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उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग १२

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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पूजा ख़त्म हो गयी। रामजी को और भगवान दत्तात्रय को भोग भी चढ़ाया जा चुका था। अभी ब्राह्मणों सहित सबके भोजन होने थे। राममंदिर के बाहर बरामदे में सबके लिए पटे बिछाएं जा रहे थे। ब्राह्मणों सहित घर के बड़ों को तो उपवास ही था। इसलिए जिन्हें उपवास था ऐसे पुरुषों के लिए अलग से पटे बिछाए गए थे। सब आसन ग्रहण करने ही वाले थे कि उतने में काकी मुझे गोद में लिए अपनी पोटली कंधे पर टाँगे बरामदे में आयी। मुझे उन्होंने नीचे छोड़ा और पंतजी को बोली, ‘मुझसे अब नहीं सम्हाला जाता ये अक्का का बेटा। उम्र हो गयी है अब मेरी। अब समधीजी आप ही इसे सम्हाले।’ इसके बाद काकी नानाजी की ओर मुड़ी, ‘दामादजी, मेरे स्वामी के गुजर जाने के बाद भतीजों ने धक्के मार कर मुझे मेरे ही घर से बेदखल कर दिया था। आप मुझे आग्रह कर के इधर ले कर आए। बेटी के यहाँ आसरा मिलेगा और बचे हुए दिन रामजी के सहारे कट जायेंगे यह सोच कर मै अपने सारे दु:ख भूल कर आपके यहाँ आश्रित हुई। पर अब उसी बेटी ने मुझे पराया कर घर से निकालने का तय कर लिया है तो अब यह आसरा भी खत्म हो गयाI देखे अब इस उम्र में मुझ अभागन को कहाँ आसरा मिलता है?’ काकी की आँखों से आंसू निकले रहे थे।
काकी ने तो जैसे उनके ही रामजी के सामने बिजली गिरा दी। पंतजी और नानाजी तो काकी की ओर देखते ही रह गए। औरतों का परोसना थम गया। काकी का यह बर्ताव किसी को भी समझ में नहीं आया। वैसे पंतजी सहित किसी को भी काकी के घर से चले जाने से कोई भी फर्क पड़ने वाला नहीं था पर असली समस्या मुझे सम्हालने की थी और यहीं घर में सबकी चिंता का भी कारण था।
पंतजी अपनी जगह पर खड़े हो गए फिर वो काकी के पास आए और बोले, ‘रमाकाकी, आपकों इस घर में आसरा आपके दामाद ने नहीं हमने दिया है। हमें जब आपकी हालत के बारे में पता पड़ा तब आपका ख़याल कर हमने ही सोन्या को आपको इधर लाने को कहां था। ऐसे में इस घर से जाने के लिए कहने का साहस किसी में भी नहीं हो सकता। रमाकाकी, आप शांत हो जाइये। रिश्ते में सोन्या की आप भले ही समधन हो पर आप हमारे मित्र की विधवा हो। इस नाते भी हमारा कुछ कर्तव्य बनता है। आपके आदर और सन्मान को कोई ठेस पहुचाएं यह हमें कतई सहन नहीं होगा। हमारे जीते जी आपको दर-दर की ठोकरे खाने की जरुरत नहीं। आप अपने कमरें में जाइए। निश्चिंत रहें। और हां इस बच्चें को तो आपको ही सम्हालना होगा। आपको किसी भी तरह से चिंता करने की जरुरत नहीं। हम देखते है कि क्या किया जा सकता है?
‘पंतजी ने उसी समय नानाजी को बोला’ सोन्या, भाऊ के बाजार में अपनी पीछे की पटोरिया खाली है। काकी के रहने की वही व्यवस्था करो मतलब औरतों के रोज के झगडे से मुक्ति मिलेगी। और हा देवकीनंदन मुनीम को बोल कर महिना दस रुपये काकी के खर्चे के लिए उन्हें देने की व्यवस्था करो। इसके अलावा रसोई के लिए उन्हें रोज की जरुरत का जो भी सामान चहिये वह माई से लेकर उसे पटोरिया में तुम खुद पहुचाने की व्यवस्था करो। पंतजी कितने भी गुस्सैल हो पर जरूरतमंद को मदत करना वें कभी नहीं भूलते। इसके अलावा सबकों सम्हाल लेने का भी उनमें विलक्षण गुण था। नानी से तो उन्होंने कुछ भी नहीं पूछा।
काकी की आँखों से आंसू बहना बंद नहीं हुए थे। माई ने उनकों शांत किया और उनके कमरे में उन्हें ले कर आयी। मुझे काकी की गोद फिर से नसीब हुई। पर काकी ने उस दिन एक प्रण किया, ‘आगे से नानी को वो मुझे लेने के लिए कभी भी नहीं कहेंगी।’
सब शांत होने के बाद अपना सब काम निपटाने के बाद नानी कमरें में आयी और बोली, ‘माँ, मैंने क्या तुमकों घर छोड़ कर जाने का कहां था? अब ससुरजी को तो यही ग़लतफ़हमी रहेगी हमेशा। मेरी स्थिति तुम क्यों नहीं समझती? दो-दो बच्चों को मै हमेशा कैसे दूध पिला सकती हूँ?’ ‘जाने दें आवडे।’ काकी बोली, ‘अब तुम्हें तकलीफ नहीं दूंगी।’
‘मुझसे भूल हुई माँ। मुझे क्षमा कर दो ना? गुस्सा थूक दो और खाना खाने चलो। सब राह देख रहें है। माई और मै तुम्हारे लिए रुके है।’ काकी कुछ भी नहीं बोली। चुपचाप नानी के साथ बाहर आ गयी। उस दिन मुझे नानी ने खुद होकर अपनी गोद में लिया और उसी दिन काकी ने मेरे मुंह में जबरन एक दो चम्मच दाल का पानी और दो चार चावल के दाने डाले और एक रोटी का टुकड़ा हाथ में पकड़ा दिया। काकी को हुए मन:स्ताप के कारण उस दिन पहली बार मेरा अन्न से परिचय भी हुआ।
अब मेरा दूध पीना कम ही हो गया। रोज सुबह आंगन में घर के सब बच्चें बासी रोटी का डिब्बा और आम के अचार की बरनी को घेर कर बैठते। काकी भी मुझे वहां छोड़ देती। आंगन में ही कर्दली के पेड से बड़े से हरे-हरे पत्ते बच्चें तोड़ते और पत्तों पर रोटी रख उसके के ऊपर अचार की एक फांक लेकर खाते बैठते। एकाद टुकड़ा मुझे भी देते और मै उसे चूसते बैठता। एक टुकड़ा ख़त्म होता तो कोई मुझ दूसरा टुकड़ा पकड़ा देता। दूध की मिठास के बाद दाल चावल और अब गेहूं की रोटी से भी मेरा अच्छे से परिचय हो गया था।

पंतजी के निर्णय अनुसार एक दिन हमारा बाडबिस्तर भाऊ के बाजार में इसी बाड़े के पिछवाड़े एक छोटीसी पटोरिया में रखा गया। और बूढी काकी की गृहस्थी वहां बसाई गयी। काकी और एक वर्ष का मै ऐसी आधी अधूरी गृहस्थी के लिए क्या तो सामान लगने वाला था? काकी का तो खुद का ऐसा कोई सामान था ही नहीं। पहनने की दो जोड़ी नौ गजा धोती, एक फटी हुई दरी दो चार बर्तन और ओढने को एक पुराना कम्बल। मेरा तो कुछ भी नहीं था। नानाजी ने फिर भी थोड़ी जलाऊ लकडियां और एक बोरा कंडे किसी के हाथों भिजवाये। और कुछ लगने वाला रोजमर्रा का सामान वें स्वयं ले कर आए। ऊपर से जार्ज पंचम के चित्र वाले एक-एक रुपये चांदी के टंच दस सिक्के काकी के हाथ पर रख दिए। नानाजी की गोद में ही मै आया था सो मुझे भी सामान के साथ ही उन्होंने सामान-समझ कर पटोरिया में छोड़ दिया। बस! इतना ही सिमटा रह गया काकी का विश्व। काकी ने इस बुढ़ापे में नयी गृहस्थी मानों मेरे लिए ही बसाई होI काकी भी कमाल की है? इस उम्र में कैसे तो वो गृहस्थी की गाडी खींच पायेगी? इसका जवाब तो काकी के रामजी ही दे सकते है।
चूल्हें की जलती लकडियों का धुआं काकी को बिलकुल सहन नहीं होता था पर मेरी खातिर मालूम नहीं उनमें कहाँ से इतना जोश और उत्साह संचारित हुआ कि काकी के रामजी भी अपने दातों तले ऊँगली दबा रहे होंगे। सबसे पहले उन्होंने मेरे लिए आधा पाव दूध की बंदी लगाई। दो आने सेर भाव होने से महिना एक रुपया ही खर्च होने वाला था। इसका हिसाब उन्होंने पहले ही पडौसी किरायेदार से लगवा लिया था। घर के झगड़ों में पडौसियों को हमेशा ही रस रहता है इसलिए काकी के घर से अलग होने की खबर फैलते ही सारे पडौसी सक्रीय हो गए थे।
काकी की उम्र को देखते हुए और मै छोटा होने के कारण सब को बहुत हैरानी होती थी। पर पडौस के ज्यादातर काकी की मदद करने दौड़ कर आते। कोई पानी से भरी बाल्टी नल पर से सीधे काकी को पटोरिया में लाकर देता तो कोई पीने के पानी से भरा पीतल का हंडा भी पटोरिया में रख जाता। कुछ मुझे गोद में लेकर खिलाते। तो कुछ बच्चें मेरे साथ खेलने भी लगे।
काकी को रसोई बनाने के लिए किसी भी तरह की शीघ्रता की जरुरत ही नहीं होती थी। नित्यकर्म के बाद और स्नान ध्यान के बाद दोपहर तक रामजी का जाप और बिना नागा घर के राममंदिर में जाकर रामजी के दर्शन करना। तुलसी, पीपल और औदुम्बर (गूलर ) को जल चढ़ाना ये तो उनका नित्य नियम ही था। उसके बाद वें रसोई का काम देखती। खाना तो वें एक ही समय खाती थी। उसमे भी उनके व्रत आगए तो समझों खाने को छुट्टी। पर मेरे को जरुर किसी भी पडौसी के यहाँ खेलते-खेलते खाने को भी कुछ कुछ मिलने लगा। और मै किसी भी पडौसी के यहाँ खेलते-खेलते चटाई पर सो भी जाता। काकी सब काम निपटा कर दोपहर मुझे ढूंढती। उनके साथ फिर कुछ निवाले मेरे लिए होते। फिर मुझे सुलाती और खुद भी उसी फटी दरी पे कुछ देर सो लेती। दो तीन दिन में एखाद बार मुझे नहलाती। बस यहीं हम दोनों की दिनचर्या होती। वैसे काकी अब आनंद से थी। स्वतन्त्र थी। कोई भी बंधन नहीं था। ऊपर से दस रुपये माहवार भी मिलते थे। पर नियति को कुछ और ही मंजूर था। एक वर्ष के बाद ही पंतजी ने यह पटोरिया पाकिस्तान से आए निर्वासित एक सिन्धी परिवार को बेच दी। इस तरह काकी की गृहस्थी एक वर्ष होते हो उजड़ गयीI काकी की गृहस्थी की गाडी फिर से उसी बाड़े के कमरें में आ गयी जहाँ से चली थी।
काकी के पास यहां वापस आने के सिवाय कोई विकल्प ही नहीं था। पर अब एक बात अच्छी थी कि काकी में और नानी में मुझे लेने का मुद्दा ही हमेशा के लिए खत्म हो गया था। काकी ने अब भी मेरी दूध की बंदी चालू रखी थी पंतजी की ओर से काकी को दस रुपये महिना मिलना बंद नही हुए थे। वैसे अब तो मै ठीक से खाना भी खाने लगा था। भले ही अब काकी का अलग से खाना बनाने का काम ख़त्म हो गया था पर पंतजी की ओर से काकी को दस रुपये महिना मिलना बंद नही हुए थे। गोपाल मामा तीन वर्ष का होने को आया था पर वो अब भी सिर्फ दूध ही पीता था। अब नानी को भी मुझसे मुक्ति मिल गयी थी इसलिए उसे भी कभी कभार मेरे ऊपर प्यार-दुलार आ जाता। काकी को तो आराम ही था।

दिन ऐसे ही अपनी मंथर चाल से सरक रहे थे। कुछ भी नया नहीं था अलबत्ता मेरा क्या होगा इसकी नानाजी और नानी को हमेशा चिंता सताए जा रही थी। इससे बढ़ उन्हें मुझे मेरे पिता के पास उज्जैन भेजने की जल्दी थी ताकि उनके तंगी के दिनों में उनका बोझ कुछ कम हो जाए। पर पंतजी को तो अपने बालसखा मेरे दादाजी का कोई संदेशा मिलने के बाद ही मुझे उज्जैन भेजना था, और काकी को तो मेरे लिए किसी तरह की कोई चिता ही नहीं थी। जब तक इस घर का का दाना पानी मेरे नसीब में उनके रामजी ने लिख कर रखा था तब तक काकी को मुझे सम्हालना था और उनका काम वें बड़ी प्रसन्नता से कर रही थी। वैसे भी अब मै धीरे धीरे बड़ा हो रहा था। ऐसे में ही अचानक एक दिन इस बाड़े में मेरे पिता के दूसरे विवाह की खबर आयी। मैंने सुना नानी काकी को कह रही थी, माँ उज्जैन से खबर आयी है, अपने दामादजी ने दूसरा विवाह कर लिया है। नेने भाभी खबर लायी थी उसके बाद इन्होंने छत्रीबाजार जाकर पता लगाया। खबर पक्की है। ज्यादा कुछ पता नहीं चला है। चलो अब अक्का के बेटे को उसकी माँ मिल जाएगी वहां उज्जैन में।’
नानाजी, नानी, काकी, पंतजी, माई सभी मेरे लिए आनंदित थे। मै अब शीघ्र ही यहां से चला जाउंगा इस कल्पना से, सभी की मेरे प्रति भावनाएं बदल गयी। मेरा लाड-दुलार कुछ ज्यादा ही होने लगा। पर नियति ने सबके लिए कुछ अलग ही परोस कर रखा था। पन्द्रह दिन के भीतर ही उज्जैन से एक और खबर आयी। नानी जल्दी-जल्दी हमारे कमरे में आयी और काकी से बोली, ‘सब गड़बड़ हो गया।’
‘क्या हुआ?’ काकी ने पूछा।
‘अपने दामादजी ने उज्जैन में जो दूसरा ब्याह रचाया था ना ……..’ बोलते बोलते नानी रुक गयी।
‘उसका क्या … ?’
‘ऐसा पता पड़ा है कि वह दामादजी को छोड़ कर अपने पुराने प्रेमी के साथ चली गयी।’
‘हे भगवान….!’ काकी के मुंह से निकला, ‘रामजी! पता नहीं अभी और क्या क्या देखना बाकी है?’
‘दर असल माँ, विवाह के पहले से ही उसका किसी से प्रेम था। पर अपने पिता के डर से वह मंडप में आगयी थी। चुपचाप दामादजी के गले में वरमाला भी डाल दी और दो दिन बाद ही जब दामादजी बेंक गए थे तब मौका देखकर बाहर से ताला लगा चाबी पडौस में दे कर अपने प्रेमी के साथ चली गयी। और माँ, चार वर्ष के सुरेश को सोता हुआ अन्दर बंद कर गयी। हैरानी की बात ये है माँ कि वो अपने दामादजी के नाम कभी वापस न आने की चिठ्ठी भी छोड़ गयी। चिठ्ठी में उसने सब लिखा और दामादजी से माफ़ी भी मांगी और तलाक लेने के लिए विनंती भी की। वह कभी भी न आने के लिए अपने प्रेमी के साथ चली गयी और दामादजी के जीवन में फिर अंधेरा छा गया माँ। अब माँ, दामादजी का दुर्भाग्य देखिए उनके सामने तलाक के सिवाय क्या चारा बचा? इससे बढ़ कर यें कि बाद में एक और खबर आयी है कि दूसरे विवाह के लिए भी समधीजी ने ही दामादजी को एक बार फिर मजबूर किया।’
घटनाएं कितनी तेजी से घट रही है। कौन करवाता है यह सब बिना सोचे समझे? काकी के रामजी इतने कमजोर है? न उन्हें काकी की चिंता हैं और नाहि उन्हें मेरी चिंता हैं और नाहि उन्हें मेरे पिता की चिंता है। और फिर भी काकी उन्हीं के के नाम की माला दिन भर जपती रहती है? किससे पूछे यह सब? काकी की आस्था सही या मेरी दूसरी माँ की अनास्था? आस्था और अनास्था का संघर्ष किसे भुगतना पड़ेगा? ये आज मै कैसे बता सकता हूँ? हां, इतना जरुर है कि मेरा मेरे पिता के पास मेरा उज्जैन जाना टल गया और नानाजी और नानी तो बहुत ही दु:खी हो ही गए।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – १३ में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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