कि जनता तक एक रुपये में से सिर्फ दस पैसे ही पहुचते हैं, जबकि एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री भी सार्वजानिक रूप से यह स्वीकार करते हैं कि उनके कार्यकाल में देश में बहुत ज्यादा भ्रष्टाचार हैं, परंतु मिलीजुली सरकार के कर्तव्य के कारण वें असहाय होकर धर्मसंकट में हैंI अर्थात सम्पूर्ण व्यवस्था अगर बड़े स्तर पर विकृत हो तो इससे बढ़कर देश की दुर्दशा और दुर्भाग्य क्या हो सकता हैं? इन सब बातों से तो यहीं प्रतीत होता हैं कि व्यवस्था में सभी स्तरों पर विकृति को देश के कर्णधारों की ओर से भी स्वीकारोक्ति मिल चुकी हैंI इन कर्णधारों का मतदाताओं की ओर से भी किसी भी प्रकार का सशक्त विरोध नहीं होने से, वें व्यवस्था के प्रति आदतन उदासीन हो जाते हैं परिणामत: विकृति फलती फूलती हैंI
हमें क्या अच्छा लगता हैं इससे बढ़कर हमारे लिए क्या अच्छा हैं यह महत्वपूर्ण हैंI परन्तु हमारे लिए क्या अच्छा और गुणकारी हैं और सबके भले के लिए क्या हैं यह जब भुला दिया जाता हैं तब समाज में इसी बढती संकुचित मानसिकता के कारण अनेक विकृतियों का उद्गम होता हैI आजकल टीआरपी महत्वपूर्ण होती हैं, अत: प्रदर्शन बिना डर के बिना संकोच के और बिना नियंत्रण और बिना शर्म के हैंI निकृष्टता लिए अपने चरम पर पहुचते प्रदर्शन दिन ब दिन विकृत मानसिकता को ही बढ़ा रहें हैंI -–सच तो यह हैं कि कुल मिलाकर इस बढ़ते विकृत वातावरण में हम सकारात्मक विचारों से कब के दूर हो चुके होते हैं और हमें पता ही नहीं पड़ता कि नकारात्मकता अपनी जड़े गहरी जमा चुकी हैं और हमारा मन भी विकृति की ओर आकर्षित होता जाता हैंI इसके बाद यह विकृति का विष व्यक्तिगत स्तर से कब सार्वजनिक हो कर समाज में और देश में फ़ैल कर सभी तंत्र को विषाक्त करता हैं यह सहसा किसी के ध्यान में भी नहीं आताI दुर्भाग्य यह हैं कि आज हम व्यक्तिगत रूप से और सामूहिक रूप से भी विकृतियों को अंगीकृत कर उसके मोह में बंधना चाहते हैंI कभी किसी समय सामाजिक उत्तरदायित्व और कर्तव्य का पाठ पढ़ानेवाले भी कब समाज से अपने को अलग समझकर स्वयं को अलिप्त कर लेते हैं यह लोगों के ध्यान में ही नहीं आताI हमें समाज और राष्ट्र को क्या देना चाहियें इससे बढ़कर हम समाज और राष्ट्र से क्या छीन कर ले सकते हैं यह स्वार्थ आजकल बलवती होकर स्वयंमेव सबमें समाता जा रहा हैंI
कुल मिलाकर विकृति आज सर्वत्र व्याप्त हैंI परिवार में, समाज में,राजनीति में, साहित्य में,संस्थाओं में,फिल्मों में, सोशल मिडिया मे, नोकरी में, उद्योग और व्यवसाय में, सभी जाती और धर्मों में ही नहीं बल्कि घरघर में आज अच्छे-बुरे का विचार ही नहीं होताI भविष्य का विचार करते समय भूतकाल को भूलकर कैसे रहा जा सकता हैंI नैतिक मूल्य यह हमेशा से ही प्रासंगिक रहे हैं और भविष्य में भी रहेंगेI नैतिक मूल्य किसी भी तरह के बुरे व्यवहार पर नियंत्रण रखने में सक्षम होते हैंI नैतिक मूल्य स्वयं पर नियंत्रण रखने में सहायक होते हैंI जहाँ यह सच हैं, वहां यह भी सच हैं कि किसी एक की विकृति सबके लिए हानिकारक और घातक हो सकती हैंI अत: हमारे समक्ष घटित हो रही घटनाओं से अलिप्त रहना कदापि योग्य नहीं होताI
परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता।
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