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उपन्यास : मै था मैं नहीं था भाग : १६

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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मेरी दूसरी कक्षा की परिक्षाएं ख़त्म हो चुकी थी। कक्षा में मेरा पहला क्रमांक आया था और मैं पढाई में एक पायदान ऊपर तीसरी कक्षा में पहुच चुका था। अब मैं सिर्फ अपने पिता के ग्वालियर आने का इन्तजार कर रहा था। इसी बारे में सोचता रहता। इसके अलावा कही भी मेरा मन ही नहीं लगता।
यहां इस घर में मेरी नानी कई दिनों से मेरे नाना के पीछे लगी थी कि उन्हें परीन्छा की यात्रा करने की बहुत इच्छा है। वहां निम्बालकर की गोठ में स्थित अन्ना महाराज के गुरु सरभंगनाथ महाराज का मंदिर था और हर वर्ष चैत्र महीने में वहां होने वाले उत्सव में सैकड़ो भक्त श्रध्दा और भक्ति से दर्शन हेतु जाते। काकी ने बताया मुझे कि एक बार नानाजी की तबियत बहुत खराब हो गयी थी, बचने की उम्मीद नहीं थी उस वक्त नानी ने मन्नत मांगी थी और प्रण किया था कि नानाजी की तबियत ठीक होने के बाद एक बार वह परिन्छा आकर मन्नत पूरी करेंगी। नानी को कुछ और परिचितों का साथ मिल गया था इसलिए नानाजी ने पंतजी से नानी को परिन्छा भेजने हेतु इजाजत ले ली थी।
नानी खूब उत्साह के साथ अपनी कुछ सहेलियों के साथ परिन्छा यात्रा पर दो दिन के लिए गयी थी। हम सब बच्चों को छेद वाला ताम्बे का एक एक पैसा देकर गयी थी।
महीने का आखरी रविवार। गर्मी के दिन थे। सूरज आग उगलने लगा था। बाहर लू सी चल रही थी। हम सब बच्चें दोपहर को राममंदिर के बाहर बरामदे में खेल रहे थे। ऐसे में ही दोपहर तीन बजे के लगभग एक बहुत बुरी खबर आयी। लू लगने से परिन्छा में अचानक नानी का अकाल मृत्यु हो गयी थी। ग्वालियर के कुछ परिचित लोग, पुलिस कर्मियों के साथ नानी की मृत देह बैलगाड़ी में लेकर यहां आने के लिए निकल चुके थे और वें सब कभी भी यहां आ सकते थे। सबकों नानी के निधन का सुनकर सदमा सा पंहुचा। पूरा बाड़ा शोकमग्न हो गया। नानी की तो जाने की उम्र ही नहीं थी। वह कोई कमजोर स्त्री नहीं थी। शरीर से हष्टपुष्ट थी और ऐसी कोई बिमारी भी उसे नहीं थी। मिलनसार नानी ने हाल ही में जीवन के पचास बसंत पूरे किये थे। हम सब बच्चों का खेलना रुक गया था।आंगन में औरतों का रोना शुरू हो गया था। वें एक दुसरे का रोते-रोते सांत्वन कर रही थी। बाड़े के पुरुषों को भी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। सब नानाजी को घेरे थे और मृत देह का इन्तजार कर रहे थे। कुछ पुरुष आगे की व्यवस्था में लग गए। पंतजी बरामदे में आकर झूले पर बैठ गए थे। उन्हें भी समझ में नही आरहा था कि यह कैसे हो गया? वें भी इस धक्के से अपने आप को संवारने का प्रयास कर रहे थे। हम सब बच्चों को भी नानी के मृत्यु की बात समझ में आगयी थी। मुझे भी आदमी के भगवान के घर जाने का रहस्य अब समझ में आ चुका था। बड़ों के गुमसुम चेहरे देख कर हम सब डर से गए थे। छतपर जाने वाली सीढियों पर हम सब एक दूसरे का हाथ पक्के से पकडे आशंकित, सहमे से बैठे थे।
नानाजी आंगन में जमीन पर सर को हाथ से पकडे नीची गर्दन किये बैठे थे। बचपन में नानाजी की माँ उनको चार साल की उम्र में ही छोड़ कर चल बसी। फिर उनको बचपन में ही सौतेली माँ माई के जुल्म सहने पड़े। फिर जैसे तैसे वें सम्हले, विवाह हुआ, अध्यापक की नोकरी लगी। इकलौता पुत्र होने के बावजूद पंतजी की उपेक्षा और ताने सुनते-सुनते ग्रहस्थी की गाडी अभावों में ही सही पर लडखडाते हुए चल ही रही थी। पर मायके जचकी के लिए आई हुई उनकी लाडली अक्का, मतलब मेरी माँ के जाने से वे बहुत ज्यादा व्यथित हो गए थे। असफलता का तमगा लिए बचीखुची ग्रहस्थी सम्हालने की कोशिश कर रहे थे पर नसीब बार-बार उन्हें उनके अकेले होने का अहसास कराने में कोई कसर नहीं रख रहा था और ऐसे में ही नानी का उनको यूं अधूरे सफ़र साथ छोड़ कर जाना। अभी तो खुद नानाजी की दो पुत्रियों का विवाह होना था और दो बच्चों की पढ़ाई अधूरी थी। ऊपर से काकी का और मेरा बोझा। नानाजी के सामने तो अंधेरा ही अंधेरा था शायद। अब आगे कैसे होगा इसका डर निश्चित ही उनको सता रहा होगा? अब आंगन में नानाजी के मित्र भी उनकों घेर के बैठ गए थे। वें उनकी पीठ पर हाथ रख कर नानाजी को सांत्वना दे रहे थे। और वें कर भी क्या सकते थे?
पंतजी के सामने तो इस वृद्धावस्था में विकट संकट ही पैदा हो गया था। वें अब नब्बे के करीब थे। माई भी कब की पिचहत्तर पार कर चुकी थी। दोनों बहुत थक गए थे। उसमे पंतजी का तो स्वास्थ भी ठीक नहीं रहता और घुटनों की तकलीफ के कारण उनकों चलने फिरने में बहुत दिक्कत होती। नानी के जाने से उनका तो पूरा कुनबा ही बिखर गया। अब आगे कैसे और क्या यह चिंता उन्हें भी सता रही थी। ऊपर से अपने इकलौते पुत्र का सांत्वन करने का वें साहस नहीं जुटा पा रहे थे। नानाजी का सांत्वन कैसे करे और उनके सामने कैसे जाए यह पंतजी को समझ में नहीं आ रहा था। वैसे भी नानाजी के साथ उनका संवाद कम ही था। जिन्दगी भर वें नानाजी को नाकारा ही समझते रहे। पर जो कुछ भी हो अब तो हालात बहुत विकट ही थे। सोन्या को धीरज रखने के लिए तो कहना ही पड़ेगा। यही विचार कर के पंतजी झूले पर से उठ खड़े हुए। लाठी टेकते हुए धीरे-धीरे नानाजी के पास आये। नानाजी की पीठ पर से उन्होंने हाथ फिराया। पर उनके मुंह से कुछ भी बोल नहीं निकल पा रहे थे। कुछ देर वें वैसे ही खामोश खड़े रहे। फिर उनके मुंह से इतना ही निकला, ‘सम्हालों खुद को सोन्या।’ और पंतजी जैसे आये थे वैसे ही लाठी टेकते हुए धीरे-धीरे बरामदे में जाकर झूले पर बैठ गए।
नानाजी ने अपने पिता की बात पर कुछ भी प्रतिसाद नही दिया। उनकी वैसी स्थिति भी नहीं थी। नानाजी बड़ी देर तक एक ही स्थिति में मूर्ति बन बैठे थे। उनकी आंखों के आंसू भी जैसे सुख से गए थे। नानाजी सामने राममंदिर में रामजी की पत्थर की मूर्ति को बस एक टक निहारे जा रहे थे। पता नहीं नानाजी के मन में उठने वाला तूफ़ान, उनका दु:ख, उनकी वेदना, भविष्य की चिंता रामजी समझ पा रहे थे या नही? पर मेरे मन में एक ही सवाल था, ‘ये रामजी लोगों को आखिर इतना कष्ट देते ही कयों है? इस घर में सभी तो रामजी के भक्त है। अपने भक्तों की इतनी कठिन परीक्षा? इतना कठिन दंड? जीवन जीने के लिए इतने कष्ट देना रामजी को शोभा देता है क्या? पर मेरे को भी पत्थर के इस रामजी का गणित समझ में नहीं आ रहा था। आखिर इस घर के सब लोग रामजी के इतने अंध भक्त क्यों है? यह भी मेरे समझ में नहीं आया।
मेरी माँ नहीं थी। अब गोपाल मामा की माँ भी उसे छोड़ कर चली गयी। परन्तु काकी के जीवन के बारे में सोचता हूं तो ऐसा लगता है कि सब कुछ बहुत ही विचित्र है। पहले उनके पति का निधन, फिर बेसहारा काकी को उनके भतीजों द्वारा घर से निकालना। फिर दामाद के यहां आश्रय। फिर बेटी की बेटी का गुजरना और अब उसी बेटी की मृत्यु। जिस बेटी के ही भरोसे वें बेटी की ससुराल में आश्रित थी वें काकी अब क्या करेगी? कहां जाएगी? सच तो यह कि मैं, या गोपाल मामा, या नानाजी निराश्रित नहीं हुए थे, सही अर्थो में काकी आज निराश्रित और इस घर के लिए पराई हो चुकी थी। अब काकी के इस घर में टिकने की छोटी सी वजह मैं ही रह गया था। उस पर मेरा भी मेरे पिता के यहां उज्जैन जाने का चल रहा था। कुल मिलाकर इस बुढापे में काकी के सामने घनघोर अंधेरा ही था। अपने दामाद को सांत्वना देने के लिए उनका खुद का चित्त ही कहां शांत था? काकी वैसे ही उदास अपने कमरे में अकेले ही आंसू बहाते बैठी थी। आज तो उनका रामजी की ओर ध्यान ही नहीं था। मन ही मन काकी जरुर यह सोच रही होगी अगर इस घर में हर एक सुहागन अकाल मृत्यु के लिए अभिशप्त है तो फिर इस राममंदिर का क्या करना? और क्या तो रामजी की आराधना से अपेक्षा रखना? और क्या तो उनका उपयोग? आज काकी ने रामजी को अपनी नाराजी बोल कर ही बता दी, ‘तू बैठा रह चुपचाप। तुझे क्या? आज मैं तेरा जाप नहीं करुँगी।’

घर में दस दिन का सूतक होने के कारण रसोई का काम किरायेदार नेने भाभी ने सम्हाल लिया था। राममंदिर में पूजा, नैवेद्य और दोनों समय की आरती की जवाबदारी एक और किरायेदार खोले ने सम्हाल ली थी। बाकायदा दोनों सब पवित्रता का ध्यान रखते। दस दिन के बाद शुद्धि हुई। घर भर में गंगा जल से छिडकाव किया गया और बाद में माई ने नेने भाभी के आभार माने और रसोई का पूरा काम खुद सम्हाल लिया। लेकिन माई की उम्र देखते उनसे ये रसोई का काम सम्हालना थोडा कठिन ही था इसलिए उन्होंने हाथ के नीचे मेरी लीला मौसी को ले लिया। वैसे नानी ने लीला मौसी को पहिले से ही रसोई का बहुत सारा काम सिखा कर कुशल कर दिया था इसलिए माई को और खुद लीला मौसी को कोई परेशानी भले नहीं होती हो पर पहले की बात अलग थी। माई से अब कुछ होता नहीं था तो भी वो बैठे-बैठे बहुत सा काम काम करने की कोशिश करती। पर रात की रसोई का जिम्मा अब पूरी तरह से लीला मौसी का था। पर हाँ माई का हुकुम और मर्जी अभी भी चलती और सब मानते भी। पंतजी और माई जल्दी खाना खाते और जल्द ही सो भी जाते। काकी तो दोपहर बाद एक ही समय खाना खाती थी। इसलिए उनसे किसी को कोई भी तकलीफ ही नहीं थी। वैसे भी काकी अधिकतर अपने कमरे में ही समय बिताती थी। अब तो काकी का ध्यान मेरी तरफ भी नहीं होता। दोपहर के खाने के लिए भी उनकों कई बार बुलाना पड़ता और वें अनमनी सी आती और बैठने के बाद खाना भी ठीक से नहीं खाती। उनकी बेटी के जाने से अब इस घर में उनका मन नहीं लग रहा था। उन्हें पराये होने का एहसास सताने लगा।
मेरे नानामामा, माँ की मृत्यु का समाचार मिलने के बाद सब के साथ कानपूर से आए थे। पहले दिन वें नही आ पाए थे पर बाद की सब व्यवस्था उन्होंने अच्छे से सम्हाल ली थी। नानाजी की हालत तो बहुत ही खराब थी। वें अपने ही दु:ख में डूबे थे। उन्हें सम्हलने में थोडा वक्त लगने वाला था और इतना सब फैलाव सम्हालना उनके लिए भी कोई आसान नहीं था। यही चिंता शायद उनको अपने दु:ख से भी ज्यादा सताए जा रही थी।
तेरहीं और गंगापूजन के बाद नानामामा कानपूर वापस जाने के लिए निकले। उन्होंने नानाजी को उनके साथ कानपुर चलने का कहा पर पंतजी, माई और काकी इन बुजुर्गों की जवाबदारी और चिंताजनक स्वास्थ के कारण नानाजी ने जाने से मना कर दिया। सिवाय किरायेदार और बाड़े की सब व्यवस्था करना भी एक अलग समस्या थी ही।यहां की व्यवस्था न बिगड़े इसलिए नानामामा ने ज्यादा आग्रह नहीं किया और यहां नानाजी का भार थोडा कम हो इसलिए वें अपने साथ गोपाल मामा और नलू मौसी को पहले से ही कानपुर ले ही गए थे। अब यहां इस घर में पंतजी, माई, काकी, नानाजी, लीला मौसी, शरद मामा और मैं, बस इतने ही लोग रह गए थे। काकी अपने दु:ख में होने से अब मुझसे ज्यादा नहीं बोलती और नाहि मेरी ओर उनका ध्यान रहता। घर के वातावारण ने एक गंभीरता का लबादा ओढ़ लिया था। पहले मुझे कुछ लगता तो मैं काकी से मांगता। पर अब हालात बिल्कुल बदल गए थे। जब देखो तब काकी उदास एक हाथ में माला लिए मूरत बने बैठी रहती। अब मैं खुद अपनी दरी बिछा कर सो जाता। काकी को जब सोने की इच्छा होती वें सो जाती। पर सुबह जब मैं उठता तो फिर काकी हाथ में माला लिए मुझे उदास बैठी दिखती। तेरहीं में सब आए और गए पर मैं जिनका इन्तजार कर रहा था वो मेरे पिताजी उज्जैन से नही आए। मैं तो निराश ही हो गया मुझे लगने लगा था कि मेरे पिता अब शायद ही मुझे आ कर ले जाएंगे। नानाजी का स्वभाव वैसे भी संकोची और वें एकांत प्रिय और अब तो नानी के जाने के बाद वें विरक्त से हो गए थे। स्कूल से आने के बाद उन्होंने अपने आप को कमरे में बंद करना सीख लिया था। किसी से भी ज्यादा बात नहीं करते। बाहर पढ़ाने के लिए भी जाना उन्होंने बंद कर दिया। शरदमामा ने हाल ही में आठवी पास की थी और पंतजी की सेवा वह करने लगा था। पंतजी की ओर भी वह ध्यान भी देने लगा था पर नानाजी से डर के कारण उनसे थोडा दूर दूर ही रहताI
मेरे पिता के न आने से मैं निराश जरुर था पर एक आंस मन में अब भी थी कि शायद वें आ जाये। और इसी उम्मीद के कारण मैं उनकी राह देखता रहता। परिस्थिति ने मुझे छोटेबड़े काम करना सिखा भी दिया और सब मुझे अब थोडा बहुत काम करने के लिए कहने भी लगे। काम करने में मुझे भी आनंद आने लगा। एक तो मैं काम सिखने लगा परन्तु इससे एक बात और हुई सब मुझे पूछने भी लगे। यह और भी अच्छा लगने वाली बात थी। इन सबसे बढ़कर यह कि काम करने से अब मैं जिन्दगी की वास्तविकताओं से परिचित होने लगा। पेट भरने के लिए रसोई बनानी पड़ती है, पीने और इस्तमाल हेतु पानी भरना पड़ता है, इसी तरह वर्ष भर का अनाज, लकड़ी, कंडे और भी बहुत सी बातों का संग्रह करना पड़ता है। इन सब बातों का मेरे बाल मस्तिक्ष पर गहरा प्रभाव पड़ने लगा और एक बात काम करने से और मज़बूरी में ही सही सब का सुनने से मेरा महत्व बढ़ने भी लगा।
दिन यूंही गुजर रहे थे कि उज्जैन से मेरी दादी राधाबाई के निधन की वार्ता भी इस बाड़े ने सुनी। दादाजी के जाने के बाद छ: माह के भीतर ही दादी का निधन हुआ। उज्जैन में ही दादी बहुत दिनों से बीमार चल रही थी और उनका सब अंतिम क्रियाकर्म उज्जैन में होने से यहां छत्रीबाजार में या इस घर में कोई भी हलचल नहीं थी।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – १७ में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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