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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग ११

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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‘तुम्हें बताऊं माँ रात को घर आते ही इनकी पेशी पंतजी के सामने तुरंत हुईI’ नानी जोश में बोले जा रही थी, ‘घर आते ही पंतजी ने हाथ की छड़ी कोने में रखी। पगड़ी खूंटी पर टांगी। कंधे पर की शाल भी घडी कर खूंटी पर टांगी और जोर से चिल्लाएं, ‘सोन्या ….. ‘

‘पंतजी के इस तरह जोर से चिल्लाने से पूरा बाड़ा सहम गया। वैसे भी उनके बोलने में एक भारीपन होता और फिर इस तरह चिल्लाने से तो भूकम्प सा आया लगता है। औरते बच्चे डर जाते हैं। तुम्हें कहती हूं माँ, मै और माई भी बहुत सहम गए थे।’
‘अपने कमरे से निकल अहिस्ता क़दमों से तुम्हारे दामाद, राममंदिर के बरामदे में पंतजी के सामने जाकर हाथ बांधे चुपचाप खड़े हो गए। माँ, इन्हें तो कुछ पता ही नहीं था और अंदाज भी नहीं था कि पंतजी क्यों नाराज है? माई और मै भी इनके पीछे जाकर खड़े हो गए थे, पर हमारी भी कुछ पूछने की हिमंत नहीं थी।
कल विष्णुपंत मिले थे क्या? ‘पंतजी ने इनसे पूछा। इन्होंने सिर्फ गर्दन हिलाकर स्वीकृति दी।’
‘मेरे लिए कोई संदेशा था क्या?’ पंतजी ने पूछा। इन्होंने फिर गर्दन हिला दी।’
‘फिर मुझे क्यों नहीं बताया? पंतजी ने जोर से पूछा।
‘अबके इन्होंने जवाब दियाI धीरे से बोले,
‘बताने वाला था पर गड़बड़ी में भूल गया। ‘हम दोनों को लगा अब पंतजी और गुस्सा होंगे, चिल्लायेंगे पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।’ ‘अरे सोन्या, तुम्हें अकेले को ही अक्का के विवाह की चिंता है क्या? अभी हम जीवित है तुम सबकी देखभाल करने के लिए, और रामजी की कृपा से समर्थ भी है। तुम मत चिंता करो। ‘पंतजी हँसते हुए बोल रहे थे। माई और मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आया। अब तक घर के सब इक्कठे हो गए थे। ये तो पंतजी की तरफ आश्चर्य से देखने लगे। असल में इनकी तो कोई बातचीत विष्णु पंत समधीजी से हुई ही नहीं थी। फिर पंतजी ऐसा क्यों कह रहे थे? पर सब को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। पंतजी मेरी ओर मुड़े। मुझसे बोले, ‘बहुरानी, हम तुम्हारी अक्का का विवाह तय कर के आए है। विष्णुपंत के सबसे छोटे बेटे पंढरी से। परसों सगाई तय की है। आते महीनों में विवाह निपटा लेंगे।’
‘अरे व्वा ….. क्या कह रहे हो जी? ‘माई ख़ुशी से बोली, ‘आवडे, अच्छी खबर है। जा रामजी के सामने शक्कर रख आ थोड़ी सी। अब तू भी सास बनने जा रही है।’
माँ, तुझे बताती हूं मुझ तो कुछ भी पता ही नहीं था पर अक्का की शादी तय होने से उस दिन मुझे भी बहुत ख़ुशी हुई थी। इनको जरुर गहरा आघात पंहुचा था। इन्हें पंतजी के साथ ही समधीजी के उपर भी बहुत गुस्सा आया। पर क्या करते? विष्णुपंत समधीजी के प्रति इनके मन में पहले से ही गुस्सा और नफरत थी पर उनके लड़के के लिए इनके मन में कुछ भी नहीं था। दूसरे इन्हें अक्का को कम से आठवी तक पढ़ाना था। मतलब उस वक्त कम से कम अक्का का विवाह इन्हें चार पांच साल तक नहीं करना था पर हमारी ही बेटी का विवाह पंतजी इनसे पूछे बगैर तय कर बैठे थे। इसलिए ये बहुत बेचैन थे। पिता के विरुद्ध जा नहीं सकते थे इसलिए इनको बहुत ज्यादा चिडचिडाहट हो रही थी। अपनी बेटी की पढ़ाई, उसकी शादी, उसके सुख के बारे में इन्हें कोई निर्णय लेने का भी अधिकार नहीं इससे बढ़कर हमारा दुर्दैव क्या था माँ? हम दोनों को तो ऐसा लग रहा था कि पंतजी ने इनके सारे अधिकार ही छीन लिए थे और हम दोनों की,कोई विरोध तो छोडो कुछ पूछने की भी हमारी हैसियत नहीं थी। इसलिए ये बहुत दु:खी मन से वहां से अपने कमरें में चले गए। इनके मन में हमेशा के लिए एक हीन भावना घर कर बैठी। ‘नानी की पलके भीग गयी थी।
‘तय समय पर सगाई का कार्यक्रम हुआ। एक महीने बाद शादी भी हो गयी। पंतजी ने खूब धूमधाम से अपनी लाडली पोती का विवाह किया। खर्च भी दिल खोल कर किया। माँ तुमको बताती हूं कि अक्का की शादी में तुमने भी देखा ही होगा कि ये भले ही रिश्ते में विष्णुपंत के समधी थे, पर समधी का सारा मान सन्मान पंतजी को ही मिला रहा था। इन्हें तो कोई पूछ भी नहीं रहा था। सिर्फ कन्यादान के समय हमें किया गया था। पूरे विवाह में पंतजी ही सब मेहमानों की खातिरदारी कर रहे थे। श्रीमंत पूजन में भी सबसे गले मिलने का मान पंतजी ने ही लिया। ये भले ही विष्णुपंत के रिश्ते में समधी हो पर उनके बालसखा पंतजी के पुत्र होने के कारण विष्णुपंत की नजरों में इनका कोई मान ही नहीं था। इसलिए पुरे विवाह समारोह में ये उदास ही थे। किसी काम में भी इनका मन नहीं था। मन में एक बेचैनी सी थी इनके। पंतजी के उपेक्षित और तिरस्कृत व्यवहार के कारण इनमे हमेशा के लिए एक निराशा घर कर गयी। इनका स्वभाव भी गुस्सैल हो गया।

‘विवाह जरुर सम्पन्न हुआ पर पता है माँ सगाई से पहले विष्णुपंत के यहाँ एक अलग ही बखेड़ा हो गया था। यह बात इन्हें अक्का का विवाह होने के दो माह बाद पता चली।’
‘अच्छा?’ काकी को आश्चर्य हुआ।
‘हाँ।’ नानी बोली, ‘बाप बेटे में झगडे हो गए थे। बेटा शादी करने को तैयार ही नहीं था।’ नानी बोलीI
‘क्या कह रही हो?’ काकी ने पूछा।
‘इनके मौसरे भाई है ना विट्ठलभैय्या जो इनके ख़ास मित्र भी है और विट्ठलभैय्या के छोटे भाई रामजी भैय्या अपने दामादजी के भी मित्र है। रामजी भैय्या ने अपने बड़े भाई विट्ठल भैय्या को वो किस्सा बताया और विट्ठल भैय्या ने इन्हें बताया। पर अक्का के विवाह के दो माह बाद।’ नानी बोली।
‘ऐसी कौनसी बात है जो तुझे और दामादजी के चित्त को अशांत किये जा रही है?’ काकी ने पूछा।
‘बताती हूं।’ नानी ने कहना शुरू किया, ‘अपना मित्र कानपूर से पढ़ाई पूरी कर आया है यह पता पड़ते ही रामजी भैय्या उनकें मित्र से मिलने छत्रीबाजार पहुचे। परन्तु अपने मित्र के घर अलग ही नजारा उन्हें देखने को मिला। वहां पर बाप बेटे में जोर जोर से बहस हो रही थी। दोनों की आवाजें सडक पर से गुजरने वालों को भी सुनाई दे रही थी। विष्णुपंत समधीजी के मन में पंतजी की नाती से अपने बेटे के विवाह की भले ही मन से इच्छा थी पर उनके बेटे मतलब अपने दामादजी अक्का से विवाह करने को तैयार ही नहीं थे।’
‘कानपूर में ही उनके साथ पढने वाली एक लड़की से उनका कई दिनों से प्रेम चल रहा था और दोनों ही एक दूसरे से विवाहबद्ध होने का तय कर चुके थे। लड़की के घर वालों की भी इसमें सहमती थी। दामादजी कानपूर में सब तय कर अपने पिता से ही चर्चा करने और उनकी मंजूरी लेने ग्वालियर आए थे। परन्तु इधर यहां ग्वालियर में पंतजी और समधीजी बिना किसी को पूछे सगाई और शादी की तारीख तय कर चुके थे। दामादजी को तो भनक भी नहीं पड़ने दी थी और यहीं झगडे का कारण था। अपने पिता की मर्जी अनुसार दामादजी अपने पिता के मित्र की नाती से विवाह करने के लिए किसी भी कीमत पर तैयार नहीं थे। वें तो नाराज हो कर तुरंत घर छोड़कर कानपूर जाने को निकले थे और वहां वें अपनी मर्जी से उनकी प्रेयसी से विवाह रचाने का तय कर चुके थे। समधीजी और घर के सब उनकों रोकने का प्रयास कर रहे थे। इसी समय अचानक रामजी भैय्या उनके घर पहुचे थे। रामजी भैय्या को तो कुछ भी मालूम ही नहीं था।’
रामजीभैय्या को देखते ही विष्णुपंत समधीजी में थोड़े उत्साह का संचार हुआ।
‘अच्छा हुआ रामजी तू आ गया। अपने दोस्त के कारनामे देंखे क्या?’ विष्णुपंत समधीजी रामजी भैय्या से बोले, ‘घराने की इज्जत सरे बाजार नीलाम करने को निकले है साहबजादे। कुल का पता नहीं, गोत्र का पता नहीं, खानदान का पता नहीं, पत्रिका का मिलान नहीं। मालूम नहीं कहां की कौन सी लड़की से प्रेम विवाह करने निकला है यह नालायक? हमने तय की हुई खानदानी लड़की से इसे विवाह नहीं करना। अब खुद के निर्णय खुद लेने इतना बड़ा हो गया है तुम्हारा दोस्त? हमारा कुछ भी ख़याल नहीं है इसे। जरा समझाओं अपने मित्र को।’
रामजी भैय्या के सामने संकट खड़ा हो गया। उन्हें ऐसा लगा कहां से और क्यों कर तो वे यहां आए? उन्हें तो कुछ अंदाजा ही नहीं था कि यहां क्या घटित हो गया है? वें दुविधा में थे और किसी की तरफ से बोलना नहीं चाहते थे। उन्होंने खामोश रहना ही बेहतर समझा।
बाप बेटे में से कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं थे। झगडा ज्यादा ही बढ़ गया था। और इसी बहाने जाने कौन-कौन से पुराने किस्से सामने आ रहे थे। पुरानी शिकायते और मन में दबी बातें बाहर आ रही थी। समधीजी अपने ही बेटे पर न जाने कैसी कैसी गालियों की बौछार कर रहे थे। इसी बहाने औरों को भी नालायक साबित कर सब का उद्धार कर रहे थे। दामादजी पिता को कुछ बोल नहीं पा रहे थे पर वें पीछे हटने को भी तैयार ही नहीं थे। समधन राधाबाई समेत घर की बड़ी-बूढी औरतों का भी दामाद जी को मनाने का प्रयास असफल रहा था। आखिर रामजी भैय्या को एक अलग ही नजारा देखने को मिला।
अचानक समधी विष्णुपंतजी ने अपने सर से पगड़ी उतारी और दामादजी के पैरों पर रखदी। वें झुके और अपने बेटे के पैरों को उन्होंने अपने हाथों से छुआ। दामादजी को ही क्या वहां पर सभी को समधीजी के इस कृत्य का ज़रा भी अंदाज नहीं था। दामादजी भी तुरंत पीछे हट गए। पिता अपने ही पुत्र के पांव छुए यह उन्हें सहन नहीं हुआ। उन्होंने समधीजी के हाथ पकड़ कर उन्हें खड़ा किया। खुद के हाथों से समधीजी को पगड़ी पहनाई और फिर बोले, ‘दादा यें आप क्या कर रहे हो?’
‘पंढरी, ये इसलिए कि विष्णुपंत नाम के इस शिलेदार का सरकारी दरबारी उठाना बैठना है। इस शहर में हमारी बहुत प्रतिष्ठा है। मान सन्मान है। सभी हमारा लिहाज करते है। हमें बातों का धनी मानते है। हमारा कहां पत्थर की लकीर माना जाता है। तुम नौजवान खुद को तरक्की पसंद समझने वाले आधुनिकता का पहाडा पढने वाले, तुम लोगों को क्या पता कि इज्जत और प्रतिष्ठा कैसे कमाई जाती है। मान सन्मान कमाने के लिए उम्र भी कम पड़ जाती है। और एक क्षण भी नहीं लगता सब कुछ खोने में। ‘समधीजी की आवाज में वेदनाएं थी दामादजी और वहां पर सभी आश्चर्य चकित समधीजी का एक अलग ही रुप देख रहे थे। उनकी ऐसी हालत पहले कभी किसी ने भी नहीं देखी थी।
समधीजी कह रहें थे, ‘किसी की भी इज्जत कुछ ही पल में मिट्टी में मिलाने वाली तुमारी आजकल की पीढ़ी है। क्या जानते हो विवाह बंधन के बारे में तुम लोग? विवाह एक संस्था है। विवाह सिर्फ एक लड़के का एक लड़की से होना इतना भर ही नहीं होता। विवाह के कारण दो परिवारों के घनिष्ट सम्बन्ध जुड़ते है हमेशा के लिये। दोनों परिवारों का एक सामाजिक उत्तरदायित्व होता है अगली पीढ़ी निर्माण करने के लिए हम भले ही तहसीलदार रह चुके हो, भले ही शिलेदार हो, पर सखारामपंत का दरबार में उठना बैठना है। सारे शहर में उनका रुतबा है। इसके अलावा वें हमारे बचपन के घनिष्ट मित्र भी है। यह विवाह हम सब मित्रों की साक्ष से तय होने के कारण हम इस रिश्ते से अपने आप को बंधा हुआ पाते है। हम तो वचनबद्ध है ही पर अगर अब तुम विवाह करने से इन्कार करते हो तो यह समझ लो कि हमारे तुम्हारे संबंध तो हमेशा के लिए खत्म ही समझों पर सखारामपंत से भी हमारे इतने वर्षों के संबंध ख़त्म हो जाएंगे।
दामादजी को अपने पिता के सामने क्या बोले ये समझ में ही नहीं आ रहा था।
समधीजी ने फिर अपने बेटे से कहा, ‘हमारी पगड़ी हमने तुम्हारें पावों पर रख दी और तुम्हारें पांव छुए इससे तुम्हारा हैरान होना स्वाभाविक है। तुम्हें अच्छा भी नहीं लगा होगा। पर ये सब इसलिए नहीं किया हमने कि हमने जो रिश्ता तुम्हारे लिए तय किया है तुम उसी लड़की से विवाह करो। वरन ये सब इसलिए था कि हमारी इज्जत अब तुम्हारे हाथ में है। यह सब हमारी शिलेदारी और तहसीलदार पद से कमाई हुई हमारी प्रतिष्ठा धूल में मिलाने जैसा है और उससे तुम हमें बचा सकते हो इसलिए है। अपनी इज्जत की कीमत पर हमने कभी अपना ईमान नहीं खोया और नाहि कभी झूठ बोले। लेकिन अगर तुमने हमारी बात नहीं मानी तो हमारे घराने की बेइज्जती होगी वह अलग, सिवाय हमारी बात पर कभी कोई विश्वास भी नहीं करेगा सो अलग। हम हंसी के पात्र बनेंगे। लोगों से और रिश्तेदारों से मिलने वाले अपमानजनक व्यवहार में तुम भी शामिल रहोगे। इसलिए हम एक बार फिर से तुम्हें निवेदन करते है कि ऐसी अविवेकी राह पर मत चलों। हम एक बार फिर से तुम्हारे पाँव छूने को तैयार है।’
इतना कह कर समधीजी अपने बेटे के सामने एक बार फिर से झुकने लगे पर इस बार दामादजी सतर्क थे। उन्होंने अपने पिता को झुकने नही दिया और उनके दोनों हाथ पकड़ लिए और बोले, ‘दादा जैसा आप कहों।’
दामादजी के मुंह से ये शब्द निकले जरुर पर उनकों रोना आ गया। वें भी किसी को विवाह बंधन में बंधने का वचन दे कर आए थे। पर उन्हें अपने पिता के भावनिक दबाव के सामने विवश होना पड़ा। अपने पिता के वचन निभाने के लिए वें किसी के सामने विश्वासघात करने जा रहे थे।
दामादजी को रोता देख रामजी भैय्या ने तुरंत उन्हें सम्हाला और उन्हें ऊपर छत पर ले कर आए। बड़ी देर तक दामादजी की आंखों से उनके चूर चूर होते सपनों के लिए आंसू बहते रहे। वेदना लिए दामादजी अपनी असफल प्रेम कहानी रामजी भैय्या को सुना रहे थे। अपनी मर्जी की लड़की से विवाह न होने के कारण उन्हें गुस्सा भी बहुत आ रहा था। ऊपर से जिस लड़की को उन्होंने कभी देखा ही नहीं था उस लड़की से उनका जबरन विवाह होने वाला था। इसी बात के कारण उन्हें बेहद चिडचिडाहट हो रही थी। प्रेम प्रसंग में झूठे ठहराए जाने की एक अपराध भावना उनके मन में समा गयी।
विष्णुपंत समधीजी के लिए वो दिन विजय का रहा होगा पर दामादजी के लिए वो दिन निश्चित ही पराजय का और निराशा का था।’ ‘माँ, यह सब किस्सा रामजी भैय्या ने अपने बड़ेभाई विट्ठल भैय्या को बताया था। पर जिस विवाह के लिए सगाई हो चुकी थी वो विवाह उनके या रामजी भैय्या के कारण टूट न जाए इस लिए दोनों भाइयों ने इसका जिक्र तक कही नही किया। यह किस्सा विवाह के दो माह बाद विट्ठल भैय्या के मुंह से इनके सामने अचानक निकल गया। पर उस समय अक्का अपनी ससुराल उज्जैन में सुख से और आनंद से थी इसलिए हम दोनों भी खामोश ही रहे। हम सब जानते हैं, इसकी भनक तक पंतजी को नहीं लगने दी वरन उनके भी विष्णुपंत समधीजी से रिश्ते खराब हो सकते थे। परन्तु अपने बेटे पर जबरदस्ती करने वाले विष्णुपंत समधीजी हम दोनों की नजरों से हमेशा के लिए उतर गए।

अब आज इस घर में भगवान दत्तात्रय की जयंती मनाने की जोरदार तयारी चल रही है। खूब धूमधाम हैं। इस गड़बड़ी में सब भूल गए है की मै भी आज एक वर्ष का हो गया हूं। इस बीच छत्रीबाजार से या उज्जैन से कोई भी मुझे देखने तक नहीं आया। मेरे पिता है और एक बड़ा भाई भी है। मेरा तो उनसे कोई सम्पर्क नहीं हो पा रहा पर उन्हें तो मेरी याद आना चाहिए ? क्या पता आती भी होगी? फिर वो क्यों कर नहीं आते मुझसे मिलने? इसका जवाब मै आपको कैसे दे सकता हूं। इतना जरुर है कि अब मेरे ननिहाल के सब मुझे मेरे पिता के पास उज्जैन भेजने के बारे में चर्चा करते रहते है। एक वर्ष का मैं मुझे कैसे तो उज्जैन भेजे यह किसी के भी समझ में नहीं आ रहा था।
पचहत्तर पार नानी की माँ रमाकाकी, अब उन्हें काकी ही संबोधन ठीक रहेगा। ये बूढी काकी मुझे गोद ले-ले के और दिन भर मेरा सारा करते-करते थक गयी है। इस घर में काकी की तो किसीको ज़रा भी दया नहीं आती। काकी अपनी बेटी की ससुराल में जो आश्रित थी। नानी को भी अपनी माँ की ओर देखने की जरा भी फुर्सत नहीं मिलती। अब नानी भी अपनी जगह सही है। इस घर में कितना तो काम का फैलाव है। ऊपर से राममंदिर में सारे देवी देवता विराजमान है। रोज दोनों समय की आरती और भोग यह सब भी ठीक से सम्हालना पड़ता है। ऊपर से नानी का भी कुनबा कम नहीं है। ऐसे में उसको मेरे बारे में या अपनी माँ के बारे में सोचने की भला कैसे फुर्सत मिले?
गृहस्थी की चक्की पिसते पिसते स्थितियां नानाजी और नानी के बस से बाहर की हो गयी थी। ऊपर से पैसों की हालत नाजुक। इन सब बातों के कारण नानाजी और नानी बहुत चिडचिडे हो गए थे। नानाजी तो गुस्सैल भी हो गए थे। नानी और काकी के रोज के झगड़े भी बहुत बढ़ गए थे। उपरसे हमेशा मुझे लेने के लिए काकी की जबरदस्ती से भी नानी भी तंग आगयी थी और अपनी माँ से नाराज रहती थी। उसकी मुझे लेने की इच्छा ही नहीं होती थी पर काकी के आगे उसे झुकना पड़ता था। मेरे कारण और काकी के कारण अर्थात हम दो-दो आश्रितों के कारण नानी की घर में अक्सर सबसे बहस हो जाती थी। घर में इतने लोग होते हुए हम काकी का बोझा क्यों उठाएं इस बात पर माई का और नानी का झगड़ा होता था । झगडा ज्यादा बढ़ने पर पंतजी जोर से चिल्लाकर दोनों को शांत करते। नानाजी जरूर किसी के बीच में नहीं पड़ते। उनके हाथ में वैसे भी कुछ नहीं होता। सारे सूत्र पंतजी के और माई के हाथ में ही रहते।
नानी ने भी परिस्थितयों के आगे हार मान ली थी। मुझे दूध पिलाना हैं या नहीं बस इतनी ही उसकी मर्जी चलती थी और इतनी ही उसकी सत्ता। इसमें भी उसे मेरे लिए अपनी माँ का सामना करना पड़ता था। फिर झगडे तो होना ही थे। उसमें भी गोपाल मामा का हक़ पहला और काकी के लिए मैं पहला। अगर काकी को छोड़ दिया जाय तो मेरी हालत इस घर में, न घर का न घाट का जैसी थी। सच तो यह कि नानी मेरे से पूर्ण रुप से उब चुकी थी। काकी के हो रहे हाल और नानी की मर्जी देख कर घर के भी मुझसे दूर ही रहते। मुझे कोई भी नहीं खिलाता या अपनी गोद में लेता। कुल मिलाकर मुझे तो उपेक्षित और तिरस्कृत होकर ही बड़ा होना पड़ेगा। देखें काकी के उपवास और रामजी में उसकी आस्था व उसकी पुण्याई मेरे कितने काम आती है?
पर आज ही एक घटना हो गयी। मै सुबह से रो रहा था। नानी रसोई घर में व्यस्त थी। रामजी के भोग चढाने के लिए उसे रेशमी वस्त्रों में रसोई बनानी थी। राममंदिर में पूजा की तैयारी और ऊपर से भगवान् दत्तात्रय जयंती की अलग से तैयारी। किसी को भी फुर्सत नहीं थी। राममंदिर में जयपुर से लायी गयी भगवान राम लक्ष्मण और सीता माता की दो दो फीट की सफ़ेद संगमरमरी मूर्तियों की परम्परागत स्नान विधि। उसके बाद पूजा, आरती, भोग। बजरंगबली की दो फीट ऊँची प्रतिमा को गेरुए रंग से पोतना। पर इतने से काम नहीं चलता था। अलग अलग चांदी के और पीतल के छोटे-बड़े ढेर सारे देवी देवताओं की भी स्नान करवाकर, चंदन और पुष्प चढ़ा कर पूजा। भींत पर टंगे हुए सारे देवी-देवताओं को भीगे कपडें से पोछना और बाद में चंदन का टिका और पुष्प अर्पित करना। अलग-अलग चांदी के पत्रे से बने देवी-देवताओं के टांक की पूजा करना। पिछले अनेक वर्षों में अलग-अलग नदियों से महादेव का प्रतिक समझ कर इक्कठे किये गए गोल चिकने पत्थरों को भीगे कपडे से पोछ कर उनपर चन्दन और पुष्प चढ़ाना। पिछली चार पीढियों में बहुओं के द्वारा मायके से लायी गयी गोपाल कृष्ण की पीतल की छोटी छोटी प्रतिमाएं हरेक के पालने के साथ उसको धो पोछ कर साफ़ कर उन सब की पूजा करना। उसके बाद ही आरती, भोग, मंत्रपुष्पांजलि वगैरे-वगैरे। पूजा रेशमी वस्त्र पहन कर ही करनी होती। भगवान के भोग के लिए पवित्र रसोई भी घर की सुहागनों को रेशमी वस्त्र पहिन कर ही बनानी पड़ती। चंदन घिसने में ही रोज पन्द्रह मिनिट लगते थे। कुल मिलाकर तीन घंटे से भी ज्यादा का समय लगता था सब निपटाने में।
इस सब व्यस्तताओं में आज भगवान दत्तात्रय की भी जयंती। घर के सब बड़ों को उपवास। उनके लिए फरियाली बनाना और रामजी के लिए रोज के नैवेद्य के लिए रसोई बनानी। भगवान दत्तात्रय के लिए अलग फलिहारी नैवेद्य बनाना, और उपर से पूजा की तैयारियां। बाप रे ! घर की औरतों के तो हाल ही मत पूछो। माई ठहरी सास और नानी थी बहू। कहने का मतलब रसोई का सारा काम नानी को ही करना पड़ता वह भी माई की सलाह से।
नानी रसोई बनाते बनाते परेशान हो गयी थी। आज ऊपर से फरियाली का भी बनाना था। नानी की दिक्कत यहीं कम नहीं हुई। लकड़ियों के कारण चूल्हें से आज धुँआ भी कुछ ज्यादा ही निकल रहा था। पंतजी भी जल्दी करों की रट लगाए थे। उन्हें पूजा की जल्दी थी। इतनी सारी मुसीबतें नानी के लिए मानों कम थी ऐसे में ही गोपाल मामा रोने लगा। वह किसी से सम्हल ही नहीं रहा था। उसे रोते देख नानी उसे लेने को बेचैन हो गयी ताकि वह चुप हो जाए। पर रसोई में उसे ले नहीं सकती थी। और वह नहाया भी नहीं था ऊपर से सूती कपडे पहने था। माई की कड़ी नजर बराबर अपनी बहू पर थी। अब नानी क्या कर सकती थी? आखिर में माई को नानी की दया आयी वें बोली, ‘किसी से गोपाल के सारे कपडे उतरवा ले और उसे पहले लेले। नहीं तो वो रोता ही रहेगा। ‘नानी को भी धुएं से थोडा छुटकारा चाहिए था। उसके लिए उतनी ही राहत। नानी ने किसी को आवाज दे कर गोपाल को लाने को कहा। नानी रसोईघर के बगल वाले कमरे में गोपाल को लेकर ही पहुची थी कि काकी मेरे को लेकर नानी के पास पहुची। मै भी बहुत देर से रो रहा था।
‘आवडे, पहले इसे ले लें कबसे रो रहा है। ‘काकी नानी से बोली।
‘माँ, मुझे बहुत देर हो रही है। पूजा ख़त्म होते ही पंतजी तुरंत रामजी के लिए भोग लगाने हेतु भोग की थाली मंगाएंगे। नहीं तो चिल्लाने लगेंगे। माई भी मुझी को कहेंगी। अभी तू जा। इसे बाद में लूंगी।’
‘अरे, ये रो रहा है न। मै कहती हू इसे ले-ले पहले। इसके रोने के चक्कर में मेरा जाप अधुरा रह गया है। ‘काकी गुस्से से बोली।
नानी को भी गुस्सा आ गया। वो भी जोर से काकी पर झल्ला पड़ी, ‘जा कह रही हू ना तो जाओं। मुझे अभी बिलकुल फुर्सत नहीं है।’
इसके बाद काकी एक पल भी वहां नहीं रुकी। उनकों भी बहुत गुस्सा आ गया था। उन्हें अपमानित भी महसूस हुआ। मुझे ऐसे ही रोता हुआ उठा कर वें अपने कमरे में आयी और मुझे जमीन पर छोड़ दिया। मै तो रो ही रहा था। बारबार घुटनों के बल चल कर मै काकी के पास जाता था और गुस्से में काकी हाथ से मुझे बार बार दूर कर देती थी। मालूम नहीं काकी को क्या हुआ पर आज का काकी का बर्ताव कुछ अलग ही था। अब के तो उन्होंने मुझे हाथ से करीब-करीब जोर से धक्का ही दे दिया और बोली, ‘जा मर उधर। तेरे लिए और कितना अपमान सहन करू सबका? बहुत हो गया। मुंह काला कर यहां से। मेरी मुक्ति कर। हाथ जोडती हू तेरे।’ और उन्होंने दोनों हाथ जोड़ दिए। मै और जोर से रोने लगा। पर काकी के ऊपर मेरे रोने का कुछ भी असर नहीं हुआ। वें उठी और अपना थोडा सा सामन एक गठरी में बांधने लगी। वैसे भी उनके पास था ही क्या सिवाय दो जोड़ी कपड़ों के।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – १२ में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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