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एक डिज़ायर की व्यथा कथा

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
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पिछले दस दिनों से मंत्री जी के ऑफिस के कोने में पड़े कचरे के डिब्बे में पड़ी हुई हूँ। मेरे ऊपर मेरी जैसी न जाने कितनी अबला बहनें गिरी पड़ी हैं। न जाने कितने बेसहारा भाई-सरीखे सिफारिशों के लेटर, इनविटेशन, ग्रीटिंग्स, और ज्ञापन मेरे ऊपर गिर-गिरकर मुझे दबाए जा रहे हैं। साँस लेना मुश्किल हो गया है। दो दिन से कचरा उठाने वाला भी नहीं आया। मेरी आखिरी इच्छा है कि कम से कम इस घुटन से बाहर होकर किसी कचरा निस्तारण प्लांट में जाकर रीसायकल हो जाऊँ, कुछ देश के काम आ सकूँ।

इससे बढ़िया तो मुझे सड़क पर फेंक देता। किसी कबाड़ वाले को रद्दी में बेच देता, कम से कम किसी खोमचे वाले के समोसे के लिए प्लेट का काम कर जाती। किसी बच्चे की कागज की नाव बनकर सड़क के गड्ढों में बह जाती, भले ही थोड़ी देर के लिए ही सही। तू क्या समझता है, इंसान? तुझ जैसे टुच्चे सिफारिशी दुम उठाकर यहाँ हमारे मंत्री जी के पास खाली हाथ चला आता है। तुझे कुछ समझ है कि नहीं, जब मुझे तू विधायक जी से लिखवा रहा था, विधायक जी ने बार-बार कहा था कि भाईसाहब, मेरे हाथ में कुछ नहीं है। फिर भी लिखवा देते हैं, क्योंकि आप कह रहे हैं। अरे मूर्ख, वो यही तो कह रहे थे कि उनके हाथ में कुछ नहीं है। जब तक हाथ में कुछ रखेगा नहीं, खाली डिज़ायर लिखवाने का तो यही अंजाम होगा। मुझे पता था, लेकिन तुझे कौन समझाए! विधायक के डिज़ायर के पुछल्ले को ऐसे लेकर आया जैसे कोई लाल किला फतह कर लिया हो। मुझे तो तभी शक हो गया था कि मेरा हश्र क्या होने वाला है। मेरा मालिक तो खुद के हाथ रिश्वत की नकदी से पीले किए बिना अपने बेटे का काम नहीं करवा पाता, तेरी औकात क्या है, तू तो है एक अदना सा वोटर।

तेरी मेमोरी शॉर्ट है, पाँच साल में तू सब भूल जाएगा। बिल्कुल टिपिकल वोटर जैसी तेरी औकात है। अभी तो विधायक जी जीते ही हैं, ज्यादा समय नहीं हुआ है इसलिए वो तो तेरे कुनबे का ख्याल रखते हैं, क्योंकि तेरे पास १०० वोटों की ताकत है, वरना विधायक जी के कोठे के गेट पर भी फटक नहीं पाता। विधायक ने तुझसे वोट लेने के लिए क्या-क्या नहीं किया। तेरे सारे खानदान में किसी को बुआ, किसी को फूफा, किसी को बाप, किसी को दादा बनाया। तेरे दादा ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी, पिछले गड़े मुर्दे उखाड़ कर विधायक को नाक रगड़वाने पर मजबूर किया। वो तो विधायक ने अपनी नाक स्टील की बनवा रखी है, इसलिए घिसती नहीं। अब तुम्हारा टाइम खत्म, खल्लास, अब विधायक का टाइम शुरू है, मूर्ख!

मेरे सामने कितनी डिज़ायरें इठलाती हुई आती हैं, अपने साथ चमकीले लिफाफे लाती हैं, जिनके फूले पेटों से साफ़ पता चलता है कि वे कितनी वजनदार हैं। कैसे विधायक जी उन्हें चूमते हैं, अपने सेक्रेटरी को पकड़ाते हैं। सेक्रेटरी उन्हें करीने से मार्क करके रखता है, फाइलों में सजाकर रखता है! मेरे साथ क्या हुआ, तुझे याद है? मंत्री जी ने ऐसे पटका मुझे जैसे काले नाग के हाथ लगा दिया हो, कहीं डस न लूँ मैं! तुझे तो रिश्वत ना देने का जुनून चढ़ा है न, विधायक को महीनों से नाक में दम कर दिया। कितनों के फोन करवाए—कभी पार्षद, कभी मंडल अधिकारी। सबको तुझसे पीछा छुड़ाने के लिए कितने झूठ बोलने पड़ते हैं। चेयरमैन को कभी दिल्ली, कभी जयपुर होने का बहाना करना पड़ा। तुझे याद नहीं चुनाव से पहले जिस नेता के प्यादे को तू वहाँ का सफाई कर्मचारी बताता था और उसकी मज़ाक बनाता था, अब तू भी पंगे लेता है न। अरे विधायक बनते ही उस प्यादे को पीए बना दिया है। ये जितने भी विधायक के चमचे और प्यादे हैं, उनके हुक्मरान के विधायक बनते ही विधायकी का रंग पेंट सबसे पहले इन्हीं के ऊपर चढ़ता है। तू इधर डिज़ायर लिखवा के गया और उधर उस पीए ने ही विधायक के कान भर दिए थे!

तुझे कुछ पता भी है, तेरी डिज़ायर लिखने के बाद ही मंत्री जी के पास फोन आ गया कि इस डिज़ायर पर ध्यान नहीं देना। तू विधायक की कुटिल मुस्कान के राज को समझने में अपनी सात पीढ़ियाँ खपा दे, तो भी नहीं समझ पाएगा। कभी चेयरमैन का फोन कराता है, कभी विधायक के मास्टर का, कभी उनके रिश्तेदार का, और रिश्तेदार से भी उनसे करवा रहा है, जो विधायक की आँखों को फूटी कौड़ी भी नहीं सुहाते। विधायक के घर जाकर दस दिन से चाय और नाश्ता ढकोस रहा है। विधायक ने तेरा नंबर ब्लॉक कर दिया, उसके बावजूद भी तूने विधायक का पीछा नहीं छोड़ा। अब ले लिए न ये डिज़ायर का पुछल्ला, क्या हुआ? यहाँ भी तसल्ली नहीं मिली! पहले विधायक की नाक में दम, अब मेरे मालिक मंत्री जी, जो तुझे दस दिन से टरका रहे हैं कि मंत्री जी बाथरूम में हैं। तू है कि मानता ही नहीं। अब साहब बातरूम में हगे भी नहीं, नहाए भी नहीं। अब साहब दस घंटे बाथरूम में लगाए तो तुझे क्या? तू मंत्री है क्या? अरे तू तो संत्री भी नहीं है, जो तुझे पता हो कि मंत्री जी अपने महत्वपूर्ण कार्यक्रम सब वॉशरूम में ही निपटाते हैं। आलाकमानों से बात, विरोधियों को फंसाने की चाल, दबंगों से सांठ-गांठ, घोटालों की प्लानिंग-अरे, वॉशरूम को कान-प्रूफ बनाया है। अब विरोधी पार्टी भी पीछे पड़ी है। स्टिंग ऑपरेशन वालों को कहाँ-कहाँ नहीं भेज देते, अब ले-देकर वॉशरूम ही तो बचा है, जहाँ मंत्री जी अपने काले कारनामों को सफेद करने में लगे हैं। वहाँ दलाली में काले हुए हाथों को धो रहे हैं, अपने कुर्ते को भी, जो न जाने कितने गरीबों के खून से रंगे हैं, उसे धोने में वक्त तो लगता है।

मेरा तो जो हश्र तूने किया, सो किया, मेरी जैसी हज़ारों बहनें मेरे साथ हैं। हमारी नियति तो यही है। अब हर किसी के नसीब में समझदार अपना काम निकलवाने में माहिर, चतुर चालाक वोटर तो है नहीं। तुम जैसे अपने आपको इंटेलेक्चुअल समझते हो, जिनकी कीमत इस लोकतंत्र में एक निरे वोटर के सिवा कुछ भी नहीं है।

परिचय :-  डॉ. मुकेश ‘असीमित’
निवासी : गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
व्यवसाय : अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि : कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशन : शीघ्र ही आपकी पहली पुस्तक नरेंद्र मोदी का निर्माण : चायवाला से चौकीदार तक प्रकाशित होने जा रही है।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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