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राजनीति का जलेबीकरण

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
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दिवाली की सजावट बाज़ार में जोर पकड़ रही है। हलवाई की दुकान पर खड़ा हूं। पत्नी ने १ किलो जलेबी लाने के लिए कहा है। पता नहीं पिछले दस दिनों से उसकी ज़ुबान पर भी जलेबी चढ़ी हुई है। पहले तो कभी इस मिठाई का नाम भी नहीं लिया कभी। काजू कतली से नीचे बात ही नहीं होती थी। हमने तो सोचा था कि दूध-जलेबी की स्वाद जो गांवों में मिलता था, वो कहीं बचपन में ही छूट गया। अब ताज्नीति के धुरंधर बात भी कर रहे हैं तो जलेबी की ही..दूध की कोई नहीं कर रहा.. ..अभी दूध की बात करें तो सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाए.. । हमारा तो बचपन ही जबेली कहने से जलेबी कहने के बीच का सफ़र है बस …। गरीबों की दिवाली भी जलेबी से ही मनती थी। उनकी लक्ष्मी पूजा में अगर दो जलेबियाँ मिल जाए, तो कहते फिरते थे, “इस बार दिवाली अच्छी रही, भाया…छोरों का मुँह मीठा हो गया जी।”

वैसे जलेबी हमेशा से कौतूहल का विषय रही है। टेढ़ी-मेढ़ी… कहाँ शुरू, कहाँ ख़त्म, कोई अंत नहीं, कोई शुरुआत नहीं। बिल्कुल नेता जी की तरह। एक अच्छा ट्रेडमार्क हमारे पॉलिटिक्स का..। जाहिर है एक दिन तो लाइम लाइट में अना ही था.. ।
जलेबी देखी तो थोड़ी उदास-सी लगी। रंग थोड़ा फीका था। क्यों भाई, ऐसा क्या हो गया?
जलेबी शायद कह रही थी, “इन लोगों ने मुझे भी नहीं छोड़ा। मैं तो ठीक थी। जैसी भी हलवाई की दूकान में एक कोने में पड़े थाल में तिरस्कृत सी अपनी क़िस्मत पर जी रही थी। मुझे हलवाई की तई से निकलकर कमीनों ने ठीक से चाशनी में भी नहीं डुबोने दिया की फेंक दिया चुनावी पुछल्ला बनाकर … गेंद की तरह …, अब कभी इस पाले में टप्पा कभी उस पाले में टप्पा… । सारा रस निचुड़ गया.. । लाइमलाइट में लाकर सेलिब्रिटी बना दिया जी … । अभी क्या हुआ है अभी तो बहुत कुछ होना बाकी है.. जानती हूँ मैं.., पिछले पिचहत्तर साल से देख रही हूँ .., किसी को नहीं बख्शा इन्होने…आलू से सोना बनाने निकले …अब मेरा पोस्टमार्टम करेंगे… देख लेना! । “तुम देखते नहीं, मुझ पर रिसर्च चल रही है। मेरी कब्र खोदी जा रही है, मेरे खानदान का पता लगाया जा रहा है। कहां से जनमी, खानदान के कागजात कहाँ ग़ायब हैं..। कोई मुझ पर विदेशी होने का इल्ज़ाम लगा रहा है, शरणार्थी की तरह मुझसे कागज़ माँगने लगे हैं..। अब कहाँ से आएँगे कागज़? मेरा नाम लेकर सवाल किए जा रहे हैं। कई को मेरा नाम भी बेमानी लग रहा है। फिर मेरे रंग को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं। केसरिया ही क्यों? हरा क्यों नहीं? कुछ मेरे आकार को लेकर… ये टेढ़ी-मेढ़ी क्यों? सीधी क्यों नहीं बनाई जातीं? इस देश में टेढ़े-मेढ़े होने का अधिकार सिर्फ़ नेता लोगों का है। हो सकता है कल मुझे केमिकल का छिड़काव करके संरक्षित करने की सोचें। एक बार बनी जलेबी को पूरे पांच साल चलाएंगे मुए… । अभी तक इस मिलावट के दौर में, जहां शुद्ध दूध, घी, मावा सपनों में भी नसीब नहीं होते थे, वहां एक मैं ही तो थी जो शुद्ध रूप से लोगों को मिल जाती थी।
अब मेरा अस्तित्व भी संकट में है। मुझे ताज़ा बनाए रखने के बाज़ारी नुस्खों के जरिए केमिकल का छिड़काव किया जाएगा। हो सकता है मुझे चाशनी से वंचित रखा जाए और कह दिया जाए कि असली जलेबी में चाशनी नहीं होनी चाहिए। हो सकता है कल मेरे असली स्वाद को बिगाड़ दिया जाए, खट्टा, मीठा, कड़वा, जैसे कुछ अलग-अलग स्वाद में पैक कर के बेचें । कुछ भी संभव है इस देश में..। यहां लोग चाय को भी अपने तरीके से छोंक लगा सकते है…, । बाज़ार ही कम था क्या हमारी गत बिगाड़ने के लिए..अब राजनीति ने भी हमें हैक कर लिया। देखा बाजार को … सोहन पापड़ी जैसी मेरी बहिन का कैसा मखौल उड़ाया जाता है… । अपने ‘चॉकलेट के नाम पर कुछ मीठा हो जाए’ जैसे स्लोगन के तहत कल मेरा भी हाल खराब कर सकते हैं। बात तो पक्की है, जलेबी की शंका भी सच ही लग रही है… जब से जलेबी राजनीति की ज़ुबान पर चढी है … मीडिया की ज़ुबान पर भी चढ़ चुकी है शायद। हर खबर को जलेबी की तरह घुमा-फिराकर, चाशनी में डुबोकर परोसा जा रहा है। जलेबी बाई के ठुमकों का जलवा फ़िल्मी दुनिया से निकलकर राजनीति के रंगमंच पर लग रहा है।

दिवाली पास है, लगता है इस बार जलेबी सोहन पापड़ी को भी पीछे छोड़ देगी। जलेबी किसी के जले पर नमक छिड़क रही है, तो किसी के जले पर बर्नोल का काम कर रही है। मैं देख रहा हूं, जलेबी अब हर जगह छा जाएगी। बेरोज़गारी की समस्या का हल तो नेता जी जलेबी में देख ही रहे है, जलेबी का कारखाना लगाने को कह दिया है। लगता है जलेबी ,बेरोजगारों की ‘भाग्य की कुंडली’ बन कर आयी है..वैसे भी जलेबी का संस्कृत नाम ‘कुंडलिका.’..ही है। लेकिन उन्होंने खास तौर पर हरियाणवी जलेबी का ज़िक्र किया है। बाकी सारे राज्य अपनी-अपनी जलेबी को
लेकर इस बहस में उलझ गए कि हमारे राज्य की जलेबी खास है। हमारी जलेबी में पांच कुंडी घेरे हैं, उनकी में चार।
जलेबी के रंग को लेकर भी बहस हो सकती है, जलेबी का रंग किसी विशेष धर्म के लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखकर रखा गया है। यह धर्मनिरपेक्ष देश में दूसरे धर्म के लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ है। हो सकता है कोई पार्टी हरे रंग की जलेबी की मांग करे। इतिहास खोदा जा रहा है कि जलेबी विदेश से आई, तो इसका रंग कैसा था? कहीं यहां रंग तो नहीं बदल दिया गया? हो सकता है कुछ धर्म विशेष के लोगों ने चाल चली हो। गुड़ वाली जलेबी की जगह चीनी वाली जलेबी…चीनी तो चायना से आयी है …फिर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की मुहिम चल
पड़े। मेरा बेटा… ऑनलाइन देख रहा है। जलेबी का कोई गिफ्ट पैकेट आ गया हो, तो इस बार दिवाली पर जलेबी ही भेंट करेंगे।

परिचय :-  डॉ. मुकेश ‘असीमित’
निवासी : गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
व्यवसाय : अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि : कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशन : शीघ्र ही आपकी पहली पुस्तक नरेंद्र मोदी का निर्माण : चायवाला से चौकीदार तक प्रकाशित होने जा रही है।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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