
भारमल गर्ग “विलक्षण”
जालोर (राजस्थान)
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विंध्याचल की गोद में बसे एक गाँव में, जहाँ आकाश और धरती के बीच केवल धुएँ के बादल और ऋषियों के जप का धुँधलापन था, वहाँ एक युवा साध्वी तारावली रहती थी। उसके केशों में जुही की लता जैसी सफ़ेदी थी, और आँखों में वह अधैर्य जो संन्यास के वस्त्रों में भी दबता नहीं था। वह जंगल में एक गुफा में तपस्या करती, परंतु उसकी ध्यान-मुद्रा में अक्सर एक नाम टूट-टूट कर आता- “वीरेंद्र”। गाँव वाले कहते, वीरेंद्र कोई भूत है जो सदियों पहले इसी वन में युद्ध करता हुआ मरा, पर तारावली जानती थी- वह कोई स्मृति नहीं, उसके पूर्वजन्म का प्रेमी था।
एक अंधड़ भरी रात, जब आम्रपत्रों पर बरसात की बूँदें गूँज रही थीं, तारावली ने गुफा के बाहर एक पुरुष को देखा। उसकी छवि धुंधली थी, पर उसकी आवाज़ स्पष्ट थी- “तारा… मैं तेरे व्रत को भंग करने आया हूँ।” वीरेंद्र की आत्मा उसके सामने खड़ी थी, जिसके शरीर पर युद्ध के घाव अभी तक रिस रहे थे। तारावली ने अपनी माला तोड़ डाली- “तुमने मुझे छोड़कर मृत्यु को क्यों चुना?” वीरेंद्र ने उसके आँसू पोंछे, पर उंगलियाँ उसके गालों से होकर सीधे धरती में समा गईं।
तारावली अब रोज़ सायंकाल उसी वट वृक्ष के नीचे बैठती, जहाँ वीरेंद्र की छाया मिलती। वह उसे अपने पूर्वजन्म की कहानियाँ सुनाता- कैसे दोनों राजसभा में मिले थे, कैसे उसने युद्ध में जाते समय उसके चरण छुए थे। तारावली का तप टूटने लगा। एक दिन, उसने वीरेंद्र से पूछा- “क्या तुम्हारी आत्मा को शांति नहीं चाहिए?” वीरेंद्र ने कहा- “मेरी शांति तो तेरे वियोग में जलने से है। तूने इस जन्म में साधना चुनी, मैंने प्रेम।”
गाँव के लोगों ने देखा- तारावली अब हवन में आहुति नहीं डालती, बल्कि वट वृक्ष की जड़ों में फूल रख आती। पुजारी ने चेतावनी दी- “इस आत्मा के मोह में तुम नरक के द्वार खोल रही हो!” पर तारावली ने सुना नहीं। एक पूर्णिमा की रात, वीरेंद्र ने उसे सच बताया- “अगर तू मेरा नाम लेगी, तो मैं बारिश की एक बूँद बनकर तेरे हाथों से सदा के लिए लुप्त हो जाऊँगा।”
तारावली फिर कभी न बोली। उसने मौन व्रत धारण कर लिया, मानो वचन दे दिया हो कि वीरेंद्र का नाम उसकी जिह्वा पर नहीं आएगा। पर एक दिन, जब गाँव में महामारी फैली और बच्चों के प्राण जाने लगे, तो ग्रामीणों ने तारावली से प्रार्थना की- “देवी, हमें बचाओ!” तारावली की आँखों में वीरेंद्र झलका- “बोल दे मेरा नाम, मैं इन्हें अमर कर दूँगा।”
तारावली ने आकाश की ओर देखा। उसकी मुखमुद्रा में विद्रोह और करुणा का समन्वय था। अचानक, उसके कंठ से निकला- “वीरेंद्र!” उसी क्षण, आकाश से मूसलाधार बारिश हुई। गाँव की नदी उफन उठी, और महामारी का जहर बह गया। पर वीरेंद्र की छाया कहीं नहीं थी। तारावली उस वट वृक्ष के नीचे बैठी रही- शरीर से जीवित, पर आत्मा से उसी बूँद में विलीन, जो अब बादलों में रोज़ उसका नाम गूँजाती है।
यह कथा उस मौन की गवाही है, जो प्रेम को बचाने के लिए टूट जाता है। यहाँ मोक्ष और मृत्यु के बीच केवल एक नाम का अंतर है- जो बोल देने पर स्वर्ग बन जाता है, और चुप रहने पर सदा का साथ।
परिचय :- भारमल गर्ग “विलक्षण”
निवासी : सांचौर जालोर (राजस्थान)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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