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झूठ बोले कौआ काटे

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
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वो झूठ बहुत बोलते हैं… नहीं, मेरा मतलब है, झूठ ही बोलते हैं। अरे, कभी-कभार मुँह से सच निकल भी जाए तो बड़ा पछताते हैं। क्या करें, उनकी आदत जो है। झूठ उनके रग-रग में बसा हुआ है। ऐसा नहीं कि झूठ वो किसी विशेष उद्देश्य से बोलते हों। वो बिना किसी का अहित किए -और कभी-कभी तो खुद का अहित कर-किसी भी परिस्थिति में झूठ बोल सकते हैं। और अगर उनके झूठ से किसी का नुकसान हो भी जाए, तो बड़ा पछताते हैं, माफ़ी माँगते हैं अपने व्यवहार पर। लेकिन उनकी मासूमियत भरी शक्ल देखकर हर कोई पिघल जाता है। उन्हें झूठ के लिए माफ़ी मिल जाती है। फिर तो उनके झूठ की ट्रेन रिश्तों की पटरी पर सरपट दौड़ने लगती है। निरुद्देश्य, निर्बाध और निष्कलुष भाव से धारा-प्रवाह झूठ बोलते हुए उनकी भाव-भंगिमा निहायत ही शरीफ़, मासूम बालक की तरह होती है… जो बरबस किसी को भी लपेटे में ले सकती है। पल में तोला, पल में माशा- उनकी भाव-भंगिमाएं भी झूठ के भंवर में ऐसे विचरण करती हैं कि… आप के सामने होते हुए भी, आपको उनकी बात पर यक़ीन करना ही होगा अगर वो कह रहे हों कि इस समय वे किसी विदेशी ‘आइलैंड’ का भ्रमण कर रहे हैं। आप कहेंगे- “गुप्ता जी, मुझे तो आप सामने ही दिख रहे हैं।” तो वे अपने झूठ को साबित करने के लिए आपसे आँखें चेक करने को कह सकते हैं… या फिर कह सकते हैं कि “आप देखी-देखाई बातों पर विश्वास करते हैं, आपको सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करना चाहिए।”
जो उनके झूठ को सच मान लेते हैं, उनके साथ उनका आत्मीय रिश्ता हो जाता है। उनका कहना है- “जौहरी ही हीरे की परख कर सकता है।” बस, ऐसे जौहरियों को वो अपने पास रखते हैं, ताकि उनके झूठ का जौहर बुलंद रहे। झूठ केवल अपने बारे में नहीं – दूसरों के बारे में भी काला झूठ बोलने से वे कतई नहीं हिचकिचाते। काले झूठ को दूसरे काले झूठ से घिस-घिस कर ही सफ़ेद किया जा सकता है। इसी सोच के चलते वो एक झूठ के लिए दस क्या, हज़ार झूठ बोल सकते हैं। अगर दिल्ली जा रहे हों, तो कहेंगे- “बॉम्बे जा रहा हूँ।” और जब कोई कहे, “गुप्ता साहब, बॉम्बे वाली ट्रेन तो दूसरे प्लेटफ़ॉर्म पर आएगी, आप इधर क्यों खड़े हैं?” तो थोड़ी देर सोचेंगे और फिर कहेंगे- “अच्छा! चलो, कोई बात नहीं, दिल्ली ही चल जाते हैं। अब कौन प्लेटफ़ॉर्म बदलेगा… बॉम्बे चले जाते हैं?”
मैं उनके चेहरे को देखता हूँ- कोई निशान नहीं कि कौआ ने कहीं काटा हो। ये क्या राज़ है? मैंने पूछा, “आप कौवों को क्या खिलाते हैं?” बोले, “नहीं, मेरे पास कौए आते ही नहीं। चीलें आती हैं, उन्हें खिलाता हूँ। उन्होंने सारे कौए भगा दिए।” एक बार वो लंगड़ा कर चल रहे थे। मैंने पूछा, “क्या हुआ?” बोले, “बीवी ने पूछा था, ‘कैसी लग रही हूँ?’ मैं जाने किस ख्याल में खोया हुआ था, मुँह से सच निकल गया। बीवी ने ऐसा हाल कर दिया कि बस!” उनके जवाब से साफ़ था कि अब वो झूठ की बैसाखी कभी नहीं छोड़ने वाले। वैसे, फ़्रायड का कहना सही है कि रिश्ते, नाते, दोस्ती- सब झूठ की बुनियाद पर खड़े हैं। हम सभी झूठ का सहारा लेते हैं। दुनिया में सबसे ज़्यादा बोला जाने वाला झूठ- “मैं ठीक हूँ…” – और सुनने वाला पलट कर पूछने की हिम्मत नहीं करता कि एक बार कंधे पर हाथ रख कर कह दे- “मुझे तो लग नहीं रहा कि तुम ठीक हो…।”

झूठ बोलने के लिए सोचना पड़ता है, कहानियाँ गढ़नी पड़ती हैं। सच बेलगाम है… एक बार छूट जाए तो दौड़ने लगता है बेपरवाह की तरह…! झूठ की लगाम से कसा जा रहा है उसे। बाज़ार सजा है झूठ पर, कारोबार की रौनक झूठ से… रिश्तों की खनखनाहट झूठ से…! जहाँ सच दो-चार क़दम चलता है, वहीं झूठ उड़कर मीलों का रास्ता तय कर लेता है…! पर गुप्ता जी जैसे लोग- जिन्हें यह काबिलियत जन्मजात मिली है- उनके वारे-न्यारे हैं। मुझे लगता है, उनकी यह काबिलियत उन्हें एक दिन देश के सर्वोच्च पद तक पहुँचा देगी। आखिर न्यूनतम अर्हता भी कोई चीज़ होती है न… हर कोई पॉलिटिक्स में कैसे घुस सकता है भला? कई बार उनके बोले गए झूठ को बरक़रार रखने के लिए उन्हें कई पापड़ बेलने पड़ते हैं। आप क्या जानें- झूठ बोलने वाला व्यक्ति सबसे ज़्यादा कर्मठ होता है। उसे एक झूठ को छुपाने के लिए दस जुगाड़ लगाने पड़ते हैं। एक बार मैंने गुप्ता जी से कहा कि “शाम को एक कार्यक्रम है, उसमें चलना है।” बाय डिफ़ॉल्ट उनके मुँह से निकला- “शाम को नहीं, शाम को तो फलाँ कंपनी की कॉन्फ़्रेंस है, वहाँ जाना है, इसलिए नहीं हो पाएगा।”
शाम को उनके घर पहुँचा, तो बाहर से संदेश मिला कि गुप्ता जी बीमार पड़ गए हैं। लो, बताओ! एक झूठ ने उन्हें पार्टी से वंचित रखकर बीमार होने पर मजबूर कर दिया। मिलने की इच्छा ज़ाहिर की, तो दरवाज़े से ही टरका दिया गया- “अब आराम कर रहे हैं।” मैं चुपचाप वापस आ गया। चलो, चलते-चलते काका हाथरसी की ये पंक्तियाँ गुनगुनाते जाइए-
झूठ बराबर तप नहीं, साँच बराबर पाप
जाके हिरदे साँच है, बैठा-बैठा टाप
बैठा-बैठा टाप, देख लो लाला झूठा
“सत्यमेव जयते” को दिखला रहा अँगूठा
कह ‘काका’ कवि, इसके सिवा उपाय न दूजा
जैसा पाओ पात्र, करो वैसी ही पूजा

परिचय :-  डॉ. मुकेश ‘असीमित’
निवासी : गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
व्यवसाय : अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि : कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशन : शीघ्र ही प्रकाशित  पुस्तक “नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक” (किताबगंज प्रकाशन से), काव्य कुम्भ (साझा संकलन) नीलम पब्लिकेशन, काव्य ग्रन्थ भाग प्रथम (साझा संकलन ) लायंस पब्लिकेशन।
प्रकाशनाधीन : व्यंग्य चालीसा (साझा संकलन )  किताबगंज   प्रकाशन,  गिरने में क्या हर्ज है -(५१ व्यंग्य रचनाओं का संग्रह) भावना प्रकाशन। देश विदेश के जाने माने दैनिकी, साप्ताहिक पत्र और साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेख प्रकाशित 
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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