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बसंत चालीसा

प्रवीण त्रिपाठी
नोएडा

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मधुमासी ऋतु परम सुहानी,
बनी सकल ऋतुओं की रानी।

ऊर्जित जड़-चेतन को करती,
प्राण वायु तन-मन में भरती।

कमल सरोवर सकल सुहाते,
नव पल्लव तरुओं पर भाते।

पीली सरसों ले अंगड़ाई,
पीत बसन की शोभा छाई।

वन-उपवन सब लगे चितेरे,
बिंब करें मन मुदित घनेरे।

आम्र मंजरी महुआ फूलें,
निर्मल जल से पूरित कूलें।

कोकिल छिप कर राग सुनाती,
मोहक स्वरलहरी मन भाती।

मद्धम सी गुंजन भँवरों की,
करे तरंगित मन लहरों सी।

पुष्प बाण श्री काम चलाते,
मन को मद से मस्त कराते।

यह बसंत सबके मन भाता,
ऋतुओं का राजा कहलाता।

फागुन माह सभी को भाता,
उर उमंग अतिशय उपजाता।

रंग भंग के मद मन छाये,
एक नवल अनुभूति कराये।

सुर्ख रंग के टेसू फूलें,
नव तरंग में जनमन झूलें।

नेह रंग से हृदय भिगोते,
बीज प्रीति के मन में बोते।

लाल, गुलाबी, नीले, पीले,
हरे, केसरी रंग रँगीले।

सराबोर होकर नर-नारी,
सबको लगते परम् छबीले।

रंग प्रेम का यूँ चढ़ जाये,
हो यह पक्का छूट न पाये।

रँगे रंग में इक दूजे के,
मन जुड़ जाएँ तभी सभी के।

मन की कालिख रगड़ छुड़ायें,
धवल प्रेम की परत चढ़ायें।

नशा प्रीति का ऐसा सिर चढ़ बोले,
आनंदित मन सुख में डोले।

तन मन जब आनंदित होता,
राग-रंग का फूटे सोता।

ढोलक ढोल खंजड़ी धमके,
झाँझ-मँजीरे सुर में खनके।

भाँति-भाँति के फाग-कबीरा,
गाते माथे लगा अबीरा।

भिन्न-भिन्न विषयों पर गाते,
फागुन में रस धार बहाते।

दहन होलिका जब सब करते,
मन के छिपे मैल भी जलते।

अंतर्मन को सभी खँगालें,
निज दुर्गुण की आहुति डालें।

नई फसल का भोग लगाएँ,
छल्ली गन्ने कनक तपाएँ।

उपलों की गूथें सब माला,
श्रद्धा से लपटों में डाला।

पकवानों की हो तैयारी,
गुझिया-पापड़ अति मन हारी।

पीछे छूटा चना-चबेना,
गुझिया हमें और दे देना।

दिखे कहीं पिसती ठंडाई,
संग भाँग ने धूम मचाई।

जो भी पी ले वह बौराये,
भाँति-भाँति के स्वांग रचाये।

अरहर खड़ी शान से झूमे,
मद्धम मलय फलिवहर चूमे।

फूली मटर पक रही सरसों,
दृश्य याद आएँगे बरसों।

कृषकों के मन आस उपजती,
नई फसल उल्लासित करती।

पकी फसल जब घर में आये,
हर किसान तब खुशी मनाये।

इसीलिए यह ऋतु मन भाती,
खुशियों को सर्वत्र लुटाती।

मृदु मौसम में पुलकित तन-मन,
हर्ष दीखता हर घर-आँगन।

यद्यपि सब ऋतुएँ हैं उत्तम,
है मधुमास मगर सर्वोत्तम।

ऋतु बसंत सबके मन भाये,
तब ही तो ऋतुराज कहाये।

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परिचय : प्रवीण त्रिपाठी नोएडा


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