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ओ समाज के गुरु शिक्षक

ओमप्रकाश सिंह
चंपारण (बिहार)

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ओ समाज के गुरु शिक्षक तू अपनी ओर देख।
तू नव पौधों के वन उपवन का माली है।।

ये गुलशन है, गुलजार, चमन उजियाले हैं।
बगिया है रोशन, चमक दमक हरियाली है।

यह वक्ता प्रोक्ता ये अधिकारी-
ये न्यायमूर्ति, ये जिलाधीश, ये मंडलधीश

ये लोकपाल, ये राज्यपाल, ये डाकपाल-
ये व्ययस्थापक, संपादक- सूचना संयारी-

ये जन के नेता, भाग्यविधाता-ये मार्गदर्शक।
ये जन उन्नति के तुंग शिखर पर चढ़े हुए

उनके अंदर की प्रतिभाएं है विकसित
सिक्के है तेरे टकसालों के गड्ढे हुए।।

पर आज देख आया है कैसा विकट -काल-
छाया है कैसी राक्षसीपन, वहसीपन।

पीड़ा से पीड़ित, मानवता आहे भर्ती।
है ओर छोर तक नग्न भ्रष्टता का है नर्तन।।

मानव का मानो चोर अरे! यह बात गजब है।
नरके प्राणों का मोलतोल अब होता है।

जाने इस दुनिया में कोई भगवान भी है।।
यदि है तो जाने कहां नींद में सोता है?

यह और अर्ध सत्य पूरा असत्य यह अनाचार है
मानव-मानव का प्रेम बिखरता जाता है।

है छाग-भेड ही उपवन का रखवाला जन।
है कुशल कहां? यह बाग उजड़ता जाता है।

वो शिक्षक गुरुजन अब जागो-जागो।
है विषम काल तुम शीघ्र भी अभियान करो।।

है तेरे हाथों में जो भी ईद पत्थर।
तुम रचो-गढो मानवता का निर्माण करो।।

हे प्रथम पाठ दाता व्याख्याता शिक्षकगण
तेरा स्वागत है आज ह्रदय से अभिनंदन।।

लो प्रेम का पुष्प हार अक्षत-चंदन।
तेरा-अभिवादन है आज है तेरा वंदन।।

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लेखक परिचय :-  नाम – ओमप्रकाश सिंह (शिक्षक मध्य विद्यालय रूपहारा)
ग्राम – गंगापीपर
जिला –पूर्वी चंपारण (बिहार)


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