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अबाॅर्शन

जितेंद्र शिवहरे
महू, इंदौर

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कान्ताप्रसाद अभी-अभी बाज़ार से लौटे थे। मंद ही मंद बड़बड़ाएं जा रहे थे।
“क्या समझते है अपने आपको? हमारा कोई मान-सम्मान है की नहीं! बड़े होंगे अपने घर में! हम भी कोई ऐरे-ग़ेरे नत्थू खेरे नहीं है।” कान्ता प्रसाद का क्रोध सातवें आसमान पर था।
जानकी ने गिलास भर पानी देते हुये पुछा- “क्या बात हो गयी माया के पापा! इतना गुस्सें में क्यों हो?”
“अरे! वो माया के होने वाले ससुर! मुझसे कहते की हाइवे वाली सड़क पर जो हमारी जमींन है उन्हें बेच दूं! हूंsssअं! कहने को तो कहते है कि हमे दहेज नहीं चाहिये। तो फिर ये क्या है?” कान्ता प्रसाद दहाड़ रहे थे। माया ने चाय की ट्रे सामने टी टेबल पर रख दी। जीया कुछ दुरी पर खड़ी होकर सब देख सुन रही थी।
“क्या उन्होंने आप से स्वयं जमींन की मांग की!” जानकी ने पुछा।
“हां! जानकी। मुझे लगा की कोई जरूरी बात के लिए मुझे वहां बुलाया है। मगर ये बात उनके दिल में पहले से थी। जितेन्द्र के लिए उस जमींन पर पेट्रोल पम्प खोलना चाहते है।” कान्ता प्रसाद का ने कहा। माया के हाथों की चाय की चुस्कीयों ने कान्ता प्रसाद का गुस्सा अब कुछ शांत किया।
“मगर बाबुजी! उस जमींन पर तो आपने पुलकित के लिए रेस्टोरेंट खोलने का विचार किया है।” माया बीच में बोल पड़ी।
“हां दीदी! फिर हम दोनों की शादी के बाद मां-बाबुजी के पास वही जम़ीन तो होगी। जिसके सहारे इन दोनों का रिटायरमेन्ट कटेगा।” जीया भी बहस में कुद पड़ी।
“सुनिए जी! आप इनकी बातों पर ध्यान मत दीजिए। आखिर वो जम़ीन फ्री में थोड़े ही मांग रहे है। और फिर जितेन्द्र बहुत अच्छा लड़का है। खानदानी लोग है। मुझे तो इस सौदे में कोई परेशानी दिखाई नहीं देती।” जानकी बोली।
“ये सही है की वो लोग ज़मीन रूपये देकर खरीदेंगे। मगर क्या हम लोग जम़ीन के वर्तमान मुल्य पर उनसे बहस कर सकेंगे? वो लोग जो देंगे हमें रखना होगा।”
कान्ता प्रसाद का बोले।
“एक बार फिर सोच लिजिए। ज़मीन का क्या है! आती-जाती रहेगी। मगर ये हमारी माया के अच्छे भविष्य का सवाल है।” जानकी बोली।
“देखो जानकी! रिश्ता हो या सौदा! उसे कभी दबाव में नहीं करना चाहिए। वर्ना बाद में पछताना पड़ता है।” कान्ता प्रसाद बोलकर अंदर कमरे में चले गये।
जानकी और कान्ता प्रसाद की बड़ी माया का रिश्ता शहर के पेट्रोलियम व्यवसायी भागीरथ चौहान के बेटे जितेन्द्र से तय हुआ था। अभी छः माह पुर्व ही उन दोनों की सगाई की रस्म पुरी हुई थी। कान्ता प्रसाद टेलीफोन विभाग के वरिष्ठ कर्मचारी थे। रिटायरमेन्ट में दो वर्ष का समय शेष था। उनका मंझला बेटा पुलकित इंजीनियरिंग की पढ़ाई पुरी कर चूका था। वह नौकरी के लिए स्ट्रगल कर यहा है। माया प्रोफेसर बनने की तैयारी कर रही थी। और जीया अभी नर्सिंग काॅलेज में थी। इस बीच माया के लिए जब जितेन्द्र का रिश्ता आया तो परिवार के लोग बहुत खुश हुये। माया ने जितेन्द्र के लिए हां कर दी थी। दोनों परिवारों ने एक वर्ष के बाद माया और जितेन्द्र की शादी करना तय किया। यह माया के कहने पर ही हुआ। क्योँकि उसे जल्दी ही प्राध्यापक चयन परिक्षा में बैठना था। माया ने इसके लिए बहुत मेहनत की थी। जितेन्द्र की इस संबंध में स्वीकृति जानकर माया प्रसन्न थी। जितेन्द्र माया के प्रति कुछ अधिक ही आकर्षित था। वह उसके विचारों को बहुत सम्मान करता था। यह देखकर जानकी भी प्रसन्न थी। उनकी बेटी बड़े घर की बहू बनने वाली थी। यह उनके स्वजनों के बीच गर्व का विषय था।
“जितु! आपके पिताजी चाहते है कि हमारी पुश्तैनी जमींन हम लोग उन्हें दे दे। क्या ये सही है?” माया ने जितेन्द्र को फोन पर पुछा।
“हां ये सही है। किन्तु ये प्रस्ताव है! जरूरी नहीं की आपके पिताजी को यह मानना ही पड़े।” फोन पर अगली आवाज जितेन्द्र की थी।
“मगर आपकी मम्मी ने यह भी कहा है की यदि हमने जमींन नही दी तब उन्हें इस रिश्तें के विषय में दौबारा सोचना पड़ेगा।” माया ने कहा। उसकी चिंता साफ झलक रही थी।
“यदि ऐसा है तो मैं इसका विरोध करता हूं। और तुम्हें आश्वस्त करता हूं कि ऐसी कुछ भी अनिवार्य शर्त जो हमारी शादी के लिए रखी गयी है, उसमें मेरी सहमती नहीं है।”
जितेन्द्र की इन्हीं मन मोहक बातों में माया स्वयं को भुल जाया करती। जितेन्द्र के वचनों से निश्चिंत होकर पुर्व की भांति माया ने उससे मेल जोल जारी रखा। माया अपनी छोटी बहन जीया से कुछ नहीं छिपाती थी। फिर वह दिन भी आया जब मिश्रा परिवार में उथल-पुथल मच गयी। एक सुबह अचानक माया को जोरो की उल्टी होने लगी। समय को भांपकर जीया दौड़कर घर से बाहर गयी। वह मेडीकल स्टोर्स से प्रेग्नेंसी जांचने कि कीट ले आई। माया के होश उड़ गये। वह प्रेग्नेंट थी। यह सच था कि अपने भविष्य के वैवाहिक जीवन से आश्वस्त होकर माया ने जितेन्द्र को अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया था। मगर उन्होंने गर्भ निरोधक जैसे सभी तरह के संसाधन उपयोग किये थे। इन सबके बाद भी माया गर्भवती हो गयी। यह सोचकर ही उसे रोना आ रहा था। जीया उसे अपनी सामर्थ्य अनुसार हिम्मत दे रही थी। मगर यह पर्याप्त नहीं थी। माया ने तय किया वह अपनी मां जानकी को यह सब बता देगी। मगर चाहकर भी उसकी ऐसी हिम्मत नहीं हुई। उसने जितेन्द्र को फोन लगाया। जितेन्द्र ने माया को ध्यैर्य रखने की सलाह दी। जितेन्द्र ने कहा कि माया स्थानीय नर्सिंग होम पहूंचे। माया ने उसकी बात मान ली।
“देखो! माया! अभी हम इस योग्य नहीं है कि एक बच्चें का बोझ उठा सके।” जितेन्द्र ने माया से कहा। वे दोनों नर्सिंग होम में अबाॅर्शन के संबंध में बहस कर रहे थे।
“मगर जितेन्द्र! आज नहीं तो कल हमें बच्चा तो चाहिए न! और फिर ये हमारे परस्पर प्रेम का परिणाम है। इसे गिराना मुझे स्वीकार्य नहीं है।” माया बोली।
जितेन्द्र भी जिद पर अड़ा था। माया अपने होने वाले बच्चें को जीवन देना चाहती थी। नर्सिंग होम से माया को एक बात और पता चली। जितेन्द्र यहां पहले भी अपनी महिला मित्रों को अबाॅर्शन हेतु ला चूका था। सीमा के विषय में भी उसे वही की सिस्टर आशा ने बताया। सीमा का गर्भपात इसलिए नहीं किया जा सका क्योंकि उसके गर्भवस्था का समय अधिक हो चूका था। गर्भपात करने से सीमा की जान को खतरा था। जितेन्द्र ने सीमा का प्रसव इसी नर्सिंग होम में कराया। और फिर एक रात वह बच्चें को लेकर कहीं चला गया। सीमा भी जा चुकी थी। सुना था कि जितेन्द्र ने सीमा को बहुत सा धन-धान्य देकर अन्य शहर भीजवा दिया। उसकी बेटी कहां थी किसी को कुछ पता नहीं चला। हां! एक ओर बात। जिस रात जितेन्द्र सीमा की नवजात बेटी को अपने साथ ले गया था, अगली सुबह शहर के मुख्य चौराहे पर कचरे के ढेर के पास वह बच्ची रोती-बिलखती मिली। जिसे सामाजिक सेवा करने लोगों ने अनाथ आश्रम में पहूंचाया।
“क्या कचरे के ढेर में मिली वह नवजात बच्ची जितेन्द्र की थी?” माया ने पुछा।
इसका जवाब सिस्टर आशा ने नहीं दिया। जितेन्द्र और माया इस बात पर बहस करने लगे। जितेन्द्र सिस्टर आशा के सभी तरह आरोप स्वीकार कर रहा था। मगर उसने ये भी कहा कि वो सब उसका कल था। वह पिछला सबकुछ भूल चूका है। अब वो गृहस्थ जीवन जीने का प्रषल अभिलाषी था। मगर माया कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी। उसने अपना गर्भपात नहीं करवाने का पक्का निर्णय ले लिया था। अंततः दोनों की बहस इतनी बड़ी की वे लोग एक-दुसरे से नाराज़ होकर वहां से चले गये।
कान्ता प्रसाद ने अपनी बेटी के ससुराल वालों की बात मान ली। वे उन्हें अपनी पुश्तैनी जमीन देने को तैयार हो गये थे। माया की प्रेग्नेंसी की ख़बर जानकर उन्हें दबाव में यह निर्णय लेना पड़ा।
माया अपना सामान पैक कर रही थी। उसे अपने गर्भ में पल रहे बच्चें की परवाह थी। इसके साथ ही उसे अपने माता-पिता के सम्मान की भी फ्रिक थी। बहुत सोच विचाय कर उसने जितेन्द्र से शादी नहीं करने का निर्णय लिया। वह अपने परिवार को कुंवारी मां बनने का कलंक भी नहीं देना चाहती थी। माया के इस निर्णय ने परिवार को तोड़कर रख दिया। कान्ता प्रसाद हर प्रकार से माया को समझा बुझा चूके थे। मगर माया का निर्णय घर का कोई भी सदस्य बदल नहीं सका। माया अन्य शहर जा कर वर्किंग वुमन हाॅस्टल में रहने लगी। उसने अपनी पढ़ाई वहां भी जारी रखी। वह जितेन्द्र से बात भी नहीं करना चाहती थी। मगर जितेन्द्र माया को भुला नहीं सका। वह अब भी माया को स्वीकार करना चाहता था। वह भी उसके बच्चें के साथ। उसने माया का पता ढुंढ ही लिया। मगर माया ने अपने द्वार पर आये जितेन्द्र के मुंह पर दरवाजा दे मारा। जितेन्द्र हार मानने वाला नहीं था। वह अपने स्थानीय शहर से सप्ताह में एक बार माया से मिलने उसके शहर में अवश्य आया करता। माया का प्रसव काल समय नजदीक आ रहा था। वर्कींग वुमन काॅलेज की अन्य महिलाओं ने माया की बहुत मदद की। वहां की कोमल माया की बहुत अच्छी सहेली बन गयी थी। उसने माया और जितेन्द्र के बीच कड़ी का काम किया।
“तुम कौन हो बेटी! और माया से क्यों मिलना चाहती हो।” वर्किंग वुमन होस्टल की वार्डन स्मिता पाल हाॅस्टल में आयी आठ-दस वर्षीय लड़की से पुछा।
“मेरा नाम नव्या है। और मैं जितेन्द्र चौहान की बेटी हूं।” नव्या ने स्मिता पाल को बताया। वे माया और जितेन्द्र के विषय में सबकुछ जानती थी। उन्होंने माया को बुलाकर नव्या से मिलने को कह दिया।
माया यह जानकर हैरान थी की नव्या वही लड़की है जिसे अनचाहे गर्भ के परिणाम स्वरूप उसे दुनियां में लाने वाले जनक ने कचरे के ढेर में फेंक दिया था। और ये दुसरा कोई ओर नहीं, जितेन्द्र ही था। उसी के अंश से जन्म लेने वाली नव्या अपने नवजात काल में आवारा कुत्तों का ग्रास बनते-बनते बची थी।
“देख माया! जितेन्द्र अब कितना बदल गया है। उसने तेरे और तेरे इस छः माह के नवीन के लिए स्वयं को बहुत दण्डित किया है। उसे अपने किये पर पछतावा है और उसने अपनी गल़ती भी सुधार ली है।” कोमल ने माया से कहा।
माया की गोद में छः माह का नवीन खेल रहा था। जितेन्द्र अब भी उसे स्वीकारने के लिए हाॅस्टल के बाहर ही खड़ा था। माया विचारों के भंवर में थी।
“क्या सोच रही है माया। जितेन्द्र ने तो नव्वा को अपना लिया। अब क्या तु इसे अपनाने का साहस दिखा सकेगी?” स्मिता पाल के इस प्रश्न ने माया को अंदर तक हिला दिया। नवीन की बहन के रुप में क्या वह नव्या को स्वीकार करेगी? उसकी अंतरात्मा में बहस छिड़ हुयी थी। जिस नव्या को कचरे के ढेर पर फेंके जाने से माया इतनी नाराज़ थी कि उसने जितेन्द्र को छोड़ने का फैसला कर लिया था। अब वही नव्या उसके परिवार का हिस्सा बनने के लिए तैयार खड़ी थी, तब क्या वह नव्या को जितेन्द्र की ही भांति अस्वीकार कर देगी? या स्वीकार कर लेगी? माया भी उसी उलझन में थी जिस उलझन में अनचाहे गर्भ से उत्पन्न नवजात शिशु को स्वीकार अथवा अस्वीकारने में उसके माता-पिता उलझे रहते है।
“माया! नव्या को मां की जरूरत है और नवीन को पिता की। तुम आत्मनिर्भर हो और अपना तथा अपने बच्चें का भलिंभांति पालन-पोषण कर सकती हो। मगर नवीन को उसके पिता के प्यार से तुम वंचित नहीं कर सकती।” स्मिता पाल ने माया को समझाया।
जितेन्द्र भी हाॅस्टल के अंदर आ चूका था। माया उससे नज़र चुराते दिखी। जबकि जितेन्द्र माया और नवीन को प्यार भरी नज़रों से देख रहा था। कोमल ने नवीन को माया के हाथों से अपने हाथों में ले लिया। उसने नवीन को उसके पिता के हाथों में सौंप दिया। अपने बेटे को हाथों में थामकर जितेन्द्र की पहली बार आंखें नम हो गयी। उसने नवीने के माथे को चूमा और फिर उसके गालो को भी। नवीन की मुस्कुराहट ने जितेन्द्र के व्याकुल मन को बहुत सांत्वना दी। कोमल और स्मिता पिता-पुत्र के मिलन को देखकर अभिभूत थी।
“माया! मैं तुमसे यहां यह कहने आया था कि अब से मैं तुम्हें परेशान करने यहां कभी नहीं आऊंगा। आत्मा पर एक बोझ था। वह नव्या को अपनाकर उतर गया।” जितेन्द्र कह रहा था।
“आप तो हार मान गये जितेन्द्र जी!” कोमल ने कहा।
“नहीं कोमल! मेरे दिल का दरवाजा माया और नवीन के लिए हमेशा खुला रहेगा। दरअसल मैंने अपने जीवन को एक नया मोड़ दिया है। जिससे मुझे बहुत सुकून मिलने लगा है। अब से अपना सारा ध्यान वही लगाऊंगा।” जितेन्द्र ने बताया।
“हां मैंने भी सुना है! आप एक ऐसा एनजीओ चला रहे है जो सड़क या कहीं भी लावारिस मिले नवजात शिशुओं को उठाकर अनाथालय में उसकी उचित परवरिश का उत्तरदायीत्व उठाता है।” स्मिता पाल ने बताया।
“सिर्फ इतना ही नहीं स्मिता जी। हमारा एनजीओ अवैध रूप से कये जाने वाले अबाॅर्शन का भी विरोध करता है। हमने सोशल मिडिया पर मुहिम चलाई है जिसमें अनचाहे बच्चें को सड़क आदि पर न फेंककर हमारे निर्धारित स्थानों पर रखकर चले जाने की अपील की है। हमारा एनजीओ उस बच्चें का सही पालन-पोषण और उसकी पढ़ाई-लिखाई का उचित प्रबंध करता है। अभी तीन सौ से अधिक अनाथ बच्चों की देखरेख हमारा एनजीओ कर रहा है।” जितेन्द्र ने बताया।
“जानती हो माया! जितेन्द्र के उस एनजीओ का नाम क्या है?” स्मिता ने पुछा।
माया पुछना चाहती थी मगर उसका ईगो आड़े आ
रहा था।
“मैं ही बता देती हूं। जितेन्द्र ने अपने एनजीओ का नाम रखा है ‘माया’।” स्मिता बोली।
माया अपने सम्मुख खड़े जितेन्द्र को देख रही थी। मानो वह कुछ कहना चाहती थी। मगर कह नहीं पाई। जितेन्द्र आगे बढ़ा। उसने नवीन को माया के हाथों में सौंप दिया। जितेन्द्र ने नव्या का हाथ थाम लिया। वो दोनों हाॅस्टल के बाहर खड़ी अपनी कार के पास पहूंचे। नव्या पलट के माया को देख रही थी। उसकी आंखें माया से कह रही थी कि उन दोनों को आवाज लगाकर रोक ले। कोमल और स्मिता हाॅस्टल के मुख्य द्वार पर आ गये। माया अब भी जितेन्द्र और नव्या को जाते हुये देख रही थी। हाॅस्टल की अन्य सभी महिलाएं चाहती थी माया, जितेन्द्र को रोक ले। आज अगर उसे नहीं रोका गया तब हो सकता था दोनों का मिलन फिर कभी न हो!
नवीन बिलख पड़ा। उसके रोने की आवाज़ इतनी तीव्र थी की जिसे सुनकर उपस्थित सभी उसे पलट के देखने लगे। नव्या ने जितेन्द्र का हाथ छोड़कर माया की ओर दौड़ लगा दी। वह माया से जाकर लिपट गयी। माया की आंखों से अश्रु धार बह निकली। वह स्वंय से लिपटी नव्या के सिर पर प्यार भरा हाथ फेर रही थी। जितेन्द्र की आंखें भी नम हो चूकी थी। नवीन उसे देखकर बाहें फैला रहा था। जितेन्द्र दौड़कर माया के पास पहूंचा। उसने नवीन को अपनी बाहों में भर लिया। माया जितेन्द्र के हृदय से लग गयी। नव्या अपने मम्मा-पापा को कसकर पकड़े हुये थी। जितेन्द्र के हाथों में आते ही नवीन चुप हो गया। हाॅस्टल में उपस्थित महिलाओं का समूह यह देखकर बहुत खुश हुआ। बिछड़े फिर से मिल चूके थे। एक हाथ में नवीन और दुसरे को माया के कंधे पर रखकर जितेन्द्र के चेहरे पर संतोष के भाव उभर आये थे। हाॅस्टल में सभी का शुक्रिया अदा वे लोग कार में बैठ गये। कार वहां से अपने गंतव्य की ओर चल पड़ी।

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परिचय :-  जितेंद्र शिवहरे आपकी आयु – ३४ वर्ष है,  इंदौर निवासी जितेंद्र शा. प्रा. वि. सुरतिपुरा चोरल महू में सहायक अध्यापक के पद पर पदस्थ होने के साथ साथ मंचीय कवि भी हैं, आपने कई प्रतिष्ठित मंचों पर कविता पाठ किया है।


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