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कवि “प्राण” की अर्थ सहित तीन डमरू घनाक्षरियाँ

गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”
इन्दौर (मध्य प्रदेश) 

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डमरू का वर्ण विधान और वर्ण विज्ञान
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मेरे द्वारा रचित तीनों डमरू घनाक्षरियाँ हैं। इनमें पहली एवं तीसरी घनाक्षरी अकारान्त लघु वर्णों के शब्द समूहों में हैं व दूसरी घनाक्षरी अकारान्त‌, इकारान्त, उकारान्त लघु वर्णों के शब्द समूहों में है। पहली डमरू घनाक्षरी में शुद्ध हिन्दी की क्रियाओं का प्रयोग किया गया है व शेष दो में ब्रज, अवधी और बुन्देली की क्रियाएँ प्रयोग की गई हैं। ऐसा इसलिए किया है क्योंकि जब हम हिन्दी में रचना कर रहे हैं तो हमें शुद्ध हिन्दी की क्रियाओं का ही उपयोग करना चाहिए और यदि किसी अन्य भाषा में रचना कर रहे हैं तो सम्बन्धित भाषा की क्रिया का ही उपयोग होना चाहिए। मेरी जानकारी में हिन्दी में यह प्रथम रचना है। क्यों कि कुछ कवियों ने डमरू घनाक्षरी की रचना तो की है किन्तु उनमें ब्रजभाषा के क्रियापदों का उपयोग किया है।
दूसरी बात यह है कि कई कवि अज्ञानतावश डमरू घनाक्षरी में केवल ‘अ’ की मात्रा को ही लघु वर्ण मान बैठे हैं और रचना कर देते हैं जब कि ‘अ’ ‘इ’ ‘उ’ ‘ऋ’ की मात्राएँ लघु वर्ण के रूप में मान्य हैं।

इतना ही नहीं कई तथाकथित छन्द विशेषज्ञों ने तो इस तरह की घनाक्षरी को अमात्रिक ही कह दिया है। बताना यह चाहता हूँ कि जिस वर्ण में लघु या दीर्घ कोई भी मात्रा सम्मिलित है वह अमात्रिक नहीं होता। जैसे क, का कि की कु कू कृ के कै को कौ आदि सभी समात्रा हैं।

वहीं यह भी कहना चाहूँगा कि चार से अधिक अमात्रिक वर्णों से बना शब्द बोला ही नहीं जा सकता। एक साथ अधिकतम चार संयुक्त वर्ण ही कठिनाई से बोले जा सकते हैं इससे अधिक संयुक्त वर्ण बोले ही नहीं जा सकते। चार वर्णों से अधिक बिना मात्रा के शब्द बनाते समय पूर्व में या बाद में स्वर (मात्रा) का सहारा लेना ही पड़ेगा। जैसे -कार्त्स्न्। यह एक ऐसा शब्द है कि इससे बड़ा कोई अन्य शब्द संस्कृत और हिन्दी साहित्य में मिलता ही नहीं है। इसमें ‘क’ पर ‘आ’ का स्वर है अर्थात आ की मात्रा चढ़ी हुई है वहीं ‘र्’ ‘त्’ ‘स्’ ‘न्’ पूर्ण किन्तु ‘र्त्स्न’ संयुक्त वर्ण हैं। इसमें ‘का’ के बाद‌ चूँकि ‘र्’ वर्ण है भले ही वह सबसे बाद में ऊपर चढ़ा हुआ दिखाई दे रहा है लेकिन वह यहाँ संयुक्त वर्णों में सबसे पहले है इसलिए ‘र्’ ही पहले उच्चरित होगा उसके बाद ही ‘त्’ ‘स्’ ‘न्’ हैं।

एक सखी दूसरी से
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१-
चटक-मटक पट पहन पलट लट,
मटक-मटक पग धर मत हलकट।

लटक-झटक मत चल हट झटपट,
लमक-लमक कर डग भर सरपट।।

डर मत लख कर तट पर जमघट,
अटक-भटक मत फटक मगर डट,

जठर कमर पर धर घट झटपट,
जल भर कर घर चल तज पनघट।।

अर्थात् – अरी हल्की और कमजोर बुद्धि वाली सखी चटक – मटक कपड़े पहनकर लटों को पलटती हुई ऐसे मटक-मटक कर पाँव मत धर। लटक-झटककर मत चल जल्दी-जल्दी लम्बी डग भरती हुई लमक-लमक कर चल। नदी के किनारे जमघट लगा हुआ देखकर डर मत और इधर-उधर मत भटक अपितु पनघट पर डटकर घड़े में जल भरकर पेट और कमर पर जल्दी घड़ा रखकर सीधी घर चल।

२-
लहर-लहर मन मदिर-मदिर तन,
विषम डगर पर कदम निडर धर।

सुमन सरिस मुख निरख सजनि रुख,
इधर-उधर लख सजन अधर धर।।

कथन कहति अति सरस सजन सुन,
बदन मदन रति गति हर रसधर।।

मन-मरुथल तन तपन शमन कर,
खुलकर बरस-बरस वन जलधर।।

अर्थात् – मदमस्त मन वाली सुन्दरी ऊबड़-खाबड़ असमतल धरती पर पाँव रखती हुई निर्भय होकर लहरा लहरा कर किन्तु धीरे-धीरे चल रही है। फूलों जैसा खिला हुआ पत्नी का चेहरा देखकर उसका रुख अर्थात मूड भाँपकर इधर – उधर देखते हुए उसके पति ने उसका अधर चुम्बन किया। इस पर वह स्त्री अपने पति का रसमय रुख देखकर कहने लगी- हे पति देव तुम्हारा शरीर रसों को धारण करने वाले कामदेव के समान रति की गति अर्थात कामाग्नि का हरण करने वाला है। इसलिए मेरे मन – मरुथल के तन की तपन को शान्त करो और बादलों की तरह इस वन में खुलकर बरसो।

3-
गरजत-बरसत, झरत गगन घन,
घनन-घनन घन, घन नन नन नन।

खटकत चलत पवन वन भटकत,
सनन-सनन सन, सन नन नन नन।।

उछलत-मचलत, धरत करत पग,
छनन-छनन छन, छन नन नन नन।।

लखत सजन घर, करन लगत कर ,
खनन-खनन खन, खन नन नन नन।।

अर्थात् – आसमान से गरजते – बरसते हुए बादल झर रहे हैं और घन घनन-घनन घन, घन नन नन नन की ध्वनि कर रहे हैं। इधर बियावान जंगल में भटकती भटकती सनन-सनन सन, सन नन नन नन अर्थात साँय साँय करती हुई हवा मन को खटक रही है। इधर पति को घर पर उपस्थित देखकर उछलते-मचलते हुए धरती पर पड़ते हुए सुन्दरी के पाँव छनन-छनन छन, छन नन नन नन कर रहे हैं अर्थात पायल के घुँघरू बज रहे हैं वहीं उसके हाथ खनन-खनन खन, खन नन नन नन कर रहे हैं अर्थात कंगन और चूड़ियाँ बज रहे हैं।

परिचय :- गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”
निवासी : इन्दौर (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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