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अधूरा पात्र

शरद सिंह “शरद”
लखनऊ

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निशा बालकनी मे खडी़ दूर क्षितिज मे आँखे गडा़ये बिचार मग्न थी।
उसके हाथ मे एक कागज का टुकड़ा था, शायद किसी का पत्र। उसमे लिखे शब्द उसके मन मस्तिष्क को झकझोर रहे थे, वह जबाब देना चाह रही थी,पर समझ नही पा रही थी कैसे?
क्या कहूँ? क्या सम्बोधन करूँ? प्रिय? नही प्रिय होता तो जीवन को अप्रिय न बना देता। मित्र? नही, मित्र तो सुख दुख का साथी होता है, चोट लगने पर वह तिलमिला जाता है स्वयं चोट नही देता। तो क्या सम्बोधन करूँ? अनजान? पर अनजान भी तो नही है। फिर? फिर क्या, बगैर किसी सम्बोधन के ही अपने प्रश्न पूछती हूँ। जिनका सटीक उत्तर उसे देना होगा। पर क्या दे सकेगा वह मेरे प्रश्नों का उत्तर? उसके पास होगा मेरे अनुत्तरित प्रश्नों का हल? शायद, शायद वह जबाब दे, शायद मिल जाये मुझे मेरे जबाब।
दे सकोगे मेरे प्रश्नों का उत्तर? लौटा सकोगे वह पल, वह सुहानी शाम, वह गुनगुनी धूप, वह अरमानो के अनगिनत जाल की भाँति एक दूजे मे उलझते वह पल, वह छत पर बैठ दूर तक निहारती वह स्वप्निल नजर, वह फूलों की खुशनुमा महक सा महकता तन वदन, कड़कती धूप भरी दोपहर की मीठी चुभन, बरसते सावन मे भीगती वह मदमस्ती, आँखों मे तैरते वह सुहाने सपने, वह मीठा अहसास, वह लरजते होंठो से कही अनकही कहानी, नही ना?
फिर कैसे कहते हो नयी जिन्दगी शुरू करने की बात।
मैने गलती की हर कदम पर ठोकर खाते रहने की प्रतिकार न करने की, पर कब तक? की गयी या न की गयी हर गलती की सजा मुझे ही क्यों?
“किसी को सजा़ किसी को रजा़,
यह तेरा कैसा इन्साफ है खुदा।”
तुमने तो पल पल सुलगती तड़पती जिन्दगी की कहानी लिख डाली। जिसका पात्र बनकर रह गयी मै।
गूँगा निर्बल असहाय पात्र, अरमानो के छोटे छोटे टुकड़ो को समेटता, आँखों से सावन की झडी़ लगाता पात्र, होठों पर चिपकी दर्द भरी दास्तान को बयां करता पात्र।
अनजान अधूरी कहानी का अधूरा पात्र। बस एक अधूरा पात्र।

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लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने “मेरी स्मृतियां” नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है।


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