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अब तो दरश दिखा जा

डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
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हे लौह पथ गामिनी, अब तो दरश दिखाओ। देखो मेरी स्थिति पर तरस खाओ। पिछली बार तो मैं खुद था जो एक शांत प्रेमी की तरह घंटों तुम्हारा इंतज़ार करता रहा, बहुत इंतज़ार के बाद आखिर तुम आयी ..इठलाती हुई। तुमने एक नज़र मिलाकर भी मेरी तरफ देखना मुनासिब नहीं समझा। मैं भी तुम्हारे हज़ारों आशिकों की भीड़ में कुछ पुराने घायल प्रेमी की तरह “लैला लैला” चिल्लाए तुम्हारे पीछे दौड़ता रहा। वो तो शुक्र है एक मेरे ही जैसे दिलजले का जिसने हाथ पकड़ कर मुझे चढ़ा लिया।

लेकिन आज तो मैं मेरे अतिथि को छोड़ने आया हूँ, इस अतिथि ने पिछले १० दिन से मुझे पकड़ रखा है। आज बड़ी मुश्किल से इनका जाने का मन हुआ है। घर से चला था, तुम्हारे ऑफिशियल समय से आधा घंटा लेट चला था, अभी आधा घंटा और हो गया है लेकिन तुम्हारे दर्शन मुझे इस आकाश और धरती के मिलन स्थली तक भी नज़र नहीं आ रहे। स्टेशन की अनाउंसर भी खेद करते-करते थक चुकी है। जब वो खेद करती है तो हमें आत्मग्लानि होती है कि हमें रेलवे की समय सारिणी को समझना चाहिए। अगर वो कहें आधा घंटा तो उसमें एक घंटा जोड़ना तो स्वाभाविक ही है।हम हैं की बस मरे जा रहे हैं.. , । बैंकों की, राशन की, बिजली के बिलों की लाइनों में तो इंतज़ार कर लेंगे, लेकिन यहाँ आते ही गरम तवे पर पानी के बुलबुले की तरह उछलते रहते हैं !

लेकिन आज मेरी तड़पन को समझो… । यह इसलिए है कि कहीं मेरे अतिथि देव का मूड कहीं बदल नहीं जाए और ये मेरा हाथ छोड़कर नहीं जाने का मन बना ले। अभी तक ४ पानी की बोतल, स्टेशन की कैंटीन की पानी वाली चाय पिला चुका हूँ, चार तले हुए भटूरे खिला चुका हूँ, दो अखबार इन्हे पढ़वा चुका हूँ, देश राजनीति धर्म सब पर चर्चाओं का आदान प्रदान हो गया है। उनके बाल्यकाल से लेकर अभी तक के सारे कांडों का वर्णन सुन चुका हूँ लेकिन तुम हो कि नजर ही नहीं आ रही। मेरी ही तरह तुम्हारे इंतज़ार में सोये जगे पड़े यात्रीगण मेरी तरफ घूर घूर कर देख रहे हैं।

में भी क्या करूँ निपट मूर्ख हूँ, छोटी छोटी चीजों को दिल पे लेने लगा हूँ। अपने बस में कुछ नहीं है, मुझे मालुम है ! लेकिन क्या करूँ, आज तो श्रीमती जी ने इन्हें घर से विदा करने को आखिर वार्निंग दे ही दी थी। इनका सामान बाँधने में कल पूरा दिन खर्च हो गया था। यहाँ की स्पेशल टिक्कड़ खिला कर इनका पेट खराब कर चुका हूँ। हमरी श्रीमती जी ने मौके का फायदा उठाकर इन्हें समझाने की कोशिश भी की थी की भाईसाहब लगता है आपको शहर का हवा पानी सूट नहीं कर रहा ! आपको जाना चाहिए। लेकिन ये है कि शहर की हवा पानी को पचाए जा रहे है ! रोज हवा और पानी पीकर हवा और पानी निर्धारित छिद्रों से निकाल रहे हैं, शायद इनका तरीका है किसी दूसरे शहर की हवा पानी से सामंजस्य बिठाने का।

में निपट उल्लू का पठ्ठा क्यूँ नहीं समझता कि संसार में उपस्थित प्रत्येक जड़ चेतन का एक स्वभाव होता है, जैसे दूध का स्वभाव फटना, दही का स्वभाव जमना, नेता का स्वभाव भ्रष्टाचार, अफसर का स्वभाव रिश्वतखोरी, पति स्वभाव पत्नी के खाने में मीन मेख निकालना और पत्नि का स्वभाव शौपिंग। ऐसे ही रेल का स्वभाव है लेट होना। मैं निपट मूर्ख इतना भी नहीं समझता कि तुम्हे रास्ते में कोई भी चैन खींचकर छेड़ देता है ! पहाड़, घाटियाँ, जंगल की नेचुरल ब्यूटी तुम्हे अपने सौंदर्य दर्शन कराकर रोक लेना चाहते हैं। तुम भी सौंदर्य दर्शन में
इतने भावुक हो जाते हो कि पटरियाँ छोड़कर उनसे मिलने चले जाती हो।

मेरे अतिथि को रेल बिभाग की तरफ से शुभकामनाएँ भी मिल गई हैं। ‘ईश्वर आपकी यात्रा सफल करे।‘ अब ईश्वर का ही तो भरोसा है, रेल की थोड़े ही जिम्मेदारी है आपकी मंगल यात्रा की। आप सामान की स्यंव देखभाल करो, अब दुसरे के भरोसे छोड़ोगे तो सामान गायब होगा ही ! सीट कैसे लेनी है वो आप जानो, आप बैठ के लो, रुमाल रख के लो, टीटी की जेब भर के लो आपकी मर्जी। और फिर रेल ने मजबूत डंडे लगाए हैं गेट पर, उनसे लटक कर जाओ। रेल यात्रा में दार्शनिक भाव तो होना ही चाहिए ना, अगर आपकी मंजिल नहीं मिली तो परमात्मा मिलन तो हो ही जायेगा। आखिर सबको जाना भी वहीं है। अतिथि को हमने दो बैग और बाँध दिए हैं, अतिथि भी आते हैं तो खाली हाथ आते हैं, उन्हें खाली हाथ ही जाना होता है लेकिन हम हैं ना, खाली हाथ भेजना अपशकुन होता है इसलिए दो बैग साथ में भर के रख दिए हैं। सीट नहीं मिलने पर फर्श पर सोने के लिए दरी, सीट रोकने के लिए एक तौलिया, सिरहाने लगाने को एक तकिया, कुछ साडीयां भी भाभी जी के लिए रख दी है। इन्हें सीट न मिलने पर ये आराम से बैठ भी सकते हैं। वैसे तो नाश्ता घर से ढकोस कर आए हैं फिर भी स्टेशन पर चार तेल के बने भठूरे खिलवा दिए हैं, और दिन-रात के लिए लंच और डिनर रख दिया है। वैसे तो इनके शहर तक पहुँचने के लिए लंच ही काफी था लेकिन तुम हो ना, इन्हें सफर का भरपूर आनंद मिले इसलिए मुझे मालूम है इनका डिनर भी करवा दोगे। मैं इंतज़ार कर रहा हूँ कि अतिथि मुझे विदा कर दे, लेकिन लगता है वो मुझे साथ ही लेकर जाने के मूड में है। जैसे ही उनके कदम स्टेशन पर बाहर की तरफ बढ़ते हैं मेरा मन भारी हो जाता है। उन्हें कई बार आश्वासन दिला चुका हूँ कि रेल बस आती ही होगी। रेल की खेद की घोषणा और मेरे झूठे आश्वासनों से अभी उनके विश्वास की नाव डूलने नहीं लगी है। आगे देखते हैं क्या होता है..।

परिचय :-  डॉ. मुकेश ‘असीमित’
निवासी : गंगापुर सिटी, (राजस्थान)
व्यवसाय : अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि : कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशन : शीघ्र ही आपकी पहली पुस्तक नरेंद्र मोदी का निर्माण : चायवाला से चौकीदार तक प्रकाशित होने जा रही है।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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