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उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग-०४

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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रात्री के सात बजे मेरे नानाजी दाई को बुलाने जो घर के बाहर निकले, वे परिवार में सबका खाना निपटने के बाद भी वापस नहीं लौटे थेI बाद में सबके सोने का भी समय हो गया और सब सोने भी चले गए, तब तक भी नानाजी का कही पता नहीं था। नानी जरुर खूब परेशान और चिंतित हो गयी। नींद का तो सवाल ही नहीं था। मेरी माँ के पास बैठे उसे लगातार धीरज दिए जा रही थी। शायद अब शीघ्र ही सबसे मेरी मुलाकात का समय हो चला था। माँ का दर्द असहनीय हो चला था। वेदनाएं अलग थी। इधर नानाजी का पता ही नहीं था, इसलिए दुर्गाबाई दाई की भी किसी को खबर नहीं थी। माँ तो रोने ही लगी।
“अक्का …। धीरज रख। मै माई को बुला कर लाती हूं। “इतना कह कर नानी कमरे के बाहर गयी।
अब माई का परिचय भी आपको करवाना ही चाहिए। माई मतलब मेरी माँ की सौतेली दादी। सखारामपंत की दूसरी पत्नी गोपिकाबाई। मेरी नानी की सास। इन दोनों सास-बहुओं की दो जचकियाँ एक साथ हो चुकी है। और मेरी माँ और नानी की भी कमोबेश यही स्थिति समझिए। पर पर माई बहुत हिम्मती, कडक स्वभाव की, स्पष्ट वक्ता और पूर्ण रूप से व्यावहारिक।

सखारामपंत का दूसरा विवाह हुआ तब मेरे नानाजी तीन वर्ष के थे। आगे पाच साल तक माई को कोई संतान नहीं हुई। किसी तांत्रिक ने उन्हें संतान प्राप्ति हेतु अघोरी तंत्रमंत्र बताये। पूजा-पाठ के साथ मन्नत पूरी करने हेतु किसी पांच साल तक के मासूम बच्चे की पीठ दागने की सलाह दी, जिससे उन्हें पुत्र प्राप्त हो सकता है। माई को उनकी इस मन्नत को पूर्ण करने के लिए उनका सौतेला बेटा घर में ही मिल गया था। और चिमटे से जलाये गए उस दाग का निशान आज भी मेरे नाना की पीठ पर माई की क्रूरता का इतिहास बयान करते है। परन्तु अनेक प्रयास करने के उपरान्त भी माई पुत्र को जन्म नही दे पायी। फिर धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया और माई नानाजी से अपनेपन से रहने लगी। आगे नानाजी की शादी के वक्त परिवार में माई की दो वर्ष की पुत्री सभी की लाडली हो गयी थी। वैसे माई खूब कर्तबगार महिला थी। पंतजी मकान गिरवी रख कर लोगों को ब्याज पर रूपये उधार देते थे तो माई लोगों कों गहने गिरवी रख कर ब्याज पर रूपये उधार देती थी। इसलिए सभी जगह उनका क्या तो रुतबा और क्या तो लिहाज और क्या तो धमक रहती थी। बहू को तो हमेशा उंगलियों पर ही नचाती थी। इसलिए अनेक बार घर में कोहराम भी मचता था। परन्तु माई के सामने किसी की कुछ भी नहीं चलती थी। पर ये सब बाते अब पुरानी हो गयी। न पंतजी अब ब्याजबट्टे का काम करते है और नाही माई गहने रखने के झंझट में पड़ती है। भले ही दोनों की अब उम्र हो गयी हो परन्तु पूरे कुनबे पर दोनों का नियंत्रण अभी भी है।

कुछ ही देर में नानी और माई कमरे में आ गयी। माई ने माँ की ओर देखा और माँ का माथा सहलाते हुए बोली, ‘अक्का… धीरज रख बिटिया। सब ठीक होगा।’
माँ क्या बोलती?
‘बुखार से इसका बदन देख कैसे गर्म हो रहा है। ‘माई नानी से बोली, ‘माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रख थोड़ी देर आवडे और दुर्गा दाई को कौन गया है बुलाने?’ माई नानी को आवडे कहकर ही बुलाती थी।
‘ये बड़ी देर से गए है दुर्गा दाई को बुलाने। अभी तक नहीं लौटे है।’
‘सोन्या गया है क्या? ‘माई ने अपने माथे पर हाथ रखा, ‘फिर तो हो गया।’
‘ऐसा नहीं है माई। बाहर कर्फ्यू लगा हुआ है। सडक पर सेना की गश्त जारी है। मुझे तो बहुत चिंता हो रही है इनकी। और अक्का की हालत देख कर बहुत डर भी लग रहा है। ‘नानी बोली।
‘ऐसा है क्या? ‘माई ने माँ की ओर देखा, ‘अब रुकने और इंतजार करने के लिए समय नहीं है। मै देखती हूं। आवडे, तू रमाकाकी को बुला ला। और हां नेने भाभी को भी बुला ले। और तयारी कर।’
वैसे नेने भाभी किरायेदार पर माई की बचपन की पक्की सहेली भी है। किसी सगे से कम नहीं। और रमाकाकी मतलब मेरी नानी की माँ। मेरी माँ की नानी। रमाकाकी को मेरी नानी ही एक मात्र संतान थी। पुत्र कोई था नहीं। और पति के देहांत के बाद भातिजों ने और उनकी पत्नियों ने रमाकाकी के हाल करना शुरू कर दिए। यहां सम्पति में बेटियों को कुछ भी देने का रिवाज ही नहीं था। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में पति के हिस्से की सभी सम्पति को तिलांजलि देकर रमाकाकी ने अपनी बेटी के ससुराल में आश्रय लिया और पिछले दस वर्षों से बेटी के ससुराल में विधवा जीवन व्यतीत कर रही है।
नानी सबकों बुलाने गयी। थोड़ी देर में ही नेने भाभी आ गयी। पीछे-पीछे रमाकाकी भी आ गयी। नानी भी कुछ पुराने कपडे और कुछ अन्य जरुरत का सामान ले कर आयी। आते ही बोली, ‘चूल्हे पर पानी गर्म होने के लिए रख दिया है।’
माँ की तबियत कुछ ज्यादा ही बिगड़ने लगी थी। उसे दर्द ज्यादा हो रहा था और वेदनाएं सहन नहीं हो रही थी। इन सब के कारण वह जोर जोर से करहा रही थी।
समधनजी… दुर्गा दाई का अभी भी पता नहीं… अब क्या करे? व्यावहारिकता के नाते माई ने रमाकाकी से पूछ ही लिया। ‘अब रुकने से कुछ नहीं होने वाला, और समय बर्बाद करना भी जच्चा-बच्चा के लिए धोकादायक हो सकता है। ‘रमाकाकी ने भी माई के मन की बात जान ली थी।
अब सब मेरी माँ को घेर कर खड़ी थी।
‘आवडे, अक्का के दोनों हाथ तू ठीक से पकड़ रख। ‘माई बोली। नानी ने मेरी माँ के दोनों हाथ पकड लिए और एकदम चौक गयी, ‘माई, इसका बदन तो जल रहा है। अब क्या करे?’
‘रामाचार्य वैद्य जी की दवाई चल रही है ना बहुत दिनों से। असर क्यों नहीं हो रहा? क्या मात्रा लागू नहीं हो रही? सुबह सोन्या को भेज कर एक बार फिर से रामाचार्य वैद्यजी को तुरंत बुलावा लेना।’

दत्त जयंती का ही तो दिन है। पूनो के चाँद का क्या तो चमकदार उजाला फैला है। कहाँ से लाता होगा चाँद इतना चमकीला उजाला? घर के सारे पुरुष जचकी के इस कमरे से किसी अच्छी खबर का इंतजार कर रहे है और यह जचकी का ही कमरा है। इस बाड़े के इस कमरे में बहुत सी किलकारियाँ गूंजी है। अपनों की भी और किरायेदारों के यहां की भी। बाहर तो अंदर से सिर्फ औरतों की आवाज ही आ रही हैं, परन्तु दुर्गाबाई दाई के बिना अन्दर औरतें परेशान हो रही है। नींद का तो सवाल ही नहीं। जनकगंज पुलिस चौकी से रात के ठीक बारा बजे के बारा घंटों की आवाज सुनाई दी, और कुछ ही देर बाद जचकी के कमरे से मेरे रोने की आवाज बाहर भी सबने सुनी। सभी जचकी के कमरे की ओर तेज कदमों से आए। माई ने थोड़ा सा दरवाजा खोला। सामने दरवाजे के बाहर ही सखारामपंत खड़े थे। उन्होंने पूछा, ‘क्या हुआ?’ ‘बेटा हुआ है। पर अक्का की तबियत बहुत नाजुक है। रामाचार्य वैद्यजी को तुरंत बुलवाना होगा। हम औरतों को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा।’ माई बोली।
‘मतलब? ‘ सखारामपंत ने पूछा।
‘अक्का को तेज बुखार है। नीम बेहोशी में है। ‘कुछ भी नहीं सूझ रहा। उसके ससुराल में तुरंत खबर करना होगी। ‘माई बोली। ‘हे भगवान। ‘सखारामपन्त बोले, ‘बाहर आज ही इस वक्त कर्फ्यू को लगना था। सोन्या का भी कुछ पता नहीं है। वो चिंता अलग ही है। अब सुबह का इंतज़ार करने के सिवाय कोई चारा भी नहीं है। तुम सब अक्का का ख़याल रखों। मैं देखता हूँ क्या किया जा सकता है।’ सखारामपंत लौट आए। पर वो भी क्या करते?
यहाँ कमरे में भले ही सब औरतें परेशान हो, बाहर सडक पर भले ही कर्फ्यू लगा हो। भले ही बाहर आना, जाना न हो पाने से सब चिंतित हो, परन्तु मैं जरुर नौ महीनों के बंधन से हाल ही मुक्त हुआ, किसी पुरानी नौ गजा साडी को फाड़ कर किए टुकडों के दो टुकडों में लिपटा हुआ आराम से पड़ा था। शुरवाती रोने के बाद तनिक तंद्री में ही समझिए। माँ की वेदनाएं पता नहीं कम हुई या ज्यादा, परन्तु वो नीम बेहोशी में थी। अर्ध मूर्छित कह सकते है। उसने तो अभी मुझे देखा ही नहीं था। ऐसा औरतें बातें कर रही थी। बहुत देर शायद मैं नींद में था। रात भर माँ का तेज बुखार कम नहीं हुआ। माई, नानी, नेने भाभी और रमाकाकी कोई भी रात भर सोई नहीं थी। जैसे-तैसे सुबह हुई। सखारामपंत ने माई को बाहर से ही आवाज लगाईं, ‘अजी सुनती हो।’
माई ने थोडा सा दरवाजा खोला।
‘कैसी है अक्का की तबियत? ‘दवाई की मात्रा लागू हुई की नहीं? आठ बजे कर्फ्यू खुलने का सुन रहे हैं। कर्फ्यू खुलते ही रामाचार्य वैद्यजी को बुलवा लेता हूं। सोन्या कहाँ अटका है, उसकी भी खोज खबर लेनी होगी, और अक्का के ससुराल भी खबर भिजवाता हूं। माई ने सब सुना फिर बोली, ‘उस दुर्गाबाई दाई को भी तुरंत बुलवा लो।’
माई अन्दर आई और नेने भाभी को बोली, ‘तुम भी घर जाकर थोड़ा आराम कर लो। थोड़ी देर में रामाचार्य वैद्यजी इसकों देखने आते होंगे। अक्का की ससुराल से भी कोई आएगा ही।’
‘पर माई अक्का को होश में तो आने दो। तब तक मैं ठहरती हूँ। अक्का की बहुत चिंता लग रही है मुझे।’ अब नानी रोने लगी। रमाकाकी ने अपनी बेटी को दिलासा दिया, ‘आवडे, तू अब रोना शुरू मत कर। सम्हाल अपने आप को। रामजी हैं ना सबकी चिंता करने के लिए। वो सब ठीक करेंगे। उन पर भरोसा रख।’
‘कैसे ना रोऊं माँ? मेरी बच्ची के नसीब में सुख ही नहीं लिखा। बीते महीने भर से बीमार चल रही है। दामाद जी से मिलने की एक ही रट लगा रही है। पर दामाद जी के आने की कोई खबर ही नहीं। दामादजी ने तो इसकों एक सादा पोस्टकार्ड तक नहीं भेजा। अब जचकी के साथ तबियत भी खराब और तेज बुखार भी। मेरी बच्ची कैसे सहन कर रही है ये सब, रामजी जाने। ऊपर से ससुराल में मेरी इस लाडली को सम्हालने वाला कोई नहीं। क्या होगा मेरी बच्ची का यह सोच-सोच कर मुझे बहुत वेदना होती है। इधर अपनी हालत भी…. ‘नानी आंखे पोछते हुए बोली।
‘बस कर…. ‘माई ने नानी को टोक दिया, ‘पहले अक्का की सेवा सुश्रुषा और उसी की चिंता करना पड़ेगी ना आवडे? सब ठीक होगा। तुम धीरज रखों। तुझे तो अब सब सम्हालना ही है। इसलिए तुझे तो जबर हिम्मती ही होना पड़ेगा। और तू है की रो रही है। धीरज रख। रामजी सब ठीक करेंगे।’
अपनी सास के आगे नानी भला क्या बोलती? माई का क्या भरोसा कब मुंह का पट्टा शुरु हो जाए। पर माई के इतना भर कहने से नानी को थोड़ी तस्सली हुई। उसने खुद को सम्हाला, अपनी आँखे पोछी और, मैं ससुरजी के लिए चाय का देखती हूं। ‘इतना कहकर नानी कमरे से बाहर चली गयी।

सुबह के आठ बज चुके है। यह कमरा अब धो पोंछकर कर साफ़ कर दिया गया है। नींद से हाल ही जागा मै फटे चिथड़ों में लिपटा आराम फरमा रहा था। माँ की तबियत में रत्ती भर भी सुधार नहीं था शायद। कमरे में अब मेरे अलावा माँ और रमाकाकी ही थी। बाहर कोई कर्फ्यू ख़त्म होने की खबर लाया। वह जोर से चिल्ला-चिल्लाकर गली के बाहर की ख़बरें भी दे रहा था। इतने में गली में रामाचार्य वैद्यजी के तांगा आने की वर्दी आई। थोड़ी ही देर में रामाचार्य वैद्यजी भी तेज कदमों से चलकर बाड़े के अन्दर आ गए। सखारामपंत उन्हें लेकर हमारे कमरे में आए। सखारामपंत मतलब मेरे परानाना। मेरे नाना के पिता को परनाना ही बोलना पड़ेगा। वैसे उन्हें सब पंतजी कहकर बुलाते है। मुझे भी इसी संबोधन से आपका परिचय कराना होगा ना? और रामाचार्य वैद्यजी, ग्वालियर के प्रख्यात, सफल आयुर्वेदाचार्य और राजवैद्य है। और हाँ यह बताने में भी मुझे प्रसन्नता है कि रामाचार्य वैद्यजी मेरे सगे फूफाजी है। एक दिन में ही ढेर सारे रिश्तों की सौगात मिली है मुझे। रामाचार्य वैद्यजी ने आते ही मेरे माँ की नाडी की जाँच की। उसकी आँखें देखी। माँ तो कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं थी इसलिए वे माँ की जुबान नहीं देख सके। परन्तु उन्हें जो समझना था वे समझ गए। फिर उन्होंने मुझे देखा।
रामाचार्य वैद्यजी जब कमरे में आए थे उस वक्त हमारे अलावा कमरे में रमाकाकी भी थी। पर रामाचार्य वैद्यजी का नाम सुनते ही वे कमरे से बाहर चली गयी थी। रामाचार्य के नाम का रुतबा ही कुछ ऐसा था। औरतें उनके सामने आने में संकोच करती थी। वें भी औरतों से बात नहीं करते थे। औरतों की नाडी तक वें पुरषों के सामने ही देखते थे। माँ की और मेरी जाँच करने के बाद रामाचार्य सखारामपंत से बोले, ‘पंत मै स्नान संध्या और नित्य की पूजा पाठ किये बिना घर से बाहर कभी नहीं निकलता। पर आपका संदेशा आया और तुरंत आना पड़ा।’
‘क्या बताए? आपकों तो सब मालूम ही है। महीने भर से ज्यादा हो गया, बच्ची की प्रकृति में ज़रा भी सुधार नहीं है। और ऐसे में ही यह प्रसव। आज तो बोलना भी बंद है। ‘पंतजी बोले।
‘पंत इसका रोग बहुत बढ़ गया है। कुल मिलाकर स्थिति बहुत नाजुक है। ऊपर से दवाई की मात्रा लागू नहीं हो रही। इस विषम ज्वर के कारण मेरी चिंता भी बढ़ गयी है। मैंने अपनी पूरी विद्या, पूरा अनुभव दांव पर लगा दिया है, पर शरीर में दवाई की मात्रा लागू नहीं हो रही है। पंढरी को मै क्या जवाब दूंगा यही सोच कर मै परेशान हो रहा हूं।
‘मतलब ? क्या कहना है आपका ? इतने प्रख्यात आयुर्वेदाचार्य और राजवैद्य हो आप। पिछले दो माह से आप अक्का का इलाज कर रहे है, और अब आप कह रहे हो कि औषध की मात्रा लागू नहीं हो रही? मेरी लाडली अक्का आपके लाडले सबसे छोटे साले साहब की पत्नी है। जरूरत हो तो किसी और वैद्य की सलाह लेने में हर्ज नहीं है। कुछ कीजिए। इसकी ससुराल में हम क्या जवाब देंगे? और बच्चे का क्या? ‘ पंतजी एक ही सांस में बोल गए।
रामाचार्य ने एक क्षण मुझे देखा। फिर बोले, ‘पंत मै एक वैद्य हूँ, ज्योतिषी नहीं। बालक के नसीब में उपरवाले ने क्या परोस कर रखा है ये मैं नहीं बता सकता। परन्तु एक वैद्य की हैसियत से कह सकता हूँ की बालक बिलकुल ठीक है, स्वस्थ है। इसे सम्हालिए। ठीक से इसकी देखभाल होनी चाहिए। मैंने लेप दिया हैं वह आपकी अक्का के माथे पर लगाइए। दवाई की पुड़ियां दी हुई है वह समय से देते रहिए। मूर्छा से बाहर आए बगैर वह मुंह नहीं खोल पाएगी। फिर भी उसके लिए जो औषधीय पानी दिया हुआ है उसे चम्मच चम्मच से थोड़ी थोड़ी देर से उसके मुंह में डालते रहिए। मैं संध्या समय फिर से आऊंगा, पर सूर्यास्त के बाद फिर से कर्फ्यू लगनेवाला है यह याद रखें। छत्री बाजार में खबर कर ही दी होगी? और हाँ उज्जैन तार कर खबर करनी होगी। ‘इतनी सब सूचनाएं देने के बाद रामाचार्य जाने को तैयार हो गए।
रामाचार्य वैद्यजी क्या कहना चाह रहे है यह शायद पंतजी ने समझ लिया, और पंतजी को क्या समझाना था वह उन्होंने ठीक से समझ लिया है यह रामाचार्य वैद्यजी को भी समझ में आ गया। दोनों की ही आँखें नम हो गयी थी। पंतजी ने आवाज दे कर माई को और रमाकाकी को कमरे में बुला लिया।
‘सुनती हो।’ पंतजी माई से बोले, ‘अक्का के स्वास्थ में सुधार अभी नहीं दिख रहा है। तुम उसका ज़रा ठीक से ध्यान रखों। और दवा वगैरे समय पर दी जावे इसका भी खयाल रखों। हां एक बात और, उस बालक को इधर ले कर आओ।’
माई हक्काबक्का थी। उनकों कुछ समझ में ही नहीं आया। उन्होंने मुझे बड़े अलगद हाथों से उठाया और अपने पति के सामने आकर खड़ी हो गयी।
‘इस एक दिन के बालक को रमाकाकी को सौप दो।’ पंतजी बोले।
माई और रमाकाकी एक दूसरें की ओर देखने लगी। फिर माई ने मुझे हौले से रमाकाकी के हाथों में सौप दिया। ‘काकी अक्का का यह बेटा मै आपको सौपता हूं। जब तक अक्का ठीक नहीं हो जाती तब तक इस बालक को आप को सम्हालना होगा।’ पंतजी रमाकाकी से बोले।
रमाकाकी को कुछ भी समझ में ही नहीं आया। पंतजी को रमाकाकी के थरथराते हाथ ही मिले उनकी चौथी पीढ़ी को आसरा देने के लिए। रमाकाकी और माई दोनों ही आशंकित और हैरान थी इस फैसले से पर उनके चेहरें की हैरानगी देखने के लिए रामाचार्य वैद्यजी और सखारामपंत दोनों ही कमरे से बाहर जा चुके थे।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – ०५ में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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