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प्रतिशोध

सुधा गोयल
बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश)
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“तुमने कुछ सुना अम्बालिका”- हर्ष मिश्रित उत्साह के आवेग से अम्बिका का स्वर कांप रहा था। आज अम्बिका अपनी किसी दासी का सहारा बिना लिए ही धीरे-धीरे चलती हुई चुपचाप अम्बालिका के प्रकोष्ठ में आ गयी। सुखद आश्चर्य हुआ अम्बालिका को। जरुर कोई खास बात है तभी अम्बिका दौड़ी चली आई है। इस वृद्धावस्था में भी यौवन सा उत्साह भरा हुआ है। जैसे कोई चिरसंचित अभिलाषा पूरी हो गई है।
‌”आओ दीदी बैठो। ऐसा क्या सुन लिया आपने कि खुशी समाई नहीं पड़ रही। मुझे ही बुला लिया होता। “अम्बिका को पीठिका पर आदर से बैठाते हुए उसने एक नजर अपने कक्ष पर डाली। फिर स्वंय ही द्वार की अर्गलाएं चढ़ा दीं।
“इन्हें यों ही रहने दें अम्बालिका। आज हमारी बात किसी को सुनने की फुर्सत नहीं है। सब शोक मना रहे हैं।”
” हां,आज युद्ध का दसवां दिन है। यहां तो रोज ही शोक मनाये जाते हैं। इस राजमहल में जबसे आईं हैं शोक ही तो मना रही हैं। पहले अपने अपहरण का मनाया, फिर पतियों की मृत्यु का, सास सत्यवती के आदेश का और फिर उस आदेश से पैदा हुए उन विकलांग लुंज-पुंज मासपिंडों का जिनके कारण आज कुरुवंश की यह दशा हो रही है “- उदास हो उठी अम्बिका।
“कुरुवंश है कहां अम्बिका? वह तो हमारे पतियों की मृत्यु के बाद समाप्त हो गया। अब तो यह वंश धीवरकन्या सत्यवती का है। “उत्तेजित हो उठी अम्बालिका।
“क्या कह रही हो दीदी? अपनी क्रोधाग्नि में क्यों समिधा देती रहती हो? क्या यह नहीं जानतीं कि दीवारों के भी कान होते हैं। “अम्बिका ने अम्बालिका के कंधे पर हाथ रखकर आश्वस्त करना चाहा।
“इसी डर से कभी कुछ नहीं कहा अम्बिका। चुपचाप अपने जीवन का एकांत इस राजमहल में रहकर भोगा है। हमसे अच्छी तो ये दासियां हैं जो मन खोलकर हंस बोल लेती हैं। हम दोनों बहनें तो ये भी नहीं कर सकतीं। कितना समय एक दूसरे की शक्लें बिना देखे निकल जाता है।”
“ठीक कहती हो दीदी। हमारे पुत्रों ही ने हमें अपने अपने प्रकोष्ठों में बंद कर दिया है। हमारी सीमा रेखाएं खींच दी हैं।”
“….और इस सबकी जिम्मेदार हैं राजमाता सत्यवती,हमारी सास मां….” क्रोध से अम्बालिका के नथुने फड़कने लगे।
“मैं तो भूल ही गयी दीदी, आप कुछ अच्छी खबर देने आईं थीं। आपके चेहरे पर उत्साह था और मैं अतीत के चिथड़े ओढ़ने बिछाने लगी। अपने दुःख में आपकी बात ही भूल गयी।”
“अम्बिका, अतीत और वर्तमान कभी अलग हुए हैं। वर्तमान में रहकर हम अतीत का शोक मनाया करती हैं। प्राणों को जलाया करती हैं।क्या एक पल को भी वह सब भूल पाई। और इसके लिए कौन जिम्मेदार है तू भूल गयी?”
“कैसे भूल सकती हूं दीदी? गांगेय पुत्र भीष्म तो कांटे के समान गढ़ें हैं। जब भी उन्हें देखती हूं फुफकारने लगती हूं।”
“अब गांगेय पुत्र भीष्म को देखकर फुफकारना नहीं पड़ेगा अम्बिका। वह नराधम आज अपने प्रिय पौत्र द्वारा शर शैय्या पर सुला दिया गया है। पुत्रवधू गांधारी, तात विदुर सभी उनके अंतिम दर्शनों के लिए जाएंगे। तुम भी चलोगी?” पूछा अम्बालिका ने।
“अवश्य चलूंगी दीदी। आप भी चलोगी? उन्हें इस अवस्था में देखकर मुझे बड़ी शांति मिलेगी। इसी दिन के लिए तो प्राण धारण किए थी। लेकिन ये चमत्कार कैसे हुआ दीदी? भीष्म तो सहज मरने वाले नहीं थे। उन जैसा वीर योद्धा इस वंश में शायद ही कोई हो।”
“तू ठीक होती है अम्बिका। उनके मृत्यु शैय्या पर जाने से सारी कौरव सेना में हाहाकार मच गया है। कुरुवंश का आखिरी चिराग बुझ रहा है। इसी का तो शोक मनाया जा रहा है और मेरा मन उत्सव मनाने का हो रहा है। तुझे मालूम है यह चमत्कार अम्बा ने किया है। हमारी लाड़ली अनुजा अम्बा ने। मुझे उस पर अभिमान है। हम दोनों तो कायर की तरह बस इसके नाश की कामना मन ही मन करती रहीं, लेकिन अम्बा ने बदला ले लिया।”
“सच दीदी, अम्बा महान है। तुझे हम दोनो का प्रणाम अम्बा। तूने प्रतिशोध लेकर हमें दाहक ज्वाला से मुक्ति दिलाई है।”
“तुम बहुत कुछ जानती हो दीदी। मुझे सब विस्तार से बताओ। वह छुईमुई अम्बा इतनी बहादुर कैसे हो गयी? मैं तो यहां एकाकी प्रकोष्ठ में पड़ी अपने महत्वाकांक्षी पर मूर्ख पुत्र धृतराष्ट्र की मुर्खताओं पर शोक मनाया करती हूं, और उस घड़ी को कोसा करती हूं कि राजमाता सत्यवती की आज्ञा क्यों मान ली? क्यों उस कुरुप विभत्स कृष्ण द्वैपायन को अपने कक्ष में आने दिया? मां पुत्र ने मिलकर हमसे फिर षड्यंत्र रचा।पता नहीं भीष्म कृष्ण द्वैपायन को कहां से ढ़ूढ़ लाए? मैंने तो भय से आंखें ही मूंद लीं थीं और दूसरी बार अपनी दासी मर्यादा को भेज दिया था।”
“उस घड़ी की याद मत दिला अम्बिका। मैं आज भी कांप उठती हूं। उसे देखकर भय से पीली पड़ गई थी। वह देखने में जितना कुरुप उसका स्पर्श उतना ही विभत्स। पूरे समय पत्ते सी कांपती रही थी।” और उसके फलस्वरुप नपुंसक व रोगी पांडु तुम्हारी गोद में आया। कैसी हतभागिनी है दोनों बहिनें। पूरी जिंदगी मानसिक रोगी पुत्रों को ढोती रहीं। रुग्ण पुत्रों के पुत्र भी रोगी हुए। देख रही हो उस सबका परिणाम। राजमाता सत्यवती की महत्वाकांक्षाओं का वृक्ष कैसा फल रहा है….. खिलखिला उठी अम्बिका।
“तू जरुर पागल हो जाएगी अम्बिका। अभी अट्टहास लगाने का वक्त नहीं आया है। धीरज रख।”
“फिर कब आएगा दीदी?”
“संध्या समय रणभूमि में भीष्म को शरशैया पर लेटे हुए देखकर.”
“तुम हंस सकोगी दीदी?”
“पता नहीं। शायद रोते रोते हंसना भूल गयी हूं। यह साहस तो अम्बा ही कर सकती है।”
“हां दीदी अब बताओ कि अम्बा ने भीष्म को कैसे मारा? क्या रणभूमि में स्त्रियां भी युद्ध कर रही हैं? वहां तक कैसे पहुंची अम्बा? मेरा दिल धड़क रहा है दीदी। जल्दी सब कुछ बताओ”- अम्बालिका के दोनों हाथ पकड़ लिया अम्बिका ने।
“बहुत उतावली हो रही है तो सुन। तुझे याद है अपना स्वंयवर। हम तीनों बहनें श्रंगार किए, जयमाल हाथ में लिए हुए गवाक्ष से राजभवन में झांक रही थीं और आपस में हंस रहीं थीं। कितने ही वीर शिरोमणि राजकुमार और राजा हमारी आकांक्षा मन में लिए बैठे थे, लेकिन अम्बा तो पहले ही शाल्व नरेश को दिल दिए बैठी थी। उसने स्पष्ट कहा था कि मेरी वरमाला तो शाल्व नरेश के गले में पड़ेगी।
वह छोटी होकर भी निर्णय ले चुकी थी और हम दोनों बारी-बारी से सभी राजाओं और राजपुत्रों पर दृष्टिपात करतीं, फिर आंखों ही आंखों में एक दूसरी से पूछती कि तुझे कौन पसंद आया।
तभी पिता महाराज ने स्वंयवर की घोषणा की तथा बड़े भैया एक एक राजा का परिचय देने लगे। उसी समय यह तीनों को स्वंयवर स्थल में ले जाने के लिए परिचारिका आ गई। लज्जावनत मुख किए, हाथ में वरमाला लिए अभी विवाह स्थल पर पहला ही कदम रखा था कि एक अजीब सा शोर उठा। पवन वेग के समान धनुष टंकारते भीष्म विवाह स्थल पर आए और हम तीनों का हरण कर लें गये। सभी कुछ पलों में ही घट गया। समस्त निमंत्रित राजपुरुष स्तम्भित रह गये। किसी को शस्त्र संभालने का अवसर ही नहीं मिला।
पिता भाई और एक से एक वीर योद्धा क्लिव हो गये। पिता के सामने उनकी पुत्रियों का अपहरण हुआ, भाई के सामने बहने गईं और वे शूरवीर जो थोड़ी देर पहले अपनी वीरता के बखान कर रहे थे- किसी में इतना साहस न हुआ कि राजभवन से बाहर निकल कर भीष्म को ललकारें। क्या इतने लोगों का पौरुष एक अकेले भीष्म के आगे नत हो गया था। क्यों सबके हथियारों की धार में जंग लग गया?
अम्बिका यह अपहरण काशी नरेश की बेटियों का नहीं, काशी नरेश के पौरुष का हुआ, सम्मान का हुआ। क्या कोई उद्योग उन्होंने हमारे छुड़ाने का किया?
नहीं किया न। हम अपहरण की हुई बेटियां इसी से कभी अपने पिता को क्षमा नहीं कर पाईं।
पूरे रास्ते हम दोनों भीत हिरणी सी रहीं। लेकिन अम्बा पूरे रास्ते निकल भागने के लिए छटपटाती रही लेकिन नहीं निकल पाई। यहां लाकर मेरा विवाह दंभी कामी चित्रांगद से और तुम्हारा विवाह नपुंसक विचित्रवीर्य से कर दिया गया। हम दोनों नारी होकर एक नारी द्वारा ही ठगी गई थीं। राजमाता सत्यवती अपने पुत्रों को भली प्रकार जानती थी। भीष्म भी जानते थे कि उनके भाई राजपुत्र जरुर हैं लेकिन अपनी मां के कारण किसी भी स्वयंवर से राजकुमारियों को ब्याह कर नहीं ला सकते क्योंकि न वे शूरवीर हैं न विद्वान। वे पौरुषहीन है। अपहरण की गई राजपुत्रियां ही जबरदस्ती राजवधु बनाई जा सकती हैं। और इसी प्रकार छल बल द्वारा हमें राजवधु बनाया गया।
समस्या अंबा को लेकर पैदा हुई भीष्म पिता विवाह कर नहीं सकते थे क्योंकि वह राजमाता सत्यवती को दिए वचन से वद्ध थे। उसके लिए किसी वर के विषय में मंत्रणा हो रही थी कि अंबा ने कहा वह केवल शाल्व नरेश को चाहती है और उसी से विवाह करेगी। अतः उसे शाल्व नरेश के पास पंहुचा दिया जाए।

अंबा को शाल्व नरेश के पास पहुंचा दिया गया लेकिन शाल्व नरेश ने अंबा को अपमानित कर वापस कर दिया और कहा “दूसरों द्वारा जीती गई राजकुमारी से मैं विवाह नहीं कर सकता”।
क्रोध और अपमान से जलते अंबा भीष्म के पास पहुंची और बोली- “हे गांगेय मेरा हरण कर तुमने मुझे नष्ट किया है। अब तुम्हीं मुझसे विवाह करो”।
“दूसरे पुरुषों पर मोहित होने वाली स्त्री से मैं विवाह नहीं कर सकता।” भीष्म के इस उपहास पर क्रोध से फुफकार उठी अम्बा – “नारी का तिरस्कार और अपमान करने वाले गांगेय! मैं ही तेरे विनाश का कारण बनूंगी। तू मेरे हाथों मारा जाएगा।”
अम्बा के क्रोध पर हंस पड़े भीष्म। तिरस्कार पर तिरस्कार।
उस समय अम्बा के नेत्रों से कैसी अग्नि निकल रही थी। जल जाएगी वह या सारे कुरुवंश को जला देगी। नारी अपमान की आह और तिरस्कार की वेदना अम्बा चली गई। कहां गयी कोई नहीं जानता। क्यों गयी सब जानते थे।
किसी ने भी उसे रोकने की कोशिश नहीं की। बहिन का अपमान हम देखतीं रहीं। हम जड़ हो गई, कायर हो गई। हमारा खून नहीं खोला, अग्नि नहीं जली। ये दोनों हाथ अम्बा को रोक न सके, पैर आगे बढ़ न सके।
इस छल में राजमाता बराबर की भागीदार थीं। क्यों वे अपने अधिकार का उपयोग नहीं कर पाईं। क्यों उन्हें अपना पहला जीवन याद नहीं आया? पूर्व प्रेमी पति पाराशर और अपना पुत्र। क्यों हो गयी वे इतनी कठोर? क्यों प्रायश्चित न कर सकीं?
मैं सोचती अम्बिका, सब ढोंग है। राजमाता ने ढ़ोंग किया। मत्स्यगंधा बन ऋषि के साथ छल किया फिर राजमद में सब भुला बैठी। यदि एक प्रेयसी का हृदय उनके पास होता तो अम्बा को उन्मादिनी न बनने देती।
लेकिन राजमाता ने चाल खेली। उनके दोनों पुत्रों के लिए हम ही काफी थीं। वर्ना अम्बा को भी किसी से ब्याह देती। वे पहचान गई थीं कि अम्बा हम जैसी नहीं है। यदि राजमहल में रही तो उनके कुचक्रों को चलने नहीं देगी। उनका आसन डोल जाएगा। उनके पुत्रों के गुणों का बखान राजमहल की दीवारों से बाहर गूंजेगा। वह साक्षात आग है और आग से सभी नहीं खेलते अम्बिका। इसीलिए अम्बा को जाने दिया। सोचा होगा- आग अपने आप जलकर बुझ जाएगी।
अकेली औरत क्या कर सकती है? अपहरण की गई नारी क्या है? यही भूल की राजमाता ने। ये राजमद का अहम् था।
जिसका मायका छूटा, प्रेमी छूटा वह जाए तो जाए कहां। उसने संन्यास लिया। घोर तप किया। अपने मन की अग्नि को शांत करने के लिए तन को गला डाला। उसकी तपस्या सफल हुई।
भगवान शिव प्रसन्न हुए। बोले-“वर मांग पुत्री।”
“अपने हाथों भीष्म का वध कर सकूं इतनी शक्ति दें मुझे”- सोच में पड़ गए प्रभु
“क्या मैंने गलत मांग लिया भगवन्”- नत हुई अम्बा ने चरण पकड़ लिए।
“नहीं पुत्री, मैं तो भविष्य देख रहा था। वध तेरे ही हाथों होगा पर स्त्री रुप में नहीं।”
….”फिर प्रभु?”
“तुझे राजा द्रुपद के यहां पुत्री के रुप में जन्म लेना होगा।”
…”पर भगवन, मेरा नारीत्व अपमानित हुआ है। मैं आग में जल रही हूं। मैं इसी रुप में प्रतिशोध लेना चाहती हूं।”
“पुत्री, तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी।कुरु वंश में भंयकर युद्ध होगा । परिजन एक दूसरे को काटेंगे।तब युद्ध के दसवें दिन तुम पुत्र के रुप में भीष्म का वध करोगी। इतिहास तुम्हें शिखंडी के रुप में जानेगा।”
“तो क्या अम्बा को भीष्म के वध के लिए दूसरा जन्म लेना पड़ा दीदी?”आश्चर्य से पूछा अम्बिका ने।
“हां अम्बिका, उसने अपने अपमान की ज्वाला ही शांत नहीं की बल्कि हम दोनो को भी शांति दी है। अम्बा को एक क्या चार जन्म भी लेने पड़ते तो वह ऐसा अवश्य करती।

तभी प्रतिहारी की आवाज सुन चौंक पड़ी अम्बिका। उठकर द्वार खोला। प्रतिहारी पूछ रही थी- “राजमाता, क्या आप भीष्म पितामह के अन्तिम दर्शनों के लिए चलेंगी। महारानी गांधारी ने पुछवाया है।”
“हां प्रतिहारी, मैं उनके अंतिम दर्शन अवश्य करुंगी। मेरे साथ दीदी अम्बालिका भी जाएंगी। अपनी महारानी से कह देना। एक हारे हुए योद्धा को देखकर आंखें तृप्त करुंगी।”
प्रतिहारी आश्चर्य से सुनती रही। फिर चली गई।
संध्याकाल, समर भूमि में चारों तरफ खून ही खून बह रहा है। गीध चीलें मंडरा रही है। सैनिक कराह रहे हैं। बड़ा ही विभत्स दृश्य है। लोग अपने अपने परिजनों को ढ़ूंढ़ रहे हैं।
रणभूमि में एक तरफ एक तीरों की शय्या पर भीष्म पितामह लेटे हैं। प्राण शेष है। युद्ध का अंतिम दृश्य उन्हें देखना है। समस्त परिजन एक-एक कर उनके पास आ रहे हैं। चरण वंदना कर रहे हैं। सबके हाथ जुड़े हैं। मुख नत हैं। आंखें नम है। इस हाल में भी भीष्म पितामह सबको आशीर्वाद दे रहे हैं।
अम्बिका और अम्बालिका भी है। वे पास खड़ी देख रही है। उनके न हाथ जुड़ते हैं न मुख नत हैं। बल्कि उनकी आंखों में अभी भी घृणा है, उपेक्षा है, उपहास है।
भीष्म पितामह देख लेते हैं। इशारे से बुलाते हैं। “क्षमा करना काशी पुत्रियों, अपने छल की ही सजा पा रहा हूं। जिस परिवार की वृद्धि के लिए तुम्हारा अपहरण किया था उसी का विनाश देखने के लिए जिंदा हूं।”
“हम क्या क्षमा करें तात। हमारे लिए भी आपने जानते हुए शर शैय्या तैयार की थी। पूरी जिंदगी उस पर लेटकर गुजार दी। आप जैसी इच्छित मृत्यु का वरदान हमें नहीं मिला था। वर्ना आपकी यह अधोगू देखने को जिंदा नहीं रहतीं।
मुंह फेर लिया दोनों ने। आहत हुए भीष्म। मृत्यू शय्या पर लेटे व्यक्ति से इतनी घृणा। उनका मन हुआ कि अभी प्राण त्याग दें पर मां गंगा का आदेश स्मरण हो आया और वे मौन व्यथित लेटे रहे।

परिचय :– सुधा गोयल
निवासी : बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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