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अंतरतम का अग्निपथ

भारमल गर्ग “विलक्षण”
जालोर (राजस्थान)
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वाराणसी के घाटों पर प्रातःकालीन सूर्य की प्रथम किरण जब गंगा के जल को स्पर्श करती, तो ऐसा प्रतीत होता मानो भगवान शंकर अपनी जटाओं से अमृत की धारा प्रवाहित कर रहे हों। किन्तु उस विशेष प्रभात में, पंडित विश्वनाथ की दृष्टि गंगा के तरंगों में नहीं, अपितु अपने हृदय के शून्य में अटकी थी। वेद-वेदांग के मर्मज्ञ, शास्त्रार्थ में अजेय इस पंडित के वक्षस्थल में अब केवल एक टूटे हुए सितार की ध्वनि गूँज रही थी। मंदिर के विराट शिखर के सम्मुख खड़े वे अपनी छाया से प्रश्न कर रहे थे- “क्या यह चोटी में बँधा रुद्राक्ष माला का टूटना उसी दिन का संकेत था, जब महादेवी ने प्रथम बार इस ओर दृष्टिपात किया था?”

महादेवी… नाम ही उनके अस्तित्व का सार था। काशी की वह नृत्यांगना जिसके चरणों की थाप पर स्वयं नटराज प्रसन्न होकर तांडव करने लगते। जिस दिन वह संकीर्ण गलियों से गुज़रीं, उनके पायल की मधुर झंकार ने पंडित के वेदोच्चारण को मध्याकाश में लटका दिया। पलक झपकते ही, महादेवी की चुनरी का कोना हवा में लहराया और पंडित के कंठ से निकलता “ॐ नमः शिवाय” का मंत्र उसी लहर में विलीन हो गया। उस क्षण दो नदियों का संगम हुआ- एक की धारा में वेदों का ज्ञान, दूसरी की लहरों में रस की सघनता। दोनों अपने उद्गम को विस्मृत कर मिलन के सागर में डूब गए।

किन्तु काशी का प्रेम सरलता से फलित नहीं होता। यहाँ तो प्रत्येक प्रेमी को विरह की अग्निपरीक्षा में उतरना पड़ता है। जिस निशीथिनी में महादेवी ने अपनी अँगूठी पंडित की हथेली पर रखी, उसी क्षण विश्वनाथ मंदिर के घंटे स्वतः ही विषादपूर्ण स्वर में गूँज उठे। अँगूठी के नीलम में समाया चंद्रमा काँप गया, मानो उसने श्वेत वस्त्र ओढ़ लिए हों। पंडित ने महादेवी की करकमल पर एक श्लोक अंकित किया- “यदि काल के कपटजाल में बिछुड़ जाऊँ, तो इस नीलम में मेरे प्राणों का स्पंदन ढूँढ़ लेना।”

विरह की वे दीर्घ रातें… जब महादेवी मंदिर के उस स्तंभ से आलिंगनबद्ध हो जातीं, जहाँ पंडित का साया अब भी अंकित था। वह अँगूठी को प्रतिदिन छत पर रख देतीं, जहाँ चंद्रिका उसे स्नान कराती। किन्तु एक अमावस्या की घोर निशा में, चंद्रमा ने नीलम को अपने हृदय में समाहित कर लिया। अँगूठी शून्य हो गई। ठीक उसी क्षण, दक्षिण के मठ में बैठे पंडित ने देखा- शास्त्रों की पुरातन पांडुलिपि पर लिखे अक्षरों के स्थान पर महादेवी के अश्रु बह रहे थे। उन्होंने मषीपात्र को पृथ्वी पर पटक दिया- मानो अपने ही हृदय का मुहर भंग कर दिया हो।

महादेवी अब प्रतिदिन घाट की शीतल सीढ़ियों पर बैठकर नौकाओं को ताकतीं। कभी कोई नाव केसर के पत्रों से भरी आती, तो वह उन्हें छाती से लगा लेतीं। पंडित ने लिखा था- “तेरे नयनों के आर्द्रता ही मेरे श्लोकों की मषी है।” परन्तु नाविक कहते, “ये पत्र तो मंदिर के प्रसादी पुष्पों के साथ आए हैं।” महादेवी तब हँस पड़तीं- एक ऐसी हँसी जिसमें गंगा की समस्त लहरों का शोक दफ़न था।

एक पौर्णिमा की ज्योत्स्ना में, जब महादेवी ने नृत्य आरंभ किया, उनके घुंघरुओं से रक्त की बूँदें टपकने लगीं। चरणचिह्न मार्ग में लाल गुलाब के रूप में खिल उठे। भक्तगण चिल्लाए- “यह तो भगवती रुद्राणी का प्रलयनृत्य है!” किन्तु वह तांडव नहीं, अपितु एक स्त्री का मूक विलाप था, जिसका शरीर काशी में था किन्तु आत्मा किसी अज्ञात नदी के तट पर पंडित की खोज में भटक रही थी। उसी क्षण, दक्षिण के मठ में पंडित ने भित्ति पर रक्त से लिखा- “मैं तुम्हारे नृत्य की परछाई हूँ। जब तक तुम थककर न गिरोगी, मैं विश्राम नहीं लूँगा।”

अनेक वर्षों के पश्चात, जब पंडित काशी लौटे, महादेवी का शरीर गंगा की रेत में विलीन हो चुका था। किन्तु उन्हें ज्ञात हुआ- संध्याकालीन आरती के समय मंदिर की घंटियाँ स्वयंमेव निनादित हो उठती हैं। पंडित ने उस स्तंभ को चूमा जहाँ महादेवी बैठा करती थीं। तभी एक अद्भुत घटना घटी- शिला से महादेवी का स्वर उद्घोषित हुआ- “तुम्हारी प्रतीक्षा में मैंने इस पत्थर को अपने हृदय की ज्वाला से जला डाला।”

प्रातःकाल जब सूर्योदय हुआ, लोगों ने देखा- मंदिर के शिखर पर दो हंसों के रूप में पंडित और महादेवी आकाश में विचरण कर रहे थे। एक की चोंच में ऋग्वेद का पृष्ठ, दूसरे के पंखों पर कथक की ताल। गंगा ने उनके मिलन के गीत गाए, और विश्वनाथ का दीपक… वह दो आत्माओं का संगमस्थल बन गया, जहाँ प्रेम ने मृत्यु को पराजित कर अमरत्व का पाठ पढ़ाया।

परिचय :-  भारमल गर्ग “विलक्षण”
निवासी :
सांचौर जालोर (राजस्थान)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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