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अंतिम मंजिल

शरद सिंह “शरद”
लखनऊ

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कांटों भरी थी जीवन की राहें,
चलना उन्हीं में सीखा था हमने।
छलनी हुआ दामन जब हमारा,
कर के जतन ,सिलना सीखा था हमने
फूलों से कांटे मिले हैं सदा ही,
नर्तन उन्हीं पर सीखा था हमने।
जीवन की बगिया में पतझड़ रहा है,
सूखे ही पत्ते बटोरे थे हमने।
जब भी मिले थे दो पल सुकूं के,
सोचा था भरलें दामन हम अपना।
सुकूं में भी मिला न सुकूं जिंदगी का
हर दर्द सबसे छुपाया था हमने।
लाख जतन से रुक न सके जब ,
डबडबाई आंखों से बिखरे जो मोती ,
लगे न नजर जमाने की उनको,
आंचल में भरकर सुखाया था हमने।
चले राह में एक आशा को पकड़े,
होगी कहीं तो हमारी भी दुनिया,
मिल न सकीं कोई राहें सुगम सी,
थे कांटों के पथ ,पग बढाये थे हमने
जीवन की राहै तलाशी थी जब जब।
साये बहुत से मिले राह में थे,
जीवन का अंतिम पाया जहां था,
अपना ही साया तलाशा था हमने।

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परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने “मेरी स्मृतियां” नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है।


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