Thursday, February 13राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर आपका स्वागत है... अभी सम्पर्क करें ९८२७३६०३६०

औकात की बात

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
********************

आज फिर उनकी औकात उन्हें दिखने लगी है। दुखी हैं बहुत। एक बार हो जाए, दो बार हो जाए, लेकिन बार-बार कोई औकात दिखा दे तो भला किसे बर्दाश्त होगा? इस बार तो हद ही कर दी। संस्था वाले भी पीछे ही पड़े हैं… क्या यार, इस बार तो मात्र दस रुपये की माला को मोहरा बना दिया, औकात दिखाने के लिए! उन्हें पता चला कि सम्मान करने के लिए जो माला उनके गले में डाली गई थी, उसकी बाजार कीमत दस रुपये
थी, और संस्था द्वारा थोक में मंगवाने के कारण वह महज आठ रुपये में पड़ी थी। बस, तभी से अपसेट हैं। कार्यक्रम संस्था द्वारा उनकी शादी की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में आयोजित था। संस्था वालों ने उनकी वर्षगांठ पर उन्हें दस रुपये की माला पहनाकर उनकी औकात दिखा दी! पिछली बार भी एक कार्यक्रम हुआ था। तब इसी संस्था के एक अन्य सदस्य को बीस रुपये की माला पहनाई गई थी। यह तथ्य उन्हें तब पता चला, जब संस्था द्वारा पिछले कार्यक्रम का बजट प्रस्तुत किया गया। संस्था वाले किसी न किसी बहाने बस उन्हें औकात दिखाने के लिए तत्पर रहते हैं। बताइए, ये भी कोई बात हुई?
कभी नाम का उच्चारण ‘कबीर दास’ से ‘कबर दास’ कर देते हैं, कभी मंच पर बुलाना भूल जाते हैं। कई बार ये नमस्कार करते हैं और संस्था के पदाधिकारी मंच पर व्यस्त होने का बहाना बनाकर उनके नमस्कार का उत्तर भी नहीं देते। अब यह भी कोई बात हुई भला? माना कि आप व्यस्त हैं, लेकिन वे कब से खड़े इंतजार कर रहे थे- आधा घंटा बीत गया, किसी ने हाय-हेलो तक नहीं की! सब अपने-अपने में मशगूल रहे। उनकी कातर निगाहें बस किसी का अभिवादन पाने को भटकती रहीं। कुछ सिर हिले, तो उन्हें लगा शायद नमस्कार किया जा रहा है। उन्होंने भी सिर हिला दिया, लेकिन बेकार गया। मंच पर मौजूद लोग मुख्य अतिथि महोदय के स्वागत में व्यस्त थे। उनका नमस्कार इस तरह उपेक्षित चला जाना- उन्हें ऐसा लगा मानो धरती फट जाए और वे उसमें समा जाएँ, या आकाश निगल ले। आखिरकार, वे कार्यक्रम छोड़कर चले गए- अपनी औकात को साथ लेकर। वे कभी अपनी औकात को देखना नहीं चाहते, उन्हें अपनी औकात से नफरत है। लेकिन ये औकात है कि बार- बार उनके सामने आ खड़ी होती है, उन्हें चिढ़ाती है- “देख लो, मैं फिर तुम्हारे सामने हाजिर हूँ! कब तक मुझसे बचोगे?” जब वे कार्यक्रम से लौट रहे थे, तो उनके कदम भारी थे। विवश थे वे। उनका विरोध बहुत मासूम होता है- वे शोर नहीं मचा सकते, लड़ नहीं सकते, झगड़ नहीं सकते। उनका स्वभाव ही ऐसा नहीं। वे बस दुखी हो सकते हैं, विलाप कर सकते हैं और संस्था से चुपचाप खिसक सकते हैं। वे मीटिंग से इस तरह बाहर निकलते हैं कि कोई उन्हें रोकने के लिए अपना ‘कीमती समय’ बर्बाद न करे। वे ऐसे चुपचाप निकलते हैं, जैसे किसी ने उनकी औकात के साथ उन्हें देख लिया तो वे बदनाम हो जाएँगे। लोग हँसेंगे- “देखो भाई, ये जा रहे हैं… अपनी छोटी-सी औकात को साथ लेकर!”

उनकी औकात भी अजीब चीज़ है- आवारा किस्म की! हर किसी के मुँह लगती रहती है। कोई भी उसे पकड़कर उनके पास ला सकता है- “ले भाई कबीर दास, ये तुम्हारी पिद्दी-सी औकात! संभालो इसे, हमारे मुँह लग रही थी!” अरे, इसे अपने पास रखा करो न! ध्यान रखा करो! अगर ये ऐसे ही गली-गली घूमेगी, तो ऊँची औकात वाले लोग इसे देखकर सीटी बजाने को मजबूर हो जाएँगे, ताने कसने को मजबूर हो जाएँगे। हर कोई अपनी औकात को पिंजरे में बंद करके रखता है। उसे पालता-पोसता है, बड़ा करता है। लेकिन दूसरों की औकात को? जब भी मौका मिलता है, गली के कुत्ते की तरह दुत्कारता है, ढूँढ़ता रहता है, और ताने कसता है। ख़ैर, वे दुखी होकर संस्था से चले आए। किसी को पता भी नहीं चला। इस बात से वे और अधिक दुखी हो गए-
“भाई, किसी को परवाह ही नहीं! छोटी औकात वाले हैं न, कौन ध्यान रखेगा?” वे औकात की तरफ़ देख रहे हैं- “क्या खिलाएँ-पिलाएँ इसे? कौन-सा टॉनिक दें कि यह बड़ी हो जाए? ताकि बड़े लोग इसे खुद देखें, मुझे न दिखाएँ!” वे दुखी मन से कोसते हैं- “अरे, मेरी इज्जत को मुझे दिखाकर क्या करोगे?” तीन दिन बीत गए। संस्था के व्हाट्सएप ग्रुप में कार्यक्रम की तस्वीरें डाली जा रही हैं, बधाइयाँ दी जा रही हैं, कार्यक्रम की सफलता की चर्चा हो रही है। और ये, जो कार्यक्रम का बहिष्कार करके आए थे- उनकी कोई चर्चा ही नहीं! हारकर वे व्हाट्सएप ग्रुप छोड़ देते हैं। अब और क्या करें? कोई नोटिस नहीं करता, तो यही उनका आखिरी हथियार है। तीन दिन बीत गए हैं… वे औकात से कह रहे हैं- “चिंता मत करो, वे आएँगे… ज़रूर आएँगे!” संस्था वाले आते हैं। उनकी छोटी-सी औकात को अहंकार की खुराक मिल जाती है। संस्था वाले उन्हें मनाने आए हैं- “अरे कबीर दास जी, हम तो चाय पीने के लिए आए हैं! भाभी जी के हाथ की चाय पिए हुए बहुत दिन हो गए, इसलिए!”
वे भीतर से खुश होते हैं, लेकिन ऊपर से दुखी मन से कहते हैं- “मैंने आपको नाहक ही परेशान कर दिया, बताइए! रिग्रेट करता हूँ, ऐसा नहीं करना चाहिए था। आप आदेश देते तो मैं खुद हाजिर हो जाता। लेकिन चलो, अच्छा हुआ, इस बहाने आपने हमारा ‘गरीब खाना’ देख लिया!”

उनकी औकात छोटी है… क्या करें? संस्था में सभी की औकात से छोटी! इसलिए सारा इल्ज़ाम वो अपनी छोटी औकात पर डाल देते हैं- “भाई, उसी की बदमाशी है! इसने नाहक ही आपको परेशान किया!” संस्था वालों को भी पता है- ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है। वे जानते हैं कि वे दुखी रहेंगे, लेकिन संस्था छोड़ना नहीं चाहते। बस, कोई उन्हें बुला ले, थोड़ा-सा उनकी औकात को खींचकर बड़ा कर दे! चार दिन हो जाते हैं… बेचैन हो उठते हैं। वे विश्वसनीय स्रोतों से पता भी करते हैं कि ग्रुप में क्या चल रहा है? क्या कोई उन्हें वापस बुलाने के बारे में विचार भी कर रहा है? वे खुद ही फोन करके नमस्कार कर लेते हैं- “क्या हाल हैं, भाई? संस्था में आजकल क्या चल रहा है?” उन्हें लगता है, संस्था उनके बिना अनाथ हो गई होगी! जितनी चिंता उन्हें संस्था में रहकर नहीं होती, उतनी संस्था से बाहर आकर हो जाती है। संस्था में रहते हुए उन्हें बस अपनी औकात की चिंता रहती है-
“कहीं यह इधर-उधर मुँह न मार रही हो! फिर कोई पकड़कर लाकर पकड़ा देगा मुझे” क्या यार कबीर दास, संभाल के नहीं रखते? अब तो उनका जी चाहता है कि कब्र में लेट जाएँ- अपनी औकात के साथ! आज भी वही हाल है। वे देख रहे हैं, उनकी औकात इठला रही है… बस, संस्था के पदाधिकारी आ जाएँ, उनके ‘गरीब’ खाने पर एक बार नजर फेर लें। संस्था वाले आ ही गए हैं। वे नाश्ता-वाश्ता करके जा रहे हैं। और वे? खुश हैं… क्योंकि संस्था वालों ने आकर उनकी औकात के दर्शन कर लिए!

परिचय :-  डॉ. मुकेश ‘असीमित’
निवासी : गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
व्यवसाय : अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि : कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशन : शीघ्र ही आपकी पहली पुस्तक नरेंद्र मोदी का निर्माण : चायवाला से चौकीदार तक प्रकाशित होने जा रही है।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, हिंदी में टाईप करके हमें hindirakshak17@gmail.com पर अणु डाक (मेल) कीजिये, अणु डाक करने के बाद हमे हमारे नंबर ९८२७३ ६०३६० पर सूचित अवश्य करें …🙏🏻

आपको यह रचना अच्छी लगे तो साझा अवश्य कीजिये और पढते रहे hindirakshak.com राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच से जुड़ने व कविताएं, कहानियां, लेख, आदि अपने चलभाष पर प्राप्त करने हेतु राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच की इस लिंक को खोलें और लाइक करें 👉 👉 hindi rakshak manch  👈… राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच का सदस्य बनने हेतु अपने चलभाष पर पहले हमारा चलभाष क्रमांक ९८२७३ ६०३६० सुरक्षित कर लें फिर उस पर अपना नाम और कृपया मुझे जोड़ें लिखकर हमें भेजें…🙏🏻

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *