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गुनाह क्या है

विवेक रंजन ‘विवेक’
रीवा (म.प्र.)

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मेरे पैरों में जब भी काँटा चुभा,
उस बेदर्द से बस यही मैंने पूछा-
बताओ ना तुमने क्यों घायल किया है?
कहता नफ़रत का मैंने हलाहल पिया है।

जिया हूँ बहुत सियाही रातें,
कभी तो पूनम मुझे मिलेगी।
मगर कभी ना मुझे लगा था,
मेरी ही कली यूँ मुझे छलेगी।

अरे ! मैं तो जी भर के तोड़ा गया हूँ,
किस्मत के हाथों मरोड़ा गया हूँ।
नहीं देख पाया बहारों के सपने,
खिज़ा की तरफ ही मोड़ा गया हूँ।

इसलिये चुभता और चुभाता हूँ सबको,
एहसास उसी दर्द का कराता हूँ सबको।
मेरे पास तो है बस घृणा की विरासत,
वही बाँटता फिरता रहता हूँ सबको।

बाँटकर भी ये नफ़रत ना कम हो सकेगी,
रेत सेहरा की भी क्या शबनम हो सकेगी??

एक ही कोंपल,डाल के हम थे साथी,
मगर फूल ने मेरी दुनिया भुला दी।
मैंने हर पल सजाया,संवारा कली को,
भंवरे से प्रेम की लौ उसने जला दी।

कहती चुभने लगे हो तुम हर सांस में,
और खटकते हो जीवन के एहसास में।
अच्छा लगता है भंवरे का गुदगुदाना,
उसका मीठा तराना, झूमकर गुनगुनाना।

उसकी बातों से अब मन है ज्वालामुखी सा,
किस पल कहूँ मेरा जीवन सुखी था ?

हर कली फूल को शायरों ने सराहा,
कोई ना बोला मैं जब भी कराहा।
धुआँ हो गया मन का स्वप्निल सवेरा,
तुम्हीं बतलाओ राही! गुनाह क्या है मेरा?

क्या कह सकता था मैं,यूँ ही मुस्कराया
खुद जलकर तुमने चाँदनी को लुटाया।
आँसू पीते रहे कि डाली डाली कली खिले,
इसी चाह में खुद को तुमने ही मिटाया।

तुम्हारी जलन का गुलशन गवाह है,
टहनी के दिल से भी उठती ये आह है।
जहाँ भी वफ़ाओं के नीलामघर हैं,
वहाँ प्यार करना सदा ही गुनाह है।

दिलजलों की दुनिया तभी तो तबाह है
प्यार करना ही काँटे तुम्हारा गुनाह है।
हुस्न का ही हर तरफ फैला रूवाब है,
और…. हर शोख फूल यहाँ बेगुनाह है।
हाँ, काँटे ! तुम्हारा यही तो गुनाह है।

परिचय : विवेक रंजन “विवेक”
जन्म –१६ मई १९६३ जबलपुर
शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र
लेखन – १९७९ से अनवरत…. दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास “गुलमोहर की छाँव” प्रकाशित हुआ है।
सम्प्रति – सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न सीमेंट संस्थानों से समबद्ध हैं।


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