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यह ज़िन्दगी

शरद सिंह “शरद”
लखनऊ

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न जाने क्यों चलते चलते,
यह ज़िन्दगी ठहर जाती है।
त्याग कर प्राचीनता, नवीनते में झांकती आंखें,
छोड़ कटुता, मधुरता को तलाशती आंखें,
न जाने क्यों स्वयं गुम हो जाती हैं।
न जाने क्यों चलते……..
हंसते अधर, अठखेलियां करते थिरकते पांव,
तपती धूप से तड़प कर, किसी तरु की ढूंढते छांव,
न जाने क्यों इनमें शिथिलता आ ही जाती है।
न जाने क्यों…….
खिलखिलाते होंठ जब नकार बदहवासियों को,
मनाते जश्न जब त्याग उदासियों को,
न जाने क्यों आंखे विद्रोही हो जाती हैं।
न जाने क्यों…….
उडें उन्मुक्त हो, परिंदों से, विस्तृत गगन में,
भरे मस्त हो उड़ाने, तितली सी चमन में,
न जाने क्यों मस्तियां अवरोधित हो जाती है।
न जाने क्यों…….
मदमस्त भाव उभरते हैं हृदय पट पर,
उभरते हैं नये रंग चित्र पट पर,
न जाने क्यों चलती लेखनी सिहर जाती है।
न जाने क्यों चलते चलते ज़िन्दगी ठिठक जाती है।
यह ज़िन्दगी ठिठक जाती है।

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परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने “मेरी स्मृतियां” नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है।


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