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मेज के उस पार की कुर्सी

अर्चना मंडलोई
इंदौर म.प्र.

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सुनों आज भी मैं खिडकी के पास रखी कुर्सी पर बैठी हूँ। बाहर बगीचे में ओस से भीगा आँवले से लदा पेड हरे काँच की बूँदों सा लग रहा है। इन दिनों गुलाब में भी बहार आई हुई है। सुर्ख लाल गुलाब पर मंडराती रंग-बिरंगी तितलियां मौसम को और भी खुशनुमा बना रही है।
मौसम भी इस बार कुछ ज्यादा ही उतावला है नवम्बर में ही गुलाबी ठंड ने दस्तक दे दी है।
ये गर्म काँफी मुझे अब वो गर्माहट नहीं देती क्योंकि मेज के उस पार खाली कुर्सी और काँफी मग का वो रिक्त स्थान तुम्हारी कमी महसूस करवा रहा है।
मै अपनी बेबसी ठंडी कर काँफी के हर घूँट के साथ पीती जा रही हूँ।
जानते हो ये हवा जो ठंड से भीगी हुई है, ये अब भीगोती नही है। भीगना और गीले होने का अंतर तुम्हारे बिना समझ में आया।
मैं हथेलियों की सरसराहट से उस गर्माहट को महसूस करना चाहती हूँ, जो कभी तुम्हारी हथेलियों ने थाम कर गर्माहट की नमी दी थी। आज भी मेरी लकीरों में वो नमी जींदा है….
हाँ पर….. तुम्हारे बिना हथेलियां अब भी ठंडी है।
हमारे बीच पा लेने या खो देने का रिश्ता कहाँ रहा! इन दोनों के बीच खुद को खोकर पा लेना मेरे लिए दुखद नही बल्कि सुख को पा लेना तो हुआ।
वक्त रिश्ते और जिन्दगी कहाँ ठहरती है….. धीरे-धीरे फिसलते गये हाथ से रिश्ते, गर्माहट और ….
पहली बार मिले थे झिझक के साथ ….. शैक हेण्ड …… वही गर्माहट ……
फिर पसंद ना पसंद की लंबी फेहरिस्त बनती गई।
तुम ठहरे मशीनों से खेलने वाले टेक्निकल …। और मैं रस्किन बाँड की कहानियों से लेकर महादेवी वर्मा की कविताओं की दीवानी।
पर अब पसंद-नापसंद गडमड सी हो गई मैं मशीनों के पुर्जे और खटपट पहचानने लगी और तुम शब्दों के जादूगर …….
मैं अपने मन का सारा कुछ उडेल देती बक-बक करती और तुम ध्यान से सुनते।
तुम्हारी आँखो से झरते अनकहे सवाल मुझे झकझोर देते, तब मेरी सारी शब्दशक्ति खो जाती ।
सुख की पहली सौगात थी वो जब तुमने कहा था …….. क्या हम साथ में काँफी पी सकते है? मेरी सोच उस दायरे नहीं थी……… मुझे कहाँ अधिकार था!
हाँ तुम्हारी जीद ने मेरे होठो से कहलवा ही लिया ।
किश्त दर किश्त सुख के वो क्षण में सहेजती गई।
खिडकी के पार हरे काँच से जडे आँवले पत्तियों विहीन पेड पर अपनी तरह से मुझे मूँह चीढा रहे है। हाथ लंबा कर यादों की उँची फुनगी पर बैठे तुम……. हाँ तुम जिसे मै पकडने का भरसक प्रयास करती हूँ। कभी समंदर के किनारे गीली रेत पर हाथ थामे बैठना, दौडकर लहरो को पकडना, बर्फ के गोलो को तुम्हारे बाजुओं पर उडेल देना, बेमतलब रास्तों पर चलना, हवाओं के साथ बहते थे मन के रागो की स्वर लहरियां ……. अब वही अंतहीन यादे।
ख्वाबों की पीठपर तुम्हारा नाम लिख चुकी थी मै… जानती थी खुशियों की उम्र लंबी नहीं होती। अंजाने भय अक्सर मेरे सिरहाने करवट बदलते रहते।
हाँ तुम हमेशा से परफेक्ट और काँन्फिडेंट रहे तब भी और आज भी।
सुनो मौसम फिर लौट आया है, हाँ लेकिन उन दिनो का मौसम लौटकर नहीं आता। मुझे ही उम्मीद से उन बीते मौसमों को मुड-मुड कर देखते रहना है।
आज भी ओस की बूँदे जमी है। खिडकी के उस पार मुहाने से मै लगातार तक रही हूँ ……. पर वो मुझे भीगों नही पायी। बीते वक्त के मौसम भी कहाँ लौटे है….
पर सुनो… तुम आज भी वैसे ही हो परफेक्ट और काँन्फिडेंट ….।

परिचय : इंदौर निवासी अर्चना मंडलोई शिक्षिका हैं आप एम.ए. हिन्दी साहित्य एवं आप एम.फिल. पी.एच.डी रजीस्टर्ड हैं, आपने विभिन्न विधाओं में लेखन, सामाजिक पत्रिका का संपादन व मालवी नाट्य मंचन किया है, आप अनेक सामाजिक व साहित्यिक संस्थाओं में सदस्य हैं व सामाजिक गतिविधियों मे संलग्न।


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