आशीष तिवारी “निर्मल”
रीवा मध्यप्रदेश
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चिंता सदा से चिता के समान रही है। ऐसा हमारे बुजुर्गों ने कहा, भगवान ही जाने बुजुर्गों ने कहा भी है या लोगों ने खुद ही सब कुछ कह सुन कर बुजुर्गों का नाम लगाकर पल्ला झाड़ लिया।
समाज और देश को आगे बढ़ाने के लिए या मुख्य धारा में लाने के लिए चिंता नहीं चिंतन करने की जरूरत है। वैसे आज के इस दौर में चिंतक ढूढ़े नहीं मिल रहे हैं । जिसे देखो वही चिंताग्रस्त है। जब हम छोटे थे तब सुबह-सुबह सड़क के किनारे, और रेल्वे ट्रैक के आसपास लोटा सामने रखकर गूढ़ चिंतन में खोए लोग दिख जाते थे। उनकी भावभंगिमा देखकर लगता था कि राष्ट्र हित में कोई बड़ा चिंतन कर रहे हैं।लेकिन समय-समय पर सरकार ने चिंतकों के प्रति चिंतन करने के पश्चात घर-घर में आत्म चिंतन केंद्र खुलवा दिए। सरकार के इस कठोर निर्णय से ऐसे चिंतक डायनासोर की भांति विलुप्त होने की कगार पर जा चुके हैं जो सड़कों के किनारे या रेलवे ट्रैक के आसपास चिंतन में लीन दिखाई देते जो अन्य चिंतकों के लिए प्रेरणा के श्रोत होते थे। मनुष्य नाम के प्राणी अब ज्यादातर सार्वजनिक स्थलों में चिंतन करते नहीं पाए जा रहे हैं। चूंकि आत्म चिंतन केंद्र सार्वजनिक स्थानो की तरह खुला नहीं होता है इसलिए वहाँ बैठे हुए व्यक्ति का मन चिंतन में कम तथा चिंता में ज्यादा लगता है। कुछ लोगों की दूसरों की चिंता करने की जन्मजात प्रवृत्ति होती है। वे सामने वाली की चिंता करने के लिए इस कदर लालयित रहते हैं कि जब तक वे किसी की चिंता नहीं कर लेते, तब तक बेचैन रहते हैं। यदि चिंता करने से लाभ की संभावना हो तो चिंता करने के लिए बेचैनी और बढ़ जाती है। लोगों की चिंताओं का दायरा अलग-अलग है जैसे दुकानदार को खराब राशन बाजार में सल्टा देने की चिंता, इंजीनियर को ठेकेदार से, जज को मुजरिम से, अफसर को बाबू से, मंत्री को अफसर से मिलने वाली रिश्वत समय से घर पहुंचने की घोर चिंता, प्रेमिका को एक साथ बहुतेरे आशिकों को हेंडल करने की चिंता, विवाहित पुरुष को पड़ोसन की चिंता, और पंडों पुजारियों ने तो भगवान की चिंता का ठेका ही ले लिया है। लेकिन हमारी वास्तविक चिंता करने वाले हमारे पड़ोसी होते हैं, बाईचांस हमने अगर एक कार भी खरीद ली तो सबसे ज्यादा चिंता पड़ोसी को ही होती है कि आखिर इसने कार खरीदी कैसे? पड़ोसी का हमारी चिंता के प्रति लगन देखकर हमें और ऐसे दुस्साहस भरे कदम उठाने की प्रेरणा मिलती है। पाठकों से अनुरोध है कि आप भी प्रेरणा लीजिए और निंदक नियरे राखिये की बजाय चिंतक नियरे राखिये पर अमल करना शुरू कर दीजिए।
लेखक परिचय :- कवि आशीष तिवारी निर्मल का जन्म मध्य प्रदेश के रीवा जिले के लालगांव कस्बे में सितंबर १९९० में हुआ। बचपन से ही ठहाके लगवा देने की सरल शैली व हिंदी और लोकभाषा बघेली पर लेखन करने की प्रबल इच्छाशक्ति ने आपको अल्प समय में ही कवि सम्मेलन मंच, आकाशवाणी, पत्र-पत्रिका व दूरदर्शन तक पहुँचा दीया। कई साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित युवा कवि आशीष तिवारी निर्मल वर्तमान समय में कवि सम्मेलन मंचों व लेखन में बेहद सक्रिय हैं, अपनी हास्य एवं व्यंग्य लेखन की वजह से लोकप्रिय हुए युवा कवि आशीष तिवारी निर्मल की रचनाओं में समाजिक विसंगतियों के साथ ही मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण, भारतीय ग्राम्य जीवन की झलक भी स्पष्ट झलकती है, इनकी रचनाओं का प्रकाशन एवं प्रसारण विविध पत्र-पत्रिकाओं एवं दूरदर्शन- आकाशवाणी के विविध केंद्रों से निरंतर हो रहा है। वर्तमान समय पर हिंदी और बघेली के प्रचार-प्रसार में जुटे हुए हैं।
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