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मंदिर में जूते चोरी

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
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मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ रहा हूँ, श्रीमती जी आगे-आगे, मैं पीछे-पीछे। श्रीमती जी से नज़रें चुराकर बार-बार उस दिशा में देख ही लेता हूँ, जहाँ अभी-अभी हमने अपने जूते छुपाए हैं। सच पूछो तो जूते चुराए जाने के ख्याल से ही बेचैन हो उठता हूँ। अभी १० दिन पहले ही श्रीमती जी ने दीवाली सेल में बाज़ार से नए जूते खरीदे थे। इस महंगाई के दौर में विचार तो यह था कि एक पैर का जूता इस साल और दूसरे पैर का जूता अगले साल खरीद लेंगे, लेकिन दुकानदार ने इस प्रकार की किश्तों में जूतों की आपूर्ति की कोई व्यवस्था नहीं होने पर खेद जताया।

वैसे हमारी श्रीमती जी बिल्कुल निश्चिंत हैं कि आज हमारे जूते चोरी नहीं हो सकते। उन्होंने ऐसा अचूक इंतज़ाम आज कर रखा है। उन्होंने एक जूता मंदिर के प्रांगन में आराम कर रही आराम कुर्सी के नीचे खिसका दिया और दूसरा जूता मंदिर के पास के पेड़ की जड़ों में छिपा दिया। कसम से, इतना जतन अगर शादी के समय जूते चुराई से बचने के लिए किया होता, तो शायद जेब ढीली नहीं करनी पड़ती।

अब मुझे समझ में आ रहा था कि श्रीमती जी भी मेरे साथ एक ही जूता क्यों खरीदना चाह रही थीं, शायद इसलिए ताकि मंदिर में जूते चोरी होने की समस्या हल हो जाए। श्रीमती जी की समझदारी पर मैं फूले नहीं समा रहा था। लेकिन फिर भी मन में एक आशंका थी, क्योंकि जूते चोरी करवाने के मामले में हम सबसे ज्यादा “लकी” आदमी हैं, या फिर शायद जूते चुराने वालों से हमारा कोई जन्म-जन्मांतर का रिश्ता है, क्योंकि हमारे जूते अक्सर चोरी हो ही जाते हैं। लेकिन मंदिर में जूते-चप्पल चोरी हो जाने पर हमें दिलासा मिलता कि ये भगवान का आशीर्वाद है, आपके घर का दलिद्दर दूर करने का प्रयास। हम जूते चोर को भगवान का भेजा हुआ दूत समझ कर माफ कर देते।

खैर, मंदिर में दर्शन किए। श्रीमती जी के पीछे-पीछे परिक्रमा, आरती, तिलक, और जेब से चिल्लर निकाल कर पुजारी को निशाना मारकर फेंकने जैसे सारे काम पारंपरिक तरीके से निपटाकर, श्रीमती जी के साथ मन्नत मांगने के लिए अपनी संयुक्त दरख्वास्त लगा रहे थे। मैं ध्यान से सुनने की कोशिश कर रहा था कि इस बार क्या मन्नत मांगी जा रही है। लेकिन भगवान और श्रीमती जी के बीच हो रही वार्तालाप की कानों कान भनक नहीं लगी।

बाहर आए, हमने श्रीमती जी का हाथ पकड़ रखा था, ताकि वो कहीं बाज़ार की ओर न निकल जाएँ। मंदिर के पास ही दरअसल भरा हुआ बाज़ार था, सौतनें सिर्फ श्रीमती की ही नहीं होती हैं, हम पति लोगों की भी होती हैं, और मेरे लिए तो बाज़ार से बढ़कर कोई सौतन नहीं। श्रीमती जी की तरह ही बाज़ार भी बिलकुल पत्नी की तरह व्यवहार करता है, नज़र मेरे पर्स पर ही रहती है। जैसे ही बाहर निकले, मैं भागा-भागा अपने जूतों की अस्थायी शरणस्थली की तरफ गया। आराम कुर्सी के नीचे एक जूता बिल्कुल सही हालत में मिल गया। जिंदा था, साँसें ले रहा था। मैंने भी राहत की साँस ली। श्रीमती जी ने विजय भाव से मुस्कान डाली।

अब दूसरे जूते को संभालने की बारी थी। पेड़ की तरफ गया तो देखा कि दूसरा जूता नदारद था। अब विजय मुस्कान मेरे चेहरे पर आई और श्रीमती जी परेशान हो गईं। कुछ परिचित गालियाँ चोर को देते हुए, और अपनी किस्मत को कोसते हुए हम जा रहे थे। हाथ में एक जूता था। पहली बार पता चला कि जूते अगर जोड़ी में न हों तो हाथ में आ जाते हैं। हाथ में लटकाते हुए ही बाहर निकले। इस समय सिर्फ लटकाने के अलावा कुछ कर भी नहीं सकता था, चलाने का तो कोई अवसर नजर नहीं आ रहा था।

मैं इधर-उधर देख रहा था कि शायद जो ले जाने वाला है, वह अपना जूता छोड़ गया हो। लेकिन निराशा ही हाथ लगी, कोई “एक्सचेंज ऑफर” नहीं था। श्रीमती जी ने कुछ जुगाड़ लगाने की सोची कि एक जूता दुकानदार को कैसे वापस किया जाए। जूता मेरे हाथ में था, तभी किसी ने टोक दिया, “डॉक्टर साहब, ये क्या? हाथ में जूता लेकर कैसे चल रहे हो, और नंगे पैर?” हंसी का आलम था। बाज़ार के दोनों तरफ के दुकानदार हंस रहे थे। मुझे गुस्सा आ गया। पास ही एक नाला बह रहा था, मैंने जूता उसमें फेंक दिया। श्रीमती जी ने कहा, “ये क्या किया तुमने? मैंने तो ११ रुपये का प्रसाद बोला था, तुमने सब गुड़-गोबर कर दिया… देख लेना भगवान ज़रूर सुनेंगे। भगवान ज़रूर भेजेंगे उसे जिसने जूता चुराया है, चोर के कीड़े पड़ेंगे और जूता घर वापस आएगा।” ११ रुपये में इतने सारे काम भगवान को पकड़ा दिए, थोड़ा साँस भी तो लेने दो हे भाग्यवान… भगवान है कि दिहाड़ी मजदूर?

मैं निरुत्तर सा चुपचाप चल रहा था। इस बार मैंने तय किया कि नंगे पाँव ही मंदिर आऊँगा, न रहेंगे जूते, न होगी चोरी। तभी एक दुकानदार दौड़ता हुआ आया। उसके हाथ में मेरा खोया हुआ जूता था। वह बोला, “डॉक्टर साहब, ये आपका जूता है ना? मंदिर का एक कुत्ता इसे मुँह में दबाकर मेरी दुकान पर आया था। मैंने देखा और समझ गया कि ये आपका ही जूता है।” श्रीमती जी मुझे देख रही थीं, और मैं नाले को देख रहा था। नाला मेरे ऊपर हंस रहा था, शायद कह रहा हो, “अगर तुम्हें भी डूबना है, तो आ जाओ!”

परिचय :-  डॉ. मुकेश ‘असीमित’
निवासी : गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
व्यवसाय : अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि : कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशन : शीघ्र ही प्रकाशित  पुस्तक “नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक” (किताबगंज प्रकाशन से), काव्य कुम्भ (साझा संकलन) नीलम पब्लिकेशन, काव्य ग्रन्थ भाग प्रथम (साझा संकलन ) लायंस पब्लिकेशन।
प्रकाशनाधीन : व्यंग्य चालीसा (साझा संकलन )  किताबगंज   प्रकाशन,  गिरने में क्या हर्ज है -(५१ व्यंग्य रचनाओं का संग्रह) भावना प्रकाशन। देश विदेश के जाने माने दैनिकी, साप्ताहिक पत्र और साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेख प्रकाशित 
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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