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चाहे जितनी पीड़ा दे दो

बृजेश आनन्द राय
जौनपुर (उत्तर प्रदेश)
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चाहे जितनी पीड़ा दे दो,
हे! निर्मम, मुझमें बसती हो।
नैनों नीर भरा रहता मैं,
तुम इतना कैसे हँसती हो।

कल तक उर में समा रही थी,
आज नदी सी निकल पड़ी हो।
मैं पर्वत सा रुका वहीं हूँ,
तुम सागर से पहुँच मिली हो।
बस एकम अब ध्येय तुम्हारा,
एक ही इच्छा बस बाकी है..
‘कुछ अतीत की बात रहे ना,
वर्तमान ही बस साथी है।’
जुड़े न तुम सँग नाम हमारा…
षडयन्त्रों को यों रचती हो।
चाहे जितनी पीड़ा दे दो,
हे! निर्मम, मुझमें बसती हो।।

मैं गीतों के फूल बिछाऊँ,
काँटो के तुम तानें रखती।
मैं वाणी मधुरस बरसाता,
चुभी-बात से तुम हो डसती।
कोयल की जब ‌ तान सुनाऊँ,
तुम दादुर के ढोल बजाओ!
मेरे सम्मुख हर विरोध में
कुटिल भाव से फिर मुस्काओ!
लाज नहीं अब रही हमारी,
क्या कहती हो, क्या करती हो?
चाहे जितनी पीड़ा दे दो,
हे! निर्मम, मुझमें बसती हो।

तिरस्कार अब सहन न होता,
जीवन पर ये बन आया है।
तेरे अभिशापो का मंजर,
अंधकार बनकर छाया है।
दूर खड़ा मैं ताक रहा हूँ,
तेरे मन में झाँक रहा हूँ…
काश! कभी तुम ये कह देती,
‘मैं भी तेरे साथ रहा हूँ।’
पर अपनी निर्दय आंँखों से,
अपना हित केवल रखती हो?
चाहे कितनी पीड़ा दे दो,
हे! निर्मम, मुझमें बसती हो।।

परिचय :-  बृजेश आनन्द राय
निवासी : जौनपुर (उत्तर प्रदेश)
सम्मान : राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच इंदौर म.प्र.द्वारा शिक्षा शिरोमणि सम्मान २०२३ से सम्मानित
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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