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हरफनमौला कवि बाबा नागार्जुन की १०९ वीं जयंती के अवसर पर विशेष

डॉ. यशुकृति हजारे
भंडारा (महाराष्ट्र)

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जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं
जन कवि हूँ मैं साफ कहूंगा क्यों, हकलाऊं

                                       जन कवि कहे जाने वाले बाबा नागार्जुन की यह पंक्तियां उनके व्यक्तित्व, जीवन दर्शन तथा साहित्य में भी चरितार्थ होते दिखाई देती हैं। अपने समय की प्रत्येक महत्वपूर्ण घटना पर तेज तर्रार कविताएं लिखने वाले क्रांतिकारी बाबा नागार्जुन ने अनेक विधाओं में अपनी लेखनी चलाई तथा जन आंदोलनों पर भी उनका महत्वपूर्ण प्रभाव रहा।
बाबा नागार्जुन का जन्म ३० जून १९११ ज्येष्ठ पूर्णिमा अपने ननिहाल तथा ग्राम जिला मधुबनी में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री गोकुल मिश्र तथा माता का नाम उमा देवी था। इनकी चार संतान हुई लेकिन वे जीवित नहीं रह पाए। इनके पिता भगवान शिव की पूजा आराधना करने बैजनाथ धाम (देवघर) जाकर बैजनाथ की उपासना शुरू कर दी। इस प्रकार अपना पूरा समय पूजा पाठ में बिताने लग गए कुछ समय पश्चात पांचवी पुत्र का जन्म हुआ उनके मन में आशंका हुई कि कहीं यह भी चार संतान की तरह ठगकर ना चला जाए इसलिए उन्हें ‘ठक्कन’ कहां जाने लगा। बाबा बैजनाथ की कृपा प्रसाद स्वीकार कर इस बालक का नाम बैजनाथ मिश्र रखा गया तथा बाबा नागार्जुन के नाम से भी जाने जाते हैं।
गोकुल मिश्र जी की आर्थिक स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी क्योंकि वह स्वयं कोई कार्य नहीं करते थे। उन्होंने सारी जमीन बटाई पर दे दी थी। एक समय ऐसा आया कि जमीन की उपज कम होने लगी तो वे अपनी जमीन ही बेचने में लग गए। अपने उत्तराधिकारी बैजनाथ मिश्र के लिए कुछ ही भूमि छोड़ गये थे। जिसे सूद भरकर नागार्जुन दंपति ने छुड़ा लिया।
ऐसी विषम परिस्थिति में बालक बैजनाथ मिश्र पढ़ाई लिखाई करने लग गए। छ: वर्ष की आयु में ही उनकी माता का देहांत हो गया। पिता अपने एक मात्र पुत्र को अपने कंधे पर बैठाकर अपने सगे संबंधियों के घर आना-जाना करते थे तबसे पिता की इस लाचारी के कारण बैजनाथ मिश्र को भी घूमने की आदत पड़ गई। इसी घुम्मकड़ प्रवृत्ति के कारण आगे जाकर वे ‘यात्री ‘ नाम से जाने गये।
बालक बैजनाथ मिश्र की अंग्रेजी पढ़ाई में रुचि होने के बावजूद उनके रूढ़िवादी ब्राह्मण पिता ने उन्हें प्रारंभिक शिक्षा देना ही नही चाहते थे। अंग्रेजी शिक्षा के बारे में उनके पिता का विचार था कि क्या अंग्रेजी पढ़कर (क्रिश्चियन) बनना है। बैजनाथ मिश्र की आरंभिक शिक्षा मिथिलांचल के धनी लोगों के यहां हुई क्योंकि वे लोग अपने यहां निर्धन मेधावी छात्रों को आश्रय दिया करते थे। इतने कम उम्र में बालक बैजनाथ ने मिथिलांचल के अनेक गाँवों को देख लिया। वैसे तो उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा तरौनी ग्राम संस्कृत पाठशाला में पूर्ण की। गोनेल और पचगाडिया में उन्होंने माध्यमिक की पढ़ाई पूर्ण की और बाद में बनारस में जाकर उन्होंने शास्त्र तथा रचनाओं में गहराई को समझा राजनीतिक पढ़ाई की ओर ध्यान देने में लग गये। वहां से ‘साहित्याचार्य’ तथा बनारस के विद्वानों से उन्हें ‘कविरत्न’ की उपाधि प्रदान की।अपने अग्रज के रूप में राहुल सांस्कृत्यायन को मानते हैं। वहां रहते हुए उनपर आर्य समाज का भी प्रभाव पड़ा और बौद्ध दर्शन की ओर आकर्षित भी हुए। बनारस से कोलकाता होते हुए दक्षिण भारत घूमते लंका के विख्यात ‘विद्यालंकार’ परिवेश में जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली।
काठियावाड़ में मोखी पहुंचे तो वहां उनकी भेंट भेंज जैन मुनि रत्नचंद्र से हुई। वहां बाबा नागार्जुन को पढ़ाई के लिए अनुमति दे दी गई। उन्होंने वहां रहकर प्राकृत पाली, अपभ्रंश, मैथिली, बिहारी अंग्रेजी एवं हिंदी का अध्ययन किया।
कविता, उपन्यास, निबंध, आलोचना, बाल साहित्य कवित्त आदि साहित्यिक विधाओं का मैथिली, संस्कृत और हिंदी में साहित्य लिखा।
उनकी रचनाएँ कविता संग्रह- बादल को घिरते देखा है, सतसंग पंखों वाली, सिंदूर तिलंकित भाल, चनाचोर गरम, प्रेत का बयान, खून और शोले, अकाल और उसके बाद, तुमने कहा था, आदि कविता हुई।
उपन्यास – बलचनमा, जमनिया का बाबा, वरूण के बेटे, रतिया की चाची, कुम्भीपाक, अभिनंदन आदि है।
कहानी संग्रह- विद्यापति की कहानी आदि रचनाएँ प्राप्त होती है।
हिंदी साहित्य जगत में उनका आगमन एक क्रांतिकारी कवि के रूप में स्पष्ट होता है। वे सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा उनका संपूर्ण प्रगतिवादी काव्य जीवन के यथार्थ पर ही आधारित होने के कारण वे आधुनिक हिंदी कविता के प्रगतिवादी कवियों में प्रमुख माने जाते हैं। नागार्जुन एक ऐसे जनकवि है, जो अपनी रचनाओं में जनता के पक्ष को स्वीकार करते हैं। जनता के कवि के रूप में उनकी एक अलग छाप बनाने वाले बाबा नागार्जुन केवल विचारधारा के लिए सहायता नहीं लेते दिखाई देते बल्कि जनता के परिवेश से लोकजीवन और संस्कृति से जोड़ते हुए दिखाई देते हैं। उनकी कविता ‘प्रतिबद्ध हूं’ मैं स्पष्ट नजर आता है –

“प्रतिबद्ध हूं  संबद्ध हूं आबद्ध हूँ
प्रतिबद्ध हूँ, जी हां, प्रतिबद्ध हूं
बहुजन समाज के अनुपम प्रगति के निमित्त
संकुचित स्व की आपाधापी के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ भेड़िया धसान के खिलाफ
अंध बधिर व्यक्तियों को व्यक्तियों को
सही राह पर लाने के लिए।”

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह प्रतिबद्धता, संबद्धता, आबद्धता और बहुजन समाज की प्रगति को ज्ञापित करते दिखाई देते हैं।
उनके काव्य रचनाओं में भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, स्वार्थ लोभ, ईर्ष्या आदि के भावों के माध्यम से अपने विद्रोह को काव्य के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है।
नागार्जुन की कविता में आर्थिक तंगी में फंसे शोषित सर्वहारा – मजदूरों की व्यथा को व्यक्त करते हुए कहते हैं –

“संविधान का कवच पहनकर
देखो कैसे ठुमक रही है
श्रमिकों के बोनस पर बिगड़ी
बमक रही है, ठुमक रही है। “

गरीबी मनुष्य को क्या कुछ नहीं करवाती हैं कुछ ऐसे मजदूर लोग श्रम तो अवश्य करते हैं लेकिन बच्चों का सही तरह से लालन-पालन नहीं कर पाते।
साम्राज्यवाद, संप्रदायवाद व कौन पूंजीवाद का विरोध करते हैं जिससे शोषित वर्ग, किसान तथा श्रमिक वर्ग को उचित मान मिल सके। नागार्जुन की कविता “अकाल और उसके बाद” की कविता का वर्णन इस प्रकार से किया गया है –

“कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुत्तिया सोई उसके पास,
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त,
चूहों का भी हालत रही शिकस्त,
दाने आए घर के भीतर कई दिनों के बाद,
धुआं उठा आंगन के ऊपर कई दिनों के बाद,
चमक उठी घर भर की आंखें,
कई दिनों के बाद कौवे ने खुदाई पांखे,
कई दिनों के बाद।”

नागार्जुन युगीन परिस्थितियों यथार्थ व सामाजिक चेतना को काव्य का विषय बनाया है। उनके काव्य में विद्रोही चेतना का भाव अधिक स्पष्ट होता है मेहनतकश साधारण लोगों के बीच आना-जाना, उठना, बैठना, बोलना, बातें करना उनके अत्यंत करीब से उन्हें पहचाना आदि अनेक कविताएं लिखी है व्यंग्यात्मक शैली में वह वाणी मां देकर अन्याय व अत्याचार को स्पष्ट किया है अत्याचार को स्पष्ट किया है –

” देश हमारा भूखा नंगा घायल है बेकारी से
मिले न रोटी रोजी वर्क के दर-दर भरे भिखारी से,
बदला सत्य अहिंसा बदली, बदली लाठी गोली डंडे हैं
कानूनों की सड़ी लाश पर प्रजातंत्र के झंडे है
निश्चय राज बदलना होगा शासक नेता शाही का।”

भारतीय प्रशासन व्यवस्था के भीतर सरकारी अफसर, सरकारी यंत्रणा, पुलिस सरकारी भ्रष्टाचार आदि विषयों पर नागार्जुन ने समय-समय पर बड़ी महत्वपूर्ण काव्य रचनाओं के माध्यम से लोगों में जागरूकता लाने का प्रयास किया है। सामाजिक विषमताओं का अत्यंत कटु शब्दों में आलोचना करते हुए दिखाई देते हैं। समाज में व्याप्त सरकारी अफसरों द्वारा किए गए भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करते हुए भी स्पष्ट कहते हैं –

“दो हजार मन गेहूं आया दस गांवों के नाम,
सौदा चक्कर लगा काटने, सुबह हो गई शाम।”
सौदा पटा बड़ा मुश्किल से पिछले नेता राम
पूजा पाकर साध गए चुप्पी हाकिम हुक्काम,
भारत सेवक जी को था अपनी सेवा से काम,
खुला चोर बाजार, बढ़ा चोकर चीनी का दाम,
भीतर सुरा गई ठठरी बाहर झुलनी चाम,
भूखी जनता के खातिर आजादी हुई हाराम।”

नागार्जुन ने अपनी ने कविताओं में जितना स्थान प्रगतिवादी को दिया उतना ही स्थान प्रकृति को भी दिया है। प्रकृति का निर्माण तथा जीवन संदर्भ में महत्वपूर्ण स्थान रखता है प्रकृति वर्णन के साथ-साथ अनेक बिंबो का सजीव चित्रण उन्होंने किया है ‘वसंत की अगवानी’ कविता में प्रकृति में उत्साह, उल्लास का वातावरण छा जाता है वह इस प्रकार से कवि ने किया है –

“दूर कहीं अमराई में कोयल बोली
परत लगी चढ़ने झींगुर शहनाई पर,
वृद्ध वनस्पतियों की ठूठी में शाखाओं में,
पोर-पोर टहनी की लगा धहकने,
तेजू निकले मुकलों के गुच्छे गदराय,
अलसी के नीचे फूलों का नभ मुस्काया।”

कवि ने अपने जीवन के कई महत्वपूर्ण साल जेल की कोठरी में बिताएं हैं। आपातकाल में कवि अपनी प्रखर राजनीति कविताओं के कारण जेल भी गए। मई १९७५ से अप्रैल १९७६ तक जेल में रहे। नागार्जुन की कविताओं में आपातकाल का वर्णन मिलता है एक ओर वे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हो अपराधी बताते हैं। उन्होंने इंदु जी इंदु जी क्या हुआ, तुम कैसी डायन हो, अब तो बंद करो, है देवी चुनाव का प्रहसन आदि रचनाओं में व्यंग किया है-

“क्या हुआ आपको
क्या हुआ आपको
सत्ता की मस्ती में
भूल गई बाप को
छात्रों के लहू का
चस्का लगा आपको
काले चीकने माल का
मस्का लगा आपको
किसी ने टोका तो
ठसका लगा आपको।”

राजनीतिक शासन व्यवस्था अत्याचारी और अनाचारी हो गई है। जन आंदोलन दमन करने के लिए जनता पर गोलीबारी की जाती रही जिसे, कवि नागार्जुन ने कभी भी स्वीकार नहीं किया है –

खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक

उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक

बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक

सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक

जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक

इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि कवि नागार्जुन का काव्य सामाजिक चेतना को प्रभावित करती हैं उनके काव्य में समाज के जीवन परिवेश को परिलक्षित करती है। उनके काव्य में सर्वहारा वर्ग का चित्रण है तथा विद्रोही चेतना से भरा होने के कारण उनके काव्य में तीखे व्यंग्य और आक्रोश दिखाई देते हैं। साहित्य में विशेष रुप से दलित पतित, मजदूर, अछूतों के प्रति मार्मिक संवेदना और समस्या, नारी अत्याचार वर्ग के प्रति तीव्र विरोध उनके प्रगतिवादी एवं जनवादी व विचारधारा की देन है उनकी लगभग ४३ साहित्य कृतियाँ साहित्य जगत को प्रदान की है। नागार्जुन का ज्ञान पांडित्य पूर्ण न होकर जीवन के अनुभव पर आधारित है। उनके पारिवारिक व वैचारिक पृष्ठभूमि की जानकारी ‘आईने के सामने’ आत्म लेख में पूर्ण रूप से प्राप्त होती है।
स्वभाव से फक्कड और अक्खड़ बाबा नागार्जुन सच्चे अर्थों में जन कवि थे। निराला के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्होंने इतने ढंग, इतने छंद, इतनी शैलियाँ और इतने काव्य रूपों का इस्तेमाल किया है। बाबा की कविताओं में कबीर से लेकर धूमिल तक की पूरी हिन्दी काव्य-परंपरा एक साथ जीती है। अपनी कलम से आधुनिक हिंदी काव्य को समृद्ध करने वाले नागार्जुन का ५ नवम्बर सन् १९९८ को बिहार में निधन हो गया।

परिचय :- डॉ. यशुकृति हजारे
निवासी : भंडारा (महाराष्ट्र)


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