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मौत या जिन्दगी

शरद सिंह “शरद”
लखनऊ

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ऐ जिन्दगी ठहर जरा,
तुझसे कुछ बात करना है।
तुझे तेरी असलियत को,
विस्तार से समझाना है।
क्या मुकाबला है तेरा,
और इस हॅसी मौत का,
इससे तुझे रूबरू कराना है।
कभी गर आया खुशी का,
अबसर तेरे रहते तो
अन्तर मे समाया रहा
गम का अजब डर,
डर रहता है तेरे रहते,
न जाने कब पलट जाये पल,
तू तो बढ़ जाती है साथ वक्त के,
और हम रह जाते बिखरे से।
किसी से मिलन तो किसी से जुदाई,
ऊँचे ऊँचे महलो को कर दे धराशाई।
पकड़ा बड़े जतन से किसी
मन्जिल को जब जब,
आगे है मन्जिल कह,
सपने दिखाये तब तब।
कभी किसी मन्जिल पर तू न रुकी है,
बढती सदा आगे ही आगे रही है।
आज गर लबों की मुस्कान बनी तो,
कल नयनो से अश्रुधारा बही है।
दिन के उजाले मे मिले,
कुछ पल सुकूँ के तो,
रात को नीद की दुश्मन बनी है।
तुझसे इतर देख इस मौत को तू,
यह देती है बस नीद सुकूँ की।
जिन्दगी से हारे थके हैं जो,
मौत नीद देती उनको सुकूँ की।
अब तू बता ऐ जिन्दगी तू महान है
जो चैन से सोने भी न दे या
यह मौत, जो चैन से सुला दे।

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लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने “मेरी स्मृतियां” नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है।


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