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दर्शन विशुद्धि

शांता पारेख
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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कोई भी दर्शन अपने आप मे अच्छा, ही होता है, क्यों कि जिसने भी प्रतिपादित किया उसने कितना चिंतन करके प्रतिपादित किया है, इसका तत्कालीन समाज ने विरोध किया तब भी स्थापित हुआ, यानी कोई तत्व तो सुदृढ होगा ही। इसलिए जब तक कोई दर्शन, दर्शन रहता वह विस्तार पाता है तब तक सब अच्छा चलता भी है। परंतु जब वह संगठन या सम्प्रदाय बन जाता है तो उसमे विकृतियां आ जाती है व्यक्तिवाद रूढ़ हो जाता है फिर अति विकृत होते ही दर्शन गौण व संगठन प्रमुख हो जाता फिर उसमे सडांध पैदा हो जाती है, फिर कोई चिंतक उसी दर्जे का आता है तो पुनरोद्धार हो जाता है, जैसे महर्षि दयानंदसरस्वती, यविवेकानंद या महर्षि अरविंद। मार्क्सवाद अच्छा था कई देशों में फैला भी रूस चीन बड़े अनुयायी थे। मार्क्सवादी पार्टी जब बनी कुछ दिन ठीक चला फिर वामपंथ जैसी अवधारणा के कारण क्षरण होता चला गया रूस में लेनिन की मूर्ति तोड़ दी गई, चीन में खुलापन हो गया। पूंजीवाद में भी अमेरिका के निरंतर हथियार देने के कारण निंदा हो ही रही है, पर बड़ी इकॉनमी है तो कोई असर नही हो रहा। पर समझना तो पड़ेगा कि प्रभुत्वसंपन्न लोग दबाए नही जा सकते जैसे भारत। पर जिन्हें अपनी प्रभुता का अभिमान है ही नही उनका क्या किया जा सकता है जैसे पाकिस्तान। इसलिए विशुद्ध दर्शन में ही विश्वास रखना चाहिए क्योंकि संगठन तो देश काल भाव से नये-नये स्वरूप लेते व गायब होते रहते है। जो संगठन स्वय की समीक्षा करता रहता है, वह दीर्घ काल तक जीवित रहता नही तो क्षरित हो जाता है। मूल तो दर्शन ही है, आई हुई विशुद्धि को इच्छा होते ही हटाया जा सकता है सोने को तपा कर शुद्ध करते ही है। सोना अपना मूल स्वरूप बना कर ही रखता है, क्योंकि उसे अग्नि से कोई समस्या नही है।जिन्हें तपना आता है, दुनिया की कोई ताकत कुचल नही सकती।

परिचय : शांता पारेख
निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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