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वो समझ ना पाई

आयुषी दाधीच
भीलवाड़ा (राजस्थान)

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वो बीच मझधार में ही
फंसी रह जाती हैं,
न वो इधर की,
न वो उधर की
समझी जाती हैं,
हाँ वो बीच मझधार में
ही फंसी रह जाती हैं।

उसको तो तुमने
दो हिस्सो में बांटा हैं,
जन्म से लेकर
बीस वर्ष तक,
तुमने नाजुक
कली सा पाला हैं,
अपने दिल के टुकड़े को,
किसी और के
हाथ थमाया हैं,
तुम सब ने
समझ लिया है उसको,
पर वो खुद को
समझ ना पाई हैं,
वो बीच मझधार में ही
फंसी रह जाती हैं।

तुम कहते हो,
वो इस घर की बेटी हैं,
वो कहते हैं,
वो उस घर की बहू हैं,
इसी में उसकी
पहचान मिट जाती हैं,
तुम सब ने समझ
लिया है उसको,
पर वो खुद को
समझ ना पाई हैं,
वो बीच मझधार में
ही फंसी रहे जाती हैं।

कली से फूल बन
महका रही वो उपवन,
गमो को पी के
बढ़ा रही वो वंश,
फिर भी,
न जाने कहां है
इसका अंत,
तुम सब न समझ
लिया है उसको,
पर वो खुद को
समझ ना पाई है,
वो बीच मझधार में
ही फंसी रह जाती है,
न वो इधर की,
न वो उधर की
समझी जाती हैं,
हाँ वो बीच मझधार में
ही फंसी रह जाती हैं।।

परिचय :-  आयुषी दाधीच
शिक्षा : बी.एड, एम.ए. हिन्दी
निवास : भीलवाड़ा (राजस्थान)
उद्घोषणा : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।

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