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कुत्‍ते की पूँछ

राजेन्‍द्र कुमार श्रीवास्‍तव
सीहोर, (म.प्र.)

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”मैंने क्‍या किया…..?”
सदा की तरह यह आश्‍चर्य मिश्रित प्रश्‍न दागकर इतराते हुये, शरीर को गठीली रस्‍सी की भाँति ऐंठते दूसरे रूम में बुदबुदाते चली गई वह।
मैं विचारों के दलदल में सिर धुनता हुआ छटपटाता रह गया।
अपनी औलाद की जि़न्‍दगी के महत्‍वपूर्ण फैसले में सहायता के वजाय अड़ंगा डालकर उसे तनिक भी अफसोस नहीं।
मैं उस क्षण को कोस रहा हूँ, जब ऊपरवाले ने किसी प्रायश्चितके तहत हमारी जोडी़ मिलाई!
लगभग पैंतीस सालों में फैले दाम्‍पत्‍य जीवन का सम्‍भवत: ऐसा कोई पल नहीं है, जब मन-माफिक पत्नि-पति का एहसास हुआ हो।
‘’तो फिर बच्‍चों का जन्‍म…….?’’ यह प्रश्‍न कोई भी पूछ सकता है।
‘’जोरजवरजस्‍ती में भी तो……।‘’
जब कभी रिश्‍तों में असन्‍तुलन आता है। कुछ परस्‍पर विरोधाभाषी स्थिति निर्मित होती है। तो उसके निराकरण के लिये, एक-दूसरे को समझाईश इत्‍यादि दी जाती है। खासकर दाम्‍पत्‍य जीवन में तो एक दूसरे की आवश्‍यकता हर समय, हर पल ध्‍यान में, अपने बात-व्‍यवहार में, रोजमर्रा के कामकाज में, मान-सम्‍मान कैसे तालमेल बैठाकर चलना पड़ता है। मगर यह सब बातें बहुत ही दुर्लभ हैं। चाहे आप प्रयासों के तरीकों की हद ही क्‍यों ना पार कर लो। वह अपने ढर्रे से तिलभर भी टस-से-मस नहीं होने वाली। ढीठ! बहुत ही बदमिजाज अव्‍बल दर्जे की बददिमाग लीचढ़, कठोर, निर्दयी, मगरूर और असम्‍वेदनशील। अपने आप में ही मगन, मद-मस्‍त प्रकृति एवं प्रवृति की पथराई हुई औरत साबित हुई है।
ऊल-जलूल हरकतें सहन करते रहो। गुरूर में झाड़े गये अपनी मन-मर्जी के हुक्‍म, गुलाम की तरह तत्‍काल बजाते रहो। जहॉं आपने जरा भी ना-नुकर की या एक भी शब्‍द अपने मुँह से निकाला, तो तुरन्‍त ही चढ़ बैठेगी। सारे कामों में विरोध की काली छाया एवं क्रोध के स्‍वर सुनाई देने लगेंगे। चाल-ढाल, बोल-चाल की भाषा सबके सब कार्यकलाप बेहुदे अन्‍दाज़ में ऑंखों को चुभने लगेंगे। अब आप चाहे कितने भी तनाव में दॉंत पीसते रहें। उसकेा कोई फर्क नहीं पड़ेगा। बल्कि अपना आक्रमण और तेज कर देगी। फिर आपके सामने घर-परिवार की शान्ति एवं बच्‍चों की सुख-सुविधा हेतु खामोश ही रहने का अभिनय करना, और बोल कर या यूँ कहें कि छेड़कर कौन मुसीबत मोल ले। जिसे वह अपनी विजय के रूप में मानकर गौरवान्वित होगी तथा आगे भी ऐसी ही स्थिति की ताक में रहने लगेगी। अपनी जीत का आनन्‍द मेहसूस करके। मदमस्‍त।
पति-पत्नि का सम्बन्‍ध जन्‍म जन्‍मान्‍तर का यानि अटूट माना गया है। मगर इस बन्‍धन की कुछ मर्यादायें, कर्तव्‍य एवं अधिकार, चलन में निर्धारित किये गये हैं। परस्‍पर विश्‍वास तथा समर्पण मूल आधार होता है। जिसके इर्द-गिर्द दोनों का जीवन-चक्र गतिमान रहता है।
स्‍वत: ही पति-पत्नि परस्‍पर एक दूसरे की भावनाओं को, इच्‍छाओं को, आवश्‍यकताओं को, दु:ख-सुख को एक रूप होकर मेहसूस करके, अपने आपको क्रियाशील बनाये रखने की आदत में अपने-आपको ढाल लेते हैं। जिससे घर गृहस्‍थी में हंसी-खुशी का वातावरण बना रहता है। तथा प्रगतिशील भविष्‍य की ओर बढ़ते जाते हैं। कदम-दर-कदम।
शायद, जन्‍म-जात परिवेश के स्‍थाई प्रभाव के कारण किसी खास साजिश के तहत। सोची-समझी या सिखाई-पढ़ाई, पैंतरेबाजी को चरितार्थ करने के लिये जली-कटी, असन्‍दर्भित बातों में विशुद्ध उल्‍लासपूर्ण वातावरण को कड़वाहट और तनाव के ज़हर से भर देती है। अडि़यल इतनी कि फिर चाहे आप कितना भी प्रयास करो, सामान्‍य स्थिति लाने की तिलभर भी, सुधार की सम्‍भावना नहीं, बल्कि ओर-ओर दमघोंटू माहौल गहराता जायेगा। जो कई-कई दिन/महिनों/सालों भी बरकरार रह सकता है। रह-रह कर टीस की तरह उभर आयेगा/ उभरता रहेगा।
‘’त्‍यौहार आ रहा है।‘’
आन्‍तरिक भयग्रस्‍त पति ने इतना बोला ही है, कि पत्नि की भृकुटी तन गई।
‘’क्‍या करूँ तो।‘’ पत्नि ने गोला दाग दिया।
‘’ अरे कुछ लाना हो तो बताओ।‘’
पति अज्ञात वाक्‍य-आक्रमण से सहम गया।
‘’मुझसे क्‍या पूछते हो। इतराते हुये उपेक्षा के स्‍वर में पत्नि बोली, ‘’जो लाना है ले आओ, बनाकर धर दूँगी।‘’ और वह बेफिक्र होकर अँगड़ाई लेने लगी। चारों ओर की हवा में एक बदबू का भवका तैर गया। सड़ी मछली हो जैसे।
पति के सम्‍मुख यह आये दिन की बिन बुलाई मुसीबतें हैं। वह जानती है बच्‍चों का एवं लोकलाज का ध्‍यान रखकर पति झकमारकर त्‍यौहार की सारी तैयारी करेगा। वह भी अच्‍छे स्‍तर पर।
वह इठलाती हुई वेपरवाह सारे काम अपनी मर्जी से ऐसे करेगी, जैसे पूरे परिवार पर एहसान कर रही हो। अगर आपने अपनी इच्‍छा थोपनी चाही या कुछ मीन-मेख निकाली, तो आफत आ जायेगी व सारे त्‍यौहार का उत्‍साह तनाव के तंदूर में स्‍वाहा हो जायेगा। बच्‍चों की प्रफुल्‍लता में खलल ना पड़े इसलिए भीगी बिल्‍ली की तरह सब कुछ गुस्‍ताखियॉं नजर अन्‍दाज करनी होती है।
यह सिलसिला स्‍थाई रूप से हर मौकों पर, हर स्थिति में हर समस्‍या पर स्‍थाई कमोवेश मामूली सी रद्दोबदल के साथ चलता रहता है। मगर घात-प्रतिघात में कोई फर्क नहीं, जिसके दुष्‍प्रभाव के कारण मन-मस्तिष्‍क निरन्‍तर बोझिल रहने लगता है।
पत्नि की दलील मानना कोई वर्जित नहीं है। यह भी अत्‍यावश्‍यक है, घर गृहस्‍थी के लिये, मगर कोई अनुकूल तो हो, सबके लिये कल्‍याणकारी तो हो, समझदारी प्रतीत तो लगे।
दाम्‍पत्‍य जीवन के अनेकों आयाम होते हैं। जिनका रसास्‍वादन करके नैसर्गिक, स्‍वभाविक पदत्‍त अमूल्‍य आनंद का लुफ्त उठाया जा सकता है, तृप्ति व संतुष्टि प्राप्‍त की जा सकती है, जिससे जीवन सार्थक होता है।
ऐसा नहीं है कि इन अजीबो-गरीब अन-अपेक्षित हालातों के हल ना निकाले गये हों। जितने भी प्रकार के समाधान हो सकते हैं-हिन्‍सक/अहिन्‍सक परस्‍पर वार्तालाप इत्‍यादि-इत्‍यादि मगर सारे के सारे हथकंडे निष्क्रिय हो गये। अन्‍त में आत्‍मसमर्पण कर दिया एवं उसके कारनामों से प्रत्‍यक्ष/अप्रत्‍यक्ष होने वाली क्षति को सहन करना ही मुनासिब समझा। रिश्‍तों को और घनिष्‍ठ करने के उपक्रम ना करके, उससे पीछा छुड़ाना प्रारम्‍भ कर दिया, इस उम्‍मीद में कि शायद उसे अपने अधिकार या नैसर्गिक आनन्‍द की कमी महसूस हो और वह उसे हॉसिल करने के लिए अपनी हैंकड़ीबाज प्रवृति से तौबा कर ले एवं स्‍वभाविक‍ दाम्‍पत्‍य जीवन की राह में आ सके, परन्‍तु काले रंग पर कोई रंग चढ़ सकता है क्‍या…….!!!

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परिचय :राजेन्‍द्र कुमार श्रीवास्‍तव
जन्‍म :- ०४ नवम्‍बर १९५७
शिक्षा :- बी.ए.
निवासी :- भोपाल रोड, जिला-सीहोर, (म.प्र.)
प्रकाशन :- कहानियॉं, कविताएँ, स्‍थानीय, एवं अखिल भारतीय प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में समय-समय पर यदा-कदा छपती रही हैं।
सम्‍प्रति :- म.प्र.पुलिस (नवम्‍बर २०१७) से सेवानिवृत के पश्‍चात् स्‍वतंत्र लेखन।
सम्‍मान :- २ अक्‍टूवर २०१८ को हिन्‍दी भवन, भोपाल में राज्‍यपाल द्वारा, सम्‍मानित तथा स्‍थानीय अखिल भारतीय साहित्‍यविद् समीतियों द्वारा सम्‍मान प्राप्‍त।


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