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गुरु बिन ज्ञान कहां से पाऊं?

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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बुद्धी और ज्ञान दुनियां में बहुत महत्वपूर्ण हैं, फिर वह किसीसे भी प्राप्त हो, उसे अनुभव से प्राप्त कर आत्मसात करना होता हैं। ज्ञान एवं अनुभव ग्रहण करने वाला शिष्य और ज्ञान देने वाला या प्राप्त करवाने वाला गुरु होता हैं। ऐसा यह गुरु और शिष्य का बुद्धी, ज्ञान और अनुभव का रिश्ता होता हैं। ज्ञान तथा अनुभव लेनेवाले एवं देनेवाले की उम्र का इससे कोई संबंध नहीं होता, सिर्फ ज्ञान देनेवाला अपने विषय में निष्णात होना चाहिए, और ज्ञान लेनेवाले का देनेवाले पर विश्वास होना चाहिए। यहीं इस रिश्ते की पहली शर्त होती हैं। बच्चें की पहली गुरु का मान यह उसकी माँ का होता हैं। इसके बाद जीवन के हर मोड़ पर ज्ञान और अनुभव देनेवाले गुरु की आवश्यकता महसूस होती रहती हैं। ‘गुरुपूर्णिमा‘ यह सभी गुरुओं को आदर और श्रद्धापूर्वक स्मरण करने का दिन हैं। गुरुपूर्णिमा को ‘व्यास पूर्णिमा‘ भी कहते हैं। आषाढ़ माह की पूर्णिमा यह महर्षि व्यास मुनि की जन्म तिथि हैं। महर्षि व्यासने वेदों की व्याख्या की थी और भारत राष्ट्र को निरंतर मार्गदर्शन देने वाले अद्भुत और महान अद्वितीय ऐसे न भूतों ना भविष्यति, ‘महाभारत‘ ग्रन्थ की रचना की थी। महाभारत ग्रन्थ का ‘भगवतगीता‘ यह जीवन के गूढ़ और उसकी तत्वशुद्धता बतलाने वाला एक खंड हैं। ‘व्यासपीठ‘ यह शब्द भी महर्षि व्यास मुनि को आदर और सन्मान देने हेतु उपयोग में लाया जाता हैं। गुरूके आदर हेतु उपयोग में लाया जाने वाला यह शब्द अर्थात हर एक शिक्षक को अध्यापन के पूर्व महर्षि वेदव्यास का स्मरण करना चाहिए। यद्यपि गुरुकुल व्यवस्था बहुत पुरातन हैं फिर भी विश्व का पहला गुरु होने का मान महर्षि वेदव्यास को मिला हुआ हैं। आखिर गुरु ऐसा करता भी क्या हैं? क्या सिखाता हैं? क्या अनुभव देता हैं? या वह ज्ञान प्राप्ति हेतु प्रोत्साहित करता हैं? सच तो यह हैं कि गुरु अपने शिष्य को ज्ञान देने के साथ कई अच्छी-अच्छी जीवन उपयोगी बातें सिखाता हैं। शिष्य के चरित्र निर्माण के साथ ही गुरु उसे संस्कारित भी करता हैं। महत्वपूर्ण यह हैं कि गुरु शिष्य को अच्छे-बुरे की पहचान कराने के साथ उनमें भेद करना भी सिखाता हैं और शिष्य की वैचारिक क्षमता वृद्धि हेतु एक प्रमुख घटक होता हैं। हर एक के पास अद्भुत ऐसा छुपा खजाना होता हैं और उन्हें उस के बारे में कुछ पता ही नहीं होता। यहाँ तक कि उसकी अनुभूति भी नहीं होती और कई बार उसके महत्व से भी वह बेखबर होता हैं। लेकिन ठीक गुरु के पास ही उस खजाने की चाभी होती हैं। वह शिष्य को बंद पड़ा खजाना खोलने में मदत करता हैं।एक श्रेष्ठ गुरु किसी प्रकाशपुंज की तरह काम करता हैं और हमेशा ही अपने शिष्य को योग्य मार्ग पर चलने हेतु प्रेरित करता हैं। गुरु शिष्य के लिए एक शक्ति का भी काम करता हैं। उसे प्रेरणा और प्रोत्साहन देता हैं। गुरु अपने शिष्य को सिर्फ बड़े सपने ही नहीं दिखाता बल्कि उन्हें पूर्ण करने का मार्ग भी दिखाता हैं। गुरु की निस्वार्थ ज्ञान देने की सदिच्छा देखकर मन में गुरु के लिए आदर ही उत्पन्न होता हैं, और शिष्य के लिए तो गुरु का स्थान हमेशा श्रेष्ठ ही होता हैं। ईश्वर (ज्ञान) प्राप्ति का मार्ग भी हमें गुरु ही दिखाता हैं, “गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पांय? बलिहारी गुरु आपकी, जिन गोविंद दियो बताय!!” (कबीरदास) कुछ क्षेत्रों में कदम कदम पर गुरु की ज्यादा आवश्यकता महसूस होती हैं। जैसे संगीत, चित्रकारी, मूर्तिकला, हस्तकला, या अन्य कला। जिस कार्य में बुद्धि के साथ हाथ के कौशल (कारीगरी) की आवश्यकता होती हैं उस क्षेत्र में गुरु के मार्गदर्शन के बिना श्रेष्ठता प्राप्त करना कठिन होता हैं। विश्वप्रसिद्ध अजंता गुफाओं का निर्माण निरंतर सात सौ वर्षों तक होता रहा। इस कारीगरी का अनेक पीढ़ियों द्वारा निर्माण और इसे इतना मूर्त रूप मिलना गुरु बिना संभव ही नहीं था।

पुरातन काल में गुरुकुल पद्धति से शिक्षण प्राप्त करने का बहुत महत्व था। बाल्यकाल के बाद बच्चों को आगे ज्ञानप्राप्ति, अनुभव और व्यावहारिकता सिखने के लिए शिष्य को गुरु के पास ही उसके आश्रम में रहकर कठोर अनुशासन के साथ अध्ययन करना पड़ता था। भारतीय गुरुकुल की गुरुशिष्य परम्परा बच्चों के क्रमिक विकास हेतु श्रेष्ठ ऐसी विश्व की एकमात्र पुरानी शिक्षण व्यवस्था हैं। इसकी उपयोगिता, परिणाम, और प्रभाव आज भी वास्तविक रूप में देख सकते हैं। गुरुकुल व्यवस्था के अनेक लाभ हैं। यह व्यवस्था भारतीय परम्पराओं को सहेजती, उपयोगी होकर बच्चों के सर्वांगीण विकास में सहायक सर्वश्रेष्ठ और प्रकारांतर से श्रेष्ठ पीढ़ी के निर्माण में सहायक हैं। गुरुकुल व्यवस्था में गुरु के अपने हर एक शिष्य के साथ भावनात्मक सम्बन्ध होते थे।

गुरु की बुद्धि से और शिष्य की ऊर्जा से निरंतर एक गतिशील और विकासोन्मुख समाज की रचना होती रहती हैं। ‘स्वप्रबंध‘ का विज्ञान आज तक पीढ़ी दर पीढ़ी से अस्तित्व में हैं। महान लोगों के सकारात्मक द्रष्टिकोण के कारण ‘स्वप्रबंध‘ का विज्ञान कायम रह सका हैं। गुरु शिष्य के मन से अँधेरा दूर कर उसमे प्रकाश की ज्योत प्रज्वलित करता हैं। ‘हम कौन हैं ?‘ जग से हमारा क्या संबंध हैं ? हमारा वास्तविक उद्देश्य क्या हैं? वास्तविक रूप में हमारा यश किन बातों में हैं? उस यश प्राप्ति हेतु कौनसा तरीका और कौन सी योजनाओं की आवश्यकता हैं? जीवन में आने वाले ऐसे अनेक महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर तलाश करते समय गुरु तत्परता से हमारी सहायता करते हैं। इससे महत्वपूर्ण यह कि विश्व में जो सर्वश्रेष्ठ हैं ठीक उसीका ज्ञान गुरु हमें देता हैं।

‘गुरु बिन ज्ञान कहाँ से पाऊं ! दीजो ज्ञान हरी गुण गाऊं!!’ (शकील बदायूंनी)
संक्षिप्त में कहे तो गुरु की शक्ति और सामर्थ्य का शिष्य अंदाजा ही नहीं लगा सकता। जैसे ऊर्जा अनंत और अक्षय होती हैं उसी तरह से गुरु की शक्ति होती हैं। एक सच्चे शिष्य को सदैव अपने गुरु के कहें शब्दों को, उसके द्वारा दिए गए उपदेश को, उसके ज्ञान को और गुरु द्वारा बताएं गएँ अनुभव को एक पवित्र मन्त्र की तरह आत्मसात करना चाहियें। प्राचीन समय में एक मुनि ने प्रामाणिक गुरु की महिमा का वर्णन निम्न तरह से किया हैं :-
‘ध्यान मुलमं गुरु मूर्ती, पूजा मुलमं गुरु पदमं !
मंत्र मूलमं गुरु वाक्यमं मोक्ष मूलमं गुरुकृपा !!’
अर्थात हर एक ज्ञान के मूल में गुरु होता हैं, इसलिए सबसे पहले गुरु का स्मरण (ध्यान) करना चाहिएं। पूजा या कठोर तप (साधना) या कष्टसाध्य ज्ञान प्राप्ति, अनुशासनबद्ध अध्ययन (अभ्यास) गुरु के कमल जैसे पादस्पर्श (चरण) से (आशय विनम्रता से हैं) सार्थक होते हैं। इसी तरह मंत्र (ज्ञान) प्राप्त करते समय गुरु के वाक्य (उपदेश) ध्यान में रखना चाहिएं। वास्तविक स्वतंत्रता हमें गुरु द्वारा दिए गए ज्ञान के कारण ही प्राप्त हो सकती हैं और वास्तविक मुक्ति भी गुरु के आशीर्वाद से ही प्राप्त की जा सकती हैं।

गुरु की योग्यता क्या होनी चाहिए? एक बहुत अच्छी कहावत हैं, “पानी पीजिये छान, गुरु कीजिये जान !” जैसे गुरु को अपने शिष्य की परीक्षा लेने का अधिकार होता हैं वैसे ही शिष्य को भी अपने गुरु के बारे में सम्पूर्ण जानकारी होनी चाहिएं। महत्वपूर्ण यह हैं कि गुरु के अध्यापन का तरीका अत्यंत आसान, सरल और आकर्षक होना चाहिएं। पंचतंत्र की कथाएँ इसका उत्तम उदहारण हैं। इससे बढकर यह कि शिष्य के लिए गुरु नि:स्वार्थी होना अत्यंत आवशयक हैं। गुरु को ईश्वर का रूप माना जाता हैं अत: शिष्य को उसी रूप (व्यवहार) का आभास भी होना चाहिएं।

“गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वरा!
गुरु:साक्षात्परब्रह्म: तस्मै श्री गुरवेनम:!!”
आदमी जीवन भर सीखता ही रहता हैं। सिखना-सिखाना कभी भी रुकता नहीं हैं।माँ बच्चें को जन्म देती हैं, परन्तु गुरु उसे पुनर्जन्म देता हैं। किसी के लिए माँ गुरु होती हैं तो किसी के लिए बेटा गुरु होता हैं। वर्तमान पीढ़ी ज्यादा बुद्धिमान होने के कारण और इसमें भी तकनीकी विकास और उसके ज्यादा उपयोग के कारण यह पीढ़ी बहुत तेज गति से आगे बढ़ रही हैं। सच तो यह हैं कि बच्चों को बड़ा करते समय माँ-बाप को भी बच्चों से बहुत कुछ सिखने को मिलता हैं, और निस्वार्थ प्रेम करना बच्चें ही माँ-बाप को सिखाते हैं। छोटे बच्चों की मासूमियत, निडर और नि:स्वार्थ स्वभाव देखकर माँ-बाप को भी बच्चों से स्वार्थविरहित व्यवहार सिखने को मिलता हैं।

वर्तमान समय में शिक्षण संस्थाओं में शिष्यों (विद्यार्थियों) की संख्या बहुत ज्यादा होने के कारण सभी व्यवस्थाएं कम पड़ती हैं और पहले जैसा हर एक शिष्य की ओर व्यक्तिगत रूप से ध्यान देना गुरुओं (शिक्षकों) के लिए संभव नहीं होता इस कारण शिक्षकों का उनके विद्यार्थियों के साथ भावनिक जुड़ाव नहीं हो पाता, इस कारण ज्ञान का आदानप्रदान प्रभावित होता हैं। परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया हैं, परन्तु बदली हुई परिस्थितीयों में आज की शिक्षण पद्धति के कारण गुरु का स्थान भी अलगसा होकर गुरुओं (शिक्षकों) में भी कुछ विचित्र सा बदल हो गया हैं। सबसे बेहूदा बदल यह हैं कि आज के शिक्षक अपने आप को नोकर समझते हैं, तदनुसार उनकी वहीँ मानसिकता विकसित हो गयी हैं। गुरु और शिष्यों के संबंधों को आज नयी परिभाषा से परिभाषित किया गया हैं। आज के गुरु भी अब ‘हाईटेक‘ होकर पूरी तरह व्यायसायिक हो चुके हैं, इस कारण आज शिक्षा, शिक्षक, शिक्षण संस्थाएं, और विद्यार्थियों का अवमूल्यन हो गया हैं। कोचिंग संस्थाओं की भीड़ ने आग में घी का काम किया हैं जिस कारण शिक्षक कुछ ज्यादा ही उदासीन और अलिप्तसे हो गए हैं। कोचिंग संस्थाओं की भीड़ ने परिवार में भावनिक लगाव कम किया हैं और इतना सब होने के बाद भी आज के पालकों का सारा मोह महंगे शिक्षण संस्थाओं की ओर ही होता हैं। जितनी महंगी शिक्षण संस्था उतने स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैं पालक। वर्तमान समय में शिष्य (विद्यार्थी) भी अपने गुरुओं को गंभीरतापूर्वक नहीं लेते। समाज में गुरु और शिष्य को आज अनेक विकृतियों ने जकड़ रखा हैं। आज के शिक्षक समाज में एक विशिष्ट सन्माननीय घटक के रूप में जीवन जीने की बजाय एक दुर्बल और असहाय इंसान के रूप में जीवन यापन कर रहें हैं। सच तो यह हैं कि आज भी गुरु समाज सुधार के लिए एक महत्वपूर्ण घटक हैं और पालकों को उनका महत्व समझना चाहिएं। आज भी गुर-शिष्यों के संबंध महत्वपूर्ण हैं। इन्हें समाज में कमतर आंकना भविष्य के लिए हानिकारक होगा।

एक नयी पीढ़ी को पूर्ण रूप से तैयार करना और उस पीढ़ी को योग्य परिपूर्णता से दक्ष कर उस पीढ़ी को सर्वांगीण विकास की ओर अग्रसर करवाना बहुत कठिन काम हैं। पुरातन गुरुकुल व्यवस्था भले ही दिखाई ना देती हो, परन्तु आज शिक्षा का महत्त्व बहुत बढ़ गया हैं इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। इतना होने के बावजूद भी सरकार की नीतियाँ पोषक ना होकर दुर्लक्षित करने वाली ही होती हैं। शिक्षण संस्थाओं की ओर शासन का द्रष्टिकोण नकारात्मक सा होता हैं, मानों शासन इसे एक अनचाहा बोझ सा समझाता हों। शिक्षकों को सिर्फ सरकारी नोकर समझा जाता हैं और वर्ष भर दूसरी तरह के काम भी दिए जाते हैं जिसका शिक्षा से कोई भी संबंध नहीं होता इस कारण विद्यार्थियों के साथ शिक्षकों के संवाद की स्थिति ही नहीं बन पाती। अध्यापन के अलावा बहुत सारे अन्य काम शिक्षकों को सौपने के कारण सरकार स्वयं शिक्षण संस्थाओं का एवं शिक्षकों का अवमूल्यन करती रहती हैं। एक राष्ट्र के लिए शिक्षा पर किया गया व्यय यह निवेश होता हैं पर हमारे राष्ट्र में शिक्षा के लिए बहुत कम बजट का आबंटन रखा जाता हैं। हमारे यहाँ सभी तरह की सब्सिडी (अनुदान) होती हैं, पर विद्यार्थी, शिक्षक एवं शिक्षण संस्थाएं इनसे वंचित रहती हैं, या बहुत कम प्रमाण में उन्हें सहायता दी जाती हैं। यहीं हमारी नियति हैं, और इसे ही हम गर्व से श्रेष्ठ शिक्षा निति कहते हैं। अब ‘बेटी बचाओं बेटी पढाओं‘ इस नारे से भला कौन अपरिचित होगा, पर यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार अगले तीस वर्षों तक भी भारत में सभी बेटियों को १०० प्रतिशत तक प्राथमिक शिक्षा मुहैय्या कराना संभव नहीं होगा।

विश्व में सिर्फ हमारे ही देश में गुरुकुल जैसी श्रेष्ठ परम्परा की व्यवस्था हैं। भले ही समय बदल गया हो परन्तु गुरु (शिक्षक) की महत्ता को कमतर आंकना सही नहीं होगा। आज देश का युवा अपनी विद्वत्तापूर्ण उपस्थिति अनेक देशो में अपने कार्य से दे रहा हैं। निश्चित ही यह सभी भारतियों के लिए गौरवान्वित होने जैसा हैं, लेकिन इसमें गुरुओं का भी योगदान भुलाया नहीं जा सकता और उन्हें भी आदर और सन्मान की द्रष्टि से देखा जाना चाहिएं। उनका भी गौरव हम महसूस करे।

लेखक परिचय :-  विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.

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