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उपन्यास – मैं था मैं नहीं था भाग – ०७

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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जैसे तैसे पहाड़ सी लम्बी रात बीत गयी। कोई भी नहीं सोया था। दुसरे दिन की सुबह अपने समय से ही होना थी सो हुई। परन्तु ये सुबह इस घर के लिए रोज जैसे नहीं थी। मानो ये सुबह खामोशी से दस्तक देते हुए दु:खो का पहाड़ ही लेकर आयी थी। मेरे लिए तो अँधेरा ही लेकर आयी थी। मेरा आगे का प्रवास संकट भरे रास्तों पर अँधेरे में ही मुझे करना था।
इस घर में मायके आयी हुई एक सुहागन पर दुर्दैवी काल ही चढ़ कर आया था। नियति के मन में आगे क्या है? यह सवाल यहाँ पर सभी के मन में था और अनेक आशंकाए और कई सारे उलझे प्रश्न लिए भी था। सभी आठ बजे कर्फ्यू ख़त्म होने का इन्तजार कर रहे थे। आठ बजते ही पंतजी ने माँ के मृत्यु की खबर सबको देने के लिए किरायेदार खोले को भेजा। पंतजी के आज्ञाकारी खोले तुरंत निकल पड़े। जन्म की वृद्धी और मृत्यु का सूतक इन दोनों की खबर एक साथ ही सब को मिलने वाली थी।
थोड़ी ही देर में लोगों का आना शुरू हो गया। आंगन में अब अच्छी धूप भी आगयी थी। उतनी ही ठंडक से राहत। काकी ने कमरे में खाली हुई खटियां पर एक खाली बोरा बिछाकर मुझे उस पर लेटा दिया। ऊपर से कपडा ओढा दिया। और खुद नीचे जमीन पर ही बैठ गयी। वैसे काकी इस घर में आश्रित ही थी इसलिए वो इस घर की किसी भी झंझंट में नहीं पड़ती थी। उनसे किसी को कोई अपेक्षा भी नहीं रहती। नाहि उनसे कोई सलाह मशविरा करता, नाही ज्यादा बात करता। वे भी किसी से ज्यादा बात नहीं करती। उनका समय व्रतवैकल्य, पूजा उपासना और बचे समय में रामनाम की माला जपने में व्यतीत होता। छोटे मनकों की माला तो हमेशा उनके गले में लटकती ही रहती। वैसे उनकी याददाश्त भी कुछ कमजोर ही हो चली थी इसलिए गले में लटकी माला जाप के समय उतारती और जाप होने के बाद वापस गले में डाल लेती। उनका ज्यादातर समय उनके छोटे से कमरें में ही बितता था। जीवन के इस आखरी पड़ाव पर इस विधवा के जीवन में सखारामपंत ने अचानक उनके ऊपर मेरी जिम्मेदारी डाल दी। ऐसे में मेरी माँ के गुजर जाने से उनकों अपनी जिम्मेदारी का कुछ ज्यादा ही एहसास हो गया। माँ के जाने का भले दु:ख हो पर मेरी जिम्मेदारी के कारण काकी को मानों एक उत्साह, एक नयी उर्जा से भर दिया।
थोड़ी ही देर में छत्रीबाजार से मेरे दादाजी विष्णुपंत और दादी राधाबाई भी आये। उनके पीछे पीछे मेरे फूफाजी रामाचार्य वैद्यजी भी आये। फूफाजी के साथ मेरी बुआ सावित्रीबाई भी थी। इन सब को देखते ही आंगन में सब औरतों में फिर से रोना धोना शुरू हो गया। दादाजी ने एक नजर उनकी बहू के मृतदेह पर डाली तो फूफाजी के मन में एक अपराधबोध उनके चेहरें पे दिखाई दे रहा था। वे उनके खास लाडले छोटे साले की पत्नी को नहीं बचा सके थे। आज उनके अनुभव और विद्या सब निरर्थक लग रहे थे उनकों। आज के बाद सब हमेशा यहीं कहेंगे कि प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य राजवैद्य रामाचार्य अपनों का भी इलाज नहीं कर पाते। इससे बढ़ कर यह सोच कर उनका मन खिन्न हो रहा था कि वे अपने साले का सामना कैसे करेंगे?
दादाजी अपने दामाद के मन की दुविधा और खिन्नता को जान गए। उन्होंने फूफाजी के कंधे पर हाथ रखा, ‘दामादजी, परेशान और दु:खी मत हो ज्यादा। आपके किये प्रयत्नों को क्या हम नहीं जानते? परन्तु बहू की इतनी ही जिन्दगी थी। नियति और क्या? आप क्या और कोई और क्या, नियति के आगे सबको ही परास्त होना पड़ता है। इसलिए व्यग्र न हो। शांत रहे।’
पंतजी ने भी अपने मित्र की हां में हां मिलाई, ‘बाकी वैद्यजी ने बहुत मेहनत की। अक्का के इलाज में दिन रात एक कर दिया। यही सच है। पर क्या कर सकते है?’
दादाजी ने पंतजी से पूछा, ‘पंत अब आगे की व्यवस्था ।।?’
‘अक्का की जचकी के बाद, पुत्ररत्न प्राप्त होने की तार दामाद जी को कल ही उज्जैन भिजवा दी थी, पर अक्का के जाने की खबर अभी करनी है। अब आप जैसा बोले ।। ?’ पंतजी बोले।
‘नहीं नहीं ।।। पंढरी का इन्तजार तो करना ही होगा। पर मुझे ऐसा लगता है कि कल का तार मिला होगा उसे और वो कल शाम की गाडी से भी निकला होगा तो दोपहर के पहले ही आ जाएगा। हो सके तो किसी को टेलिफोन दफ्तर भेज कर उज्जैन उसकी बेंक में फोन कर पुछ्वाने का बोल कर देख ले। और वहीँ से एक और तार करने को भी बोले दे।’ दादाजी बोले।
सब लोगों को अब इन्तजार तो करना ही था। पंतजी ने एक दो को आगे की व्यवस्था करने का काम सौपा।

काकी ने किसी को बाहर भेज कर, नानी को कमरें के अन्दर बुलवा लिया नानी अन्दर आयी। उसकी गोद में मेरा तीन महीने का गोपाल मामा भी था। नानी के आते ही काकी नानी से बोली, ‘आवडे, तू ज़रा कुछ देर यहां बैठ, मैं सब निपट कर आती हूँ थोड़ी देर में।’
‘जा हो के आ। मै बैठी हूँ।’ नानी बोली, ‘गोपाल को भी लेना है। कबसे रो रहा है।’
‘अच्छा आवडे, देख मै क्या कह रही हूँ ।।।’काकी बोली, ‘दो दिन का नवजात है तेरा ये नाती। अब इसकों भी लेले थोड़ी देर। आगे कुछ व्यवस्था करनी ही पड़ेगी। अच्छा मुझे बता, विष्णुपंत क्या कह थे?’
वें क्या कहेंगे भला? सब हमारे ही मत्थे मढकर अलग हो जायेंगे। कल सुना नहीं राधाबाई समधन क्या कह गई थी? हमने क्या कम कोशिश की थी दुर्गा दाई को बुलाने के लिए। पर ऐन समय कर्फ्यू के कारण नहीं हो पायी व्यवस्था। ऐन वक्त फजीहत होनी थी वो हुई, ऊपर से ताना सुनना पड़ा वो अलग। उन्हें क्या लगता है कहने के लिए? इतना ही था तो क्यों नहीं अपनी लाडली बहू की प्रसूति की अपने घर? लाडली बहू? सिर्फ कहने भर से क्या होता है माँ? विष्णुपंत समधीजी बाहर कह रहे थे की उनकी बहू की इतनी ही जिन्दगी थी। अभी पच्चीस बसंत भी नहीं देखे थे मेरी अक्का ने।’ नानी रोने लगी।
‘अब मत रो ज्यादा। मै अभी गयी और अभी आयी।’ रमाकाकी बाहर गयी।
नानी खटियां पर ही बगल में बैठ गयी। गोपाल मामा दूध पीने लगा। उसकों दूध पिलाते हुए, नानी मेरी तरफ ही टकटकी लगाए देख रही थी। जाने क्या सोच रही थी? नानी अपनी लाडली बिटिया के गहरे दु:ख से अभी उबरी नहीं थी। स्वाभाविक ही है। अचानक नानी ने मुझसे, दो दिन के नवजात से बोलना शुरू कर दिया, ‘खुद की माँ के लिए ही तू काल बन कर आ गया? कितना अपशकुनी है तेरा आना। मेरी अक्का को खा गया। तेरे आने की ख़ुशी मनाऊ या मेरी अक्का के जाने का दु:ख? तू बता क्या करू मैं?’
दो दिन का नवजात था मै। मेरे तो कुछ कहने का सवाल ही नहीं था। नवजात भी बोलने लगते तो कितना अच्छा होता? कम से कम लोगों की गलतफहमियां तो दूर कर पाते। पर क्या किया जा सकता है? कानों में नानी के शब्द बाण बन कर मेरे को भेद रहे थे। पर मुझे वे महसूस करने की अभी क्षमता ही नहीं थी। मेरी ही नानी मुझे अपशकुनी ठहरा कर अपने मन की भडास दूर कर रही थी। फिर अन्य सब का क्या? मन ही मन सही, दो दिन का मै नवजात नानी को क्या तो जवाब दें सकता था? मेरे दादाजी बाहर कह रहे थे कि उनकी बहू के नसीब में इतना ही जीवन था। पर रामजी को मेरी माँ का जीवन तो मेरे लिए बढ़ाना ही चाहिए था। ईश्वर को इतना निष्ठुर क्यों होना चाहिए? और फिर भी इस निष्ठुर को सब ईश्वर कहें इसे आप क्या कहेंगे? खैर अभी जो सवाल मेरे सामने और सबके सामने है वो ये कि, अब मेरा क्या होगा? अब मुझे जीवन भर सबके आश्रित, शापित, और उपकृत होकर ही रहना पड़ेगा। माँ के बिना बच्चे का जीवन लोगों की दया और संवेदनाओ पर निर्भर निरर्थक जीवन।
अब ऐसा लगता है कि यह शरीर उधार लिया हुआ और मन किरायेदार हो। पर मेरा इन सबमें क्या दोष? और मैं कर भी क्या सकता हूं? इसे तो प्रारब्ध ही कहना बेहतर होगा। मेरी माँ चल बसी ये मैं व्यक्त नहीं कर सकता। नियति ने दो दिन के नवजात को जिस दुश्चक्र और दुर्भाग्य के संकट में धकेल दिया है, अब नियति चाहकर भी उसे नहीं बदल सकती। भाग्य भी बदलता है यह कहावत मेरे बारे में झूठी ही साबित होगी।
नानी गोपाल मामा को दूध पिला रही थी। मैं भी भूखा था। मुझे भी भूख और प्यास महसूस होने लगी थी। मै रोने लगा। पर नानी बस सिर्फ मेरी ओर ही देखे जा रही थी। उसका मन मुझे लेने को तैयार ही नहीं था शायद। थोड़ी देर में गोपाल मामा सो गया। नानी अब सम्हल गयी थी। किसी व्यक्ति के जाने से सभी की भावनाएं अलग अलग तरह से दु:खी और प्रभावित होती है। मेरे रोने का नानी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। काकी कमरें में आयी तो भी नानी मेरी ओर ही टकटकी लगाए जाने क्या सोचते हुए बैठी थी। काकी के अंदर आने से नानी का ध्यान उस ओर गया।
‘क्यों री आवडे, कब से तू ऐसे ही बैठी है? ‘काकी ने मुझे उठाया, ‘ये कब से रो रहा है? इसे लिया क्या? ‘नानी ने कोई जवाब ही नहीं दिया।
‘अरी आवडे, इस को ले ले नहीं तो यह रो-रो कर जान दे देगा।’
नानी रोने लगी। रोते रोते बोली। ‘यह मेरी अक्का को खा गया…. इसका तो मुंह देखने की भी मेरी इच्छा नहीं है।’
काकी को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्हें बुरा भी बहुत लगा। उन्हें नानी से यह कतई अपेक्षा नहीं थी।
‘ये क्या पागलपन है आवडे? मेरी बेटी होकर और खुद सात बच्चों की माँ होकर तुझे ऐसा कहते हुए जरा भी संकोच नहीं हुआ? शर्म कर। अरे समय क्या है, प्रसंग क्या है और तू क्या कह रही है? अरी, तेरी बेटी का ही नहीं वरन इस नवजात का, किसी की पत्नी का, किसी की बहू का, ऐसे अनेक रिश्तों की आज मृत्यु हुई है। सुहागन अक्का गयी, पर तेरे अभी छ: बच्चें जीवित है। पर इस मासूम नवजात की खुद की माँ हमेशा के लिए अब इसे दिखने वाली नहीं है। इसलिए शांत हो जा। धीरज रख। खुद को सम्हाल। ‘काकी बोली।
नानी ने अपनी आंखे पोछी। काकी ने नानी के कंधे पर हाथ रखा और बोली, ‘आवडे, अरे मेरी बेटी होकर तू ऐसे कैसे सोच सकती है? यहीं मेरे संस्कार है क्या? अब जो है, जैसा है वह हमें स्वीकार करना ही होगा और इन सबका धैर्य के साथ सामना भी करना होगा। और क्यों री आवडे, इस दो दिन के नवजात से कैसा तो संकोच और कैसा तो बैर? मुझे तेरी ये बात बिलकुल अच्छी नहीं लगी।’
‘क्या करू माँ? मुझे कुछ भी समझ में ही नहीं आ रहा।’
‘शांत हो जा। सम्हाल खुद को। बाहर क्या चल रहा है तुझे मालूम है क्या? उज्जैन से तुम्हारे दामादजी कभी भी आ सकते है। कर्फ्यू के कारण अक्का को जल्दी ही ले जाना होगा। इसलिए कह रही हूँ कि हाल फिलहाल इसे ले ले जिससे ये सो जायेगा। आगे का आगे देखेंगे।’
काकी ने मुझे नानी की गोद में दे दिया। नानी अब ना नहीं कह पायी। नानी को मै लाख अपशकुनी लग रहा हूंगा पर शायद अब उसकों भी मेरे ऊपर दया आ ही गयी। उसने मुझे ले लिया और मेरा रोना थम गया। थोड़ी ही देर में मै गहरी नींद में था।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – ०८ में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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