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प्रवास

मंजिरी पुणताम्बेकर
बडौदा (गुजरात)

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  शाम के करीब छः साढ़े छः का समय था। बाहर अरब सागर पर सूर्य ढल रहा था। जिसकी लालिमा अरब सागर पर अपनी छाप छोड़ रही थी। मैं अपने चौदहवी माले वाले नरीमन पॉइंट पर स्थित कार्यालय से सागर की उठती लहरों को देखकर सोच रहा था कि जिंदगी भी कितनी अजीब है। मैं आज ही के दिन करीब तीस साल पहले यहाँ आया था तब क्या था और आज क्या हूँ। इतने में टेलीफ़ोन की घंटी बजी। उठाया तो घर से फ़ोन था। पत्नी ने बाबूजी की पिच्यास्वी सालगिरह की पार्टी हेतु टिकिट बुक कराने का याद दिलाया था। मेरे दिमाग के ख्याल समुद की लहरों की भांति बिखर गये। घर जाने की तैयारी मैं मैने अपने टेबल पर बिखरे काम पूरे किये और अजीज को गाडी निकालने को कहाl इतने सालों के बाद गाँव जाने के ख्यालों में कब घर पहुँचा मालूम ही ना पड़ा।
घर में गुस्ते ही मैने कहा आप सबको सरप्राइज है। हम सब इस बार अपनी नई कार से जायेंगे उसका उद्घाटन भी हो जायेगा और आते समय माँ बाबूजी को भी लेते आएंगे। मैने अजीज से बात कर ली है l हम कल सुबह जल्दी निकलेंगे।
सुनते ही अंजू, अंजलि और दिव्यांश ने अपने बैग तैयार किये। बच्चे नई कार से जाना सुनकर अति उत्साहित थे। अब सारे उपहारों को रैप किया गया ल ये सब करते-करते हमको रात के बारह बज गये थे। दो, तीन घंटे की नींद लेकर हम सुबह चार बजे अपने सफर पर निकल पड़े। सुबह की मुंबई की बिना ट्रैफ़िक की सड़क और सुबह का सूर्योदय का नजारा देख मन प्रफुल्लित हो गया। याद नहीं इसके पहले सूर्योदय कब देखा था।
हम गुजरात, राजस्थान, दिल्ली वाले रास्ते से बनारस होकर चंदौली पहुंचने वाले थे। रास्ता थोड़ा लम्बा जरूर था पर सोचा कि रास्ते मे बहुतसारी जगहों के बारे में, हमारी गाँव की संस्कृति के बारे में बच्चों को जानकारी दूंगा। रात के लगभग आठ बजे तक हम जयपुर पहुँचे थे। ऑनलाइन पर मैने अच्छे से होटल में एक रात के लिये कमरा बुक कर लिया था। उसी होटल मे हमने रात का भोजन लिया। और दूसरे दिन फिर हम सुबह जल्दी निकले। क्यूंकि चंदौली शाम चार बजे तक पहुंचने का हमारा लक्ष्य था।
सुबह ग्यारह बजे चाय पीने की इच्छा से हम एक ढाबे पर रुके। ढाबे के मालिक ने खाने का पूछा तो मैने कहा कि आपके गाँव की जो प्रसिद्ध खाने की वस्तु हो वो दीजिये और साथ में चाय।
तब तक सारे फ्रेश हो लिये। बच्चे ट्रकों की आवाजावी देख रहे थे और हर ट्रक के पहिये गिनने में व्यस्त थे। अंजू अपनी सेल्फी लेने में व्यस्त थी। थोड़ी ही देर में ढाबे का मालिक एक बड़ी सी काले रंग की जलेबी ले आया। जलेबी देखकर मुझे लगा कि ये जलेबी तो मैने पहले भी कहीं देखि है। उसका एक टुकड़ा मुँह में रखते ही मैने तुरंत ढाबे वाले से पूछा कि भैया ये कोनसा गाँव है? वो बोला साहेब आप रामपुर गाँव में है। रामपुर?….. मैं जल्दी से उठ खड़ा हुआ और ढाबे वाले से गिरधर काका के बारे मे पूछने लगा। मैने बोला कि मुझे उनके घर ले चलो। अब हम सब गिरधर काका से मिलने निकल पडे। मैं गिरधर काका से मिलने के लिये अति व्याकुल था। हमारी गाडी गाँव के सेठ की हवेली के सामने आ रुकी। हवेली का रंग उड़ा हुआ था और उसकी हालत बहुत जर्जर हो गई थी। अंदर जाते ही देखा कि वही चेहरा पर काया अत्यंत दुर्बल हो गई थी। मैने उन्हें आवाज दे कर उठाया और कहा काका मैं दीपक। उन्होंने पूछा कौन दीपक? मैने कहा काका आज से तीस साल पहले आप ने मुझे रेलवे स्टेशन से अपने घर एक रात रुकने की पनाह दी थी। याद आया काका?
थोड़ा दिमाग पर जोर डालते हुए बोले दीपक। उस दिन के बाद तूने तो कोई खबर ही नहीं ली। आज मेरी कैसे याद आ गई बेटा? उतने मैं बच्चों ने पूछा पापा आप इस छोटे से गाँव में क्यूँ आये थे? तब मैने उन सभी को अपनी कहानी सुनाई। ये कहानी मैने अंजू को भी नहीं बताई थी।
चंदौली गाँव में मेरा अच्छा खाता पीता परिवार था। हमारे ईंट के दो भट्ठे थे। बड़े भाई को पढ़ाई में रूचि नहीं थी इसलिए बाबूजी ने मेरी पढ़ाई पर जोर दिया। बाबूजी हमेशा कहते कि दीपक बबुआ पढ़ लिख कर अपने कामकाज को और आगे बढ़ाओ और गाँव का नाम रोशन करो l पर मेरे दिमाग में तो मायानगरी छाई हुई थी।
बारवी की पढ़ाई के बाद मुझे मायानगरी में जाकर अपने सपनों को पूरा करना था। मैने अपना सपना बाबूजी को बताया। बाबूजी ने साफ इन्कार कर दिया। मैं अपनी जिद पर अड़ा रहा। तब बाबूजी ने बड़ी मुश्किल से हाँ किया। बाबूजी ने मुझे पचास हजार रूपये दिए और माँ ने सूखा नाश्ता साथ में दिया ल अब मैं अपना झोला लिये अपने गाँव को अलविदा कह रेलगाड़ी में चढ़ गया। पांच, सात घंटे के बाद अचानक रेलगाड़ी एक छोटे से स्टेशन पर रुकी। सहयात्री आपस में बात कर रहे थे कि इंजन में खराबी है। पास के किसी बड़े स्टेशन से दूसरा इंजन आयेगा वो इसमें लगेगा तब जाकर ये रेलगाड़ी आगे जाएगी। इसमें कम से कम सात आठ घंटे लग जायेंगे।
अप्रेल का महीना था। डिब्बे में बहुत गर्मी हो रही थी। सारे उतरकर प्लेटर्फोर्म पर जाकर लेट गये। मैं भी लेट गया। जब आँख खुली तो देखा कि ना तो वहाँ रेलगाड़ी थी ना कोई सहयात्री और ना ही मेरा झोला। मैं अकेला ही स्टेशन पर था। स्टेशन की घड़ी रात के तीन बजा रही थी। मैं रोते-रोते पागलों की तरह स्टेशन मास्टर के कमरे में गया वहाँ कोई नहीं था। फिर टिकट खिड़की पर गया वहाँ भी कोई नहीं था। तभी एक पुलिसवाला अपना डंडा जमीन पर पीटते मेरे पास आया। डंडा पीटते पूछने लगा इतनी रात को क्या कर रहा है यहाँ? चोरी करने आया है? नशेड़ी है क्या? डरते डरते मैने उसे अपनी पूरी कहानी सुना दी। सुनकर बोला ठीक है। यहीं बैठ। यहाँ से हिलना मत। मैं अभी आया।
आधे पौने घंटे बात वह एक अधेड उम्र के सज्जन के साथ आया जिसे वह गिरधर काका बोलकर सम्बोधित कर रहा था। काका ने मुझसे पूछा कि बेटा कहाँ से आ रहे हो? कहाँ जाना है? यहाँ कैसे आये? मैने काका को अपनी पूरी कहानी सुना दी। मेरे कपड़े देख, मेरा शिष्टाचार देख उन्हें मुझपर विश्वास हो गया कि मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ। वो मुझे अपने इसी घर में ले आये थे। मुझे उस ऊपर वाले कमरे में सोने को बोलकर वो भी सोने चले गये।
दूसरे दिन काका ने दिए कपड़े पहनकर मैं नाशते की मेज पर जा पहुँचा। मेज पर समोसे, यही जलेबी और चाय थी। काका ने कहा अब बताओ कहाँ जाना है? घर या महानगरी? मेरे पास तुझे देने को सिर्फ एक सौ पचास रूपये हैं। पूरा दिन है तेरे पास अच्छे से सोच कर दोपहर तक बता देना।
पूरा दिन मैं सोचता रहा और आखिर मैंने महानगरी जाने का निश्चय किया। क्यूंकि यदि गाँव जाता तो सारे मुझ पर हसते कि निकला था तो व्यापार करने पर अपने कपड़े भी ना सम्हाल सका।
गिरधर काका ने मेरा महानगरी का टिकिट कटवाया और एक सौ बत्तीस रूपये मेरी जेब में डाल दिए। इस तरह एकबार फिर मैं अपने प्रवास पर निकल पड़ा।
जब महानगरी पहुँचा तब वहाँ का वातावरण, वहाँ की लोकल की धक्का मुक्की और लोगों की भीड़ ने मुझे डरा दिया। मैं करीब तीन घंटे वीटी स्टेशन पर ही बैठा रहा। एक बार फिर मन में आया कि क्या मुझे वापस घर चले जाना चाहिए? क्या मुझे इस महानगरी में सफलता मिलेगी? मैं यहाँ कहाँ से शुरुवात करूंगा? ऐसे अनगिनत सवाल………….
पर मेरे मन ने दृढ निश्चय किया कि मैं यहीं रहूंगा। अपने गाँव वालों के पते, जो बाबूजी ने दिए थे उन्हें पूछते-पूछते लोकल ट्रेन के प्रवास कर जैसे तैसे उनके घर तक पहुँचा। वहाँ जाकर देखा कि बहुत ही छोटा सा कमरा था और उसमें रहने वाले सात लोग थे। जैसे तैसे एक रात गुजारी और दूसरे ही दिन जल्दी सुबह उठकर काम की तलाश में निकल पड़ा। दिनभर काम की तलाश में भटकता रहा पर कोई काम हाथ न आया। ये सिलसिला तकरीबन आठ दिन चला। नवे दिन मैने सोच लिया कि यदि आज कुछ काम न मिला तो मैं कल गाँव वापस चला जाऊँगा। ये सोच कर मैं बंदरगाह की ओर निकल पड़ा।
बंदरगाह पर मैने एक बड़ा सा लकड़ी काटने का आरा देखा। समंदर में लकड़ी से लदे बड़े-बड़े जहाज देखे। ये सारे जहाज विदेशों से लकड़ी लेकर आये थे। एक जगह इन सारी लकड़ियों के लठ्ठों को जहाज से उतारा जा रहा था तो दूसरी जगह इन लठ्ठों को काटा जा रहा था। थोड़ी ही दूरी पर कटे लठ्ठों को ट्रकों मे भरकर देश के अलग अलग राज्यों में भेजा जा रहा था।
तभी वहाँ एक चमचमाती गाडी आकर रुकी। उसमें से तीस साल का एक आदमी उतरा। सभी काम करने वाले उसे भांजी भाई कहकर सम्बोधन कर रहे थे। वे जहाजों की तरफ़ जा रहे थे। मैं भी उनके पीछे हो लिया।
थोड़ी देर बाद उनकी नजर मुझ पर पड़ी। उन्होंने मुझसे पूछा काम करेगा क्या? मैंने जल्दी से हामी भर दी और कहा सेठ आप जो बोलोगे वो सब काम करूंगा। उन्होंने कहा ठीक है आज से चौकीदार के साथ रहो और उसी के साथ खाओ। उन्होंने मुझे जहाजों और ट्रकों की गिनती का हिसाब रखने का काम दिया। मैं अपना काम संयोजित तरीके से पूर्ण करने लगा।
मेरी मेहनत और लगन देख कर भांजी भाई ने मुझे सुपरस्टोर सम्हालने को कहा और मुझे उस सुपरस्टोर में दस पैसे का हिस्सेदार भी बना दिया। ये वही गिरगाँव का सबसे पहला कामधेनु सुपर स्टोर है। इस स्टोर की प्रगति दो साल में दिनदूनी रात चौगुनी होने लगी। मेरी मेहनत और लगन से धीरे धीरे इस स्टोर की तीनसौ छयालीस श्रंखलाएं शुरू हुईं। जब सारी श्रंखलाएं अच्छे से चलने लगीं तब भांजी भाई ने अँधेरी और नविमुंबई में जमीन खरीदने के लिये मुझे फायनांस किया।
लोखंडवाला की जमीन पर पहले दलदल हुआ करता था। उस जमीन को भर कर लोखंडवाला खड़ा किया। जैसे ही इस इमारत के फ़्लेट बिके मैंने भांजी भाई को उनका फायनांस किया पैसा लौटा दिया। और इस तरह मेरी मेहनत फिर एकबार रंग लाई। मेरी मेहनत देखने मैंने कई बार बाबूजी और भाई साहब को बुलाया पर वो नहीं आये। उनको यही लगता था कि शहर ने उनके बेटे और भाई को छीन लिया।
अब दीपक ने गिरधर काका से उनकी ऐसी हालत होने का कारण जाना। काका बोले आज के पाँच साल पहले रामपुर महामारी का शिकार हुआ। वह महामारी तेरी काकी, मेरे बड़े बेटे, बड़ी बहु को निगल गई। गाँव के लोग जो भूखे मर रहे थे उन्हें बचाने के लिये अपनी जमीनें बेचीं। अपनी आजीविका के साधन बेच कर गांववालों को सम्हाला पर हालत ये हो गई कि आज मेरे परिवार को सम्हालने वाला कोई ना रहा। ये बोलते-बोलते उनका गला रुआंसा और आँखे नम हो गईं।
मैंने काका को दिलासा दिलवाया और उनसे गाँव में लकड़ी का कारखाना शुरू करवाने का वादा भी किया। मैंने वहीं अपने मोबाइल से फोन कर अभियंताओं को रामपुर बुलवा लिया। हमने काकाजी से जाने की अनुमति ली और चंदौली के लिये रवाना हो लिये।
बच्चे मेरी कहानी सुनकर अपने आप को बहुत ही गर्वित महसूस कर रहे थे। दोनों जोर जोर से कह रहे थे -पापा, आप दुनिया के सबसे अच्छे पापा हो।
हम चंदौली पहुँचे और जन्मदिन उत्सव शुरू हुआ। हम जल्दी से तैयार होकर उत्सव में शामिल हुए। कई पुराने लोगों से मुलाकातें हुईं। रात का खाना खाकर हम सब घर आये। घर आकर सभी को उपहार दिए। अम्माँ, बाबूजी से महानगरी साथ चलने का निवेदन किया। बच्चों नें भी बहुत मनाया तब जाकर वो दोनों तैयार हुए।
दूसरे दिन बड़े भैया के कुछ सरकारी काम निपटाए और तीसरे दिन हम सबकी वापसी हुई। रास्ते में रामनगर रुककर अभियंताओं को कारखाने का सारा काम समझाकर गिरधर काका को भी साथ ले हम महानगरी की दिशा में अपने प्रवास पर निकल पड़े।
रास्ते में काकाजी ने बाबूजी को मुझसे मिलने का सारा वृतांत कह सुनाया। सुनते-सुनते रात कब बीती मालूम ही नहीं पड़ा। सूर्योदय से पहले हम घर पहुँचे गये थे। मैंने अम्माँ, बाबूजी और गिरधर काका को अपना सारा कारोबार दिखाया। सारा देख कर बाबूजी मेरे पीठ पर से हाथ फेरते सिर्फ इतना बोले कि बबुआ बंजर थी मेरे सपनों की धरती, पर उम्मीदों के बादलों से तुमने आज फिर से उस बंजर धरती को सींच दिया। अम्माँ मेरी बलाएँ लेती रहीं और मेरा मन कह उठा दीपक बबुआ इच्छा शक्ति प्रबल हो तो आदमी कुछ भी कर सकता है।

परिचय :- मंजिरी पुणताम्बेकर
निवासी : बडौदा (गुजरात)
घोषणा पत्र : मेरे द्वारा यह प्रमाणित किया जाता है कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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