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भारतीय जीवन में रचा बसा है पर्यावरण

मनोरमा पंत
महू जिला इंदौर म.प्र.

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हमारे पूर्वज सृष्टि के आरम्भ से ही प्रकृति की लय, ताल में रहते थे। जीव जंतुओं, पेड़ पौधों से उनका इतना गहरा आत्मीय संबंध जुड़ा था कि वे उनसे संवाद कर सकते थे। उन्होंनें प्राकृतिक उपादानों को देवी देवताओं की पदवी देकर पूजा अर्चना करके सदैव उनके प्रति सम्मान दर्शाया। उपनिषद ने वृक्ष को ब्रह्म कीसंज्ञा दी है और, वृक्षो रक्षित रक्षितः, जैसा सार्थक वाक्य रचा। हमारा प्राचीन साहित्य ,अध्यात्म लोकविश्वास वृक्षों से जुड़ा है। नारियल को श्रीफल कहा गया है। वट वृक्ष की पूजा, पीपल की पूजा ,आँवले की पूजा भारतीय नारियों के जीवन का अभिन्न अंग रहा है। भारतीय चिंतन में धरा को मातृशक्ति के रूप सेंपूज्यनीय माना गया है और मनुष्य को उसका पुत्र। माता भूमि पुत्रोsहं पृथिव्याः। यजुर्वेद में कहा गया है :-
                                                                    नमो मात्रे पृथिव्यै नमो मात्रे पृथिव्याः
                                                                 कृष्यै त्वा क्षेमाय त्वा रथ्यै त्वा पोषाय त्वा।।
हे भूमि माता तुम्हें प्रणाम! , कृषि, रक्षा तथा पोषण करने केलिये तुम्हारा अभिनंदन करते हैं।
इसी प्रकार “आपो वा सर्वस्य जगत् प्रतिष्ठा ” जल ही जगत् की प्रतिष्ठा है कहकर,जल की उपादेयता, तथा महत्ता को वर्णित किया गया है। सरिताऐं, चाहे गंगा हो या यमुना हो या नर्मदा प्राचीन काल से अपने मधुमय जल से, अपनी उर्वर मृदा से एक विशाल जनसमुदाय का उदर पोषण करने में समर्थ रही है। दूसरी ओर इन्हीं सरिताओ ने हमारी संस्कृति को अत्यन्तमृदु और मानवीय संवेदनाओ से ओतप्रोत गुण प्र दान किये हैं।
अब मनुष्य धरा के साथ खिलवाड़ कर रहा है। उसने नदियाँ प्रदूषित कर उनके ओषधीय गुण समाप्त कर दिये। सीना चलनी चलनी कर दिया, रेत निकाल कर। जंगल काट दिये, पहाड़ तोड़ दिये, तालाब भर दिये। जैव विविधता से पूर्ण नम भूमितल पर खेती शुरु करके पंछियों के आवास छीन लिये। प्रकृति की सहनशीलता अद्भुत है। वह सबसे संतुलन बना कर रखती है यदि आवश्यक मात्रा में सीमित अदा में जंगल कटते हैं तो प्रकृति अपने आप उसकी भरपाई कर लेती है। खाद्य श्रृंखला के हिसाब से जंगली पशु की संख्या बनी रहती है। विविध जीवो, पक्षियों कीट पतंगों की संख्या के हिसाब से प्रकृति में जैव विविधता बनी रहती है, परन्तु यदि मानव उसकी व्यवस्था में दखल देता है, उसकी धारण क्षमता का अतिक्रमण करता है तो वह बदला लेती है, बाढ़ भूस्खलन भूकम्प जैसी विनाशकारी आपदा से या कोरोना जैसी महामारी से।
लाकडाऊन ने प्रकृति का मूल स्वरूप निखार दिया और मनुष्य को आत्मचिंतन का अमूल्य अवसर दिया कि वह पुनःधरा से आत्मीय संबंध कैसे रखना शुरू कर दे। इस संबंध में गाँधीजी का यह कथन उल्लेखनीय है -“हम छोटी छोटी चीजों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण चीजों का नाश करते हैं, और पर्यावरणीय संतुलन को खत्म कर रहे हैं। हम प्रकृति के उपहारों का उपयोग तो कर सकते हैं किंतु उन्हे मारने का हमें कोई अधिकार नही है। अहिंसा और संवेदना केवल जीवों के लिये नहीं जैविक पदार्थों के लिये भी होनी चाहिये।” आइये अभी भी सम्भल जाऐ। लाकडाउन में निर्मल बनी प्रकृति को निर्मल ही बनी रहने के लिये कदम उठाऐं। आदरणीय गुलजार जी की इन पंक्तियों पर गौर फरमाना भी जरूरी है :-

ये शहरों का सन्नाटा बता रहा है,
इंसानों ने कुदरत को नाराज बहुत किया है।

परिचय :-  श्रीमती मनोरमा पंत
सेवानिवृत : शिक्षिका, केन्द्रीय विद्यालय भोपाल
निवासी : महू जिला इंदौर
सदस्या : लेखिका संघ भोपाल
जागरण, कर्मवीर, तथा अक्षरा में प्रकाशित लघुकथा, लेख तथा कविताऐ

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