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मुझे भी बिकना है

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
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आईपीएल मैच का सीजन चल रहा था। क्रिकेट के बारे में मेरा ज्ञान शुरू से ही सिर्फ फील्ड के बाहर गई गेंद को दौड़-दौड़ कर लाकर बॉलर को पकड़ाने तक सीमित है। कभी-कभी मेरे साथी किसी पड़ोस वाली आंटी के मकान का शीशा तोड़ने पर मेरा झूठा नाम लगा देते थे। इसी बहाने यह झूठी तसल्ली मिल जाती थी कि चलो, पड़ोस की आंटी और अंकल ही सही, कोई तो मानता है कि गेंद हम भी मार सकते हैं, शीशा हम भी तोड़ सकते हैं। क्रिकेट का बाजारीकरण भी देखा है। क्रिकेट अब गलियों से निकलकर बड़े-बड़े उद्योगपतियों की जेब में आ गया है और सेलिब्रिटी के तीसरे पेज पर अपनी जगह बना चुका है। आईपीएल शुरू होते ही मीडिया हाउस की चांदी हो जाती है। बड़े-बड़े होर्डिंग्स और विज्ञापन, आईपीएल की बिडिंग से ही शुरू हो जाते हैं। हर तरफ गहमागहमी का माहौल है। हर जगह एक ही चर्चा सुनाई देती है—कौन-सा खिलाड़ी कितने में बिका?
खिलाड़ियों के दाम, जो अक्सर मोटे-मोटे घोटालों की रकम की बराबरी करते हैं, देखकर मैंने बड़े अफसोस के साथ सोचा, “सच में, मुझे भी बिकना है।” जब हर कोई आज के इस चमक-दमक वाले बाजार में बिकने के लिए खड़ा है, तो कोई मेरा भी दाम लगाए। मगर मैं? मैं कहाँ जाऊं? कोई खरीदार हो तो सही, मेरे भी हिस्से की कीमत लगा दे। वैसे तो शादीशुदा हूँ, तो पहले ही बिक चुका हूँ। शायद सेकंड हैंड माल को लेने के लिए तो कबाड़ी भी हाथ नहीं लगाएगा। अब दो कौड़ी के आम आदमी की कीमत भला कौन दे सकता है? पढ़-लिखकर नवाब बनने के शौक में सब गोबर कर दिया है। इससे अच्छा तो खेल-कूद कर खराब हो जाते। हो सकता है कि आज कहीं जुगाड़ लगाकर फिट हो जाते, चाहे एक्स्ट्रा प्लेयर के रूप में ही सही। जो काम बचपन में किया था, वही कर लेते- मसलन रिटायर्ड हर्ट प्लेयर को स्ट्रेचर में पटक कर ले जाने का, पानी और कोल्ड ड्रिंक पिलाने का, और शर्ट खोलकर अपने खिलाड़ियों को चीयर करने का। कम से कम लाख-दो लाख तो बिड में हमें भी मिल ही जाते!
आज के दौर में हर कोई बिकना चाहता है, और हर कोई खरीदना चाहता है। हर कोई ज़रूरत और परिस्थितियों के अनुसार खरीदार और बिकने वाला बन जाता है। बाज़ार तय करता है, सप्लाई और डिमांड तय करती है। जब लोकतंत्र का भविष्य ही बाज़ार तय कर रहा है, सरकारें बाज़ार तय कर रही हैं, तो फिर अदने से वोटर की क्या औकात जो बिक न सके! गरीब मजदूर चौराहे पर गठरिया बाँधे एक आशा के साथ उन हाथों को ढूंढ रहा है जो उसे ले जाएँ, ताकि शाम की रोटी का जुगाड़ हो सके। उसे तो बेचने की कला भी नहीं आती। बाज़ार के पैतरों से अनभिज्ञ, निरीह और पथराई सी आँखें बाबूजी को ढूंढ रही हैं, जो आज उसे मजदूरी देकर उसके सीमित सपनों का मसीहा बनेगा। आज की युवा पीढ़ी भी बिकने के लिए तैयार है। चंद लाइक्स और कमेंट्स के लिए नग्नता के प्रदर्शन की सीमा से परे जाकर शर्म-हया बेच दी। खिलाड़ी और कलाकार भी अपने आप को बेच रहे हैं। एक पहुँचे हुए शास्त्रीय संगीतकार जब च्यवनप्राश के विज्ञापन में खुद को बेचते नजर आए, तो लगा कि कला नहीं बिक रही, तो क्या, कलाकार तो बिक रहा है। कला और संस्कृति, जो देखने, सुनने, महसूस करने और अपनी रूह को उन्नत करने के लिए थी, अब सिर्फ प्रदर्शन की वस्तु बन गई है। तालियाँ कला के प्रदर्शन पर नहीं, कलाकार के अंग-प्रदर्शन पर ज्यादा बजती हैं! अब आम आदमी भी बिकता है न? हर पाँच साल में, कुछ चंद नोटों और एक दारू की बोतल के खातिर। लोकतंत्र के चार पिलर – न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका, और पत्रकारिता भी तो इस दौड़ में पीछे नहीं हैं!
देश की अर्थव्यवस्था भी तो खरीद-फरोख्त से चलती है न! दुनिया भर को झूठे जीडीपी के आँकड़े दिखाने की कवायद में लोकतंत्र को अर्थतंत्र में बदला जा रहा है। इन जीडीपी के आँकड़ों को राशन की दुकान में सड़े-गले गेहूँ के बदले में अगर आम जनता को खिला दिया जाए, तो शायद देश की भुखमरी कम हो जाए। शायद असल मायनों में लोकतंत्र को अर्थ दिया जा रहा है! देखो, बिकने के लिए एक यूएसपी (यूएसपी) होना ज़रूरी है। आजकल के मोटिवेशनल स्पीकर भी तो अपने आपको बेचकर आपको बेचने के गुर सिखा रहे हैं। आदमी सामान नहीं, खुद को बेचता है। अब जिसकी यूएसपी बेहतर होगी, वह बेहतर दाम में बिकेगा। न्यायपालिका में तो वैसे ही न्याय को पत्थर की काली मूर्ति बनाकर उसकी आँखें काले कपड़े से बंद कर रखी हैं। अब पत्थर में संवेदना ढूँढोगे तो कहाँ से मिलेगी! तराजू हाथ में है। बनाने वाले कलाकार ने तराजू का कांटा भी बिल्कुल सही माप का लगाया है। इस पलड़े में रकम डालिए और दूसरे पलड़े में बराबर के वजन का फैसला लीजिए! विधायिका भी अपनी रंगत बदलती गिरगिट जैसी खूबी लिए है। गेंडे जैसी मोटी खाल धारण किए हुए है। विधायिका पल्टूराम और मौकापरस्ती के मगरमच्छी आँसू लिए बस बिकने को तैयार है। नीतियाँ और सिद्धांत ये सब हवा और मौके के साथ बदलने की क्षमता रखते हैं। कार्यपालिका तो बिकने के लिए ही बनी है, लेकिन इसकी कीमत हर कोई अदा नहीं कर सकता। बड़े-बड़े उद्योगपति और कॉर्पोरेट घरानों का ही बूता होता है इनके दाम लगाना!
पत्रकारिता भी हवा के साथ बहने के लिए तैयार है। जहाँ पत्रकारिता दीपक की तरह लोकतंत्र की आखिरी लौ थी, अब हवा के साथ बुझने को तत्पर है। दाम सही मिले तो कब किसकी हवा बना दे और किसकी हवा निकाल दे, सब आता है। कई लेखकों ने इसी कारण वो लिखना शुरू कर दिया जो बिकता है। साहित्य की रेसिपी में अश्लीलता और फूहड़ता का छौंक लगाया जा रहा है। अब अच्छा साहित्य तो घर में बनी बीवी के हाथ की स्वादहीन दाल ही साबित हो रही है। सभी को बाजारू साहित्य का टंगड़ी कबाब ही पसंद है। सुना है, ‘मस्तराम’ एक बहुत ही उम्दा लेखक था। उसकी रचनाएँ स्वादहीन दाल ही साबित हो रही थीं। प्रकाशक ही नहीं मिल रहे थे। जो कोई एक-दो रहम करके छाप भी देते, वो दुबारा हाथ जोड़ लेते। हारकर बेचारे ने वह लिखना शुरू किया जो सबकी माँग थी। देखते ही देखते उसके हजारों प्रशंसक हो गए। उसका रचा साहित्य अब अलमारियों की धूल फाँकने की बजाय तकियों के नीचे करीने से सजाया जाने लगा।

मैं भी बिकना चाहता हूँ, अपनी कीमत चाहता हूँ। कोई मुझे भी खरीद ले, ताकि मैं भी इस बिकने वाले संसार का हिस्सा बन सकूँ।

परिचय :-  डॉ. मुकेश ‘असीमित’
निवासी : गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
व्यवसाय : अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि : कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशन : शीघ्र ही आपकी पहली पुस्तक नरेंद्र मोदी का निर्माण : चायवाला से चौकीदार तक प्रकाशित होने जा रही है।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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