हंसराज गुप्ता
जयपुर (राजस्थान)
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लो पूरा जीवन बीत गया
समर्थ समय था, व्यर्थ गया,
होता जीवन का अर्थ नया,
अनमोल समय, हर घड़ी घड़ी,
लिख जाते हम संगीत नया,
लो पूरा जीवन बीत गया,
लो जीवन पूरा बीत गया। १।
लिया ना राम का नाम कभी,
और करने हैं शुभ काम सभी,
कल थी जवानी, परसों बचपन
आज बुढ़ापा मीत नया,
लो पूरा जीवन बीत गया,
लो जीवन पूरा बीत गया।२।
श्याम-श्वेत कभी छद्म-वेष,
और प्यार प्रेम कभी कलह क्लेश,
आने-जाने उठने-सोने,
खाने-पीने हंसने-रोने,
ये दौड़ भाग आपाधापी,
और उठा पटक दूरी नापी,
मन की गुन-गुन, सबकी सुन-सुन,
परिवेश वही फिर जीत गया,
लो पूरा जीवन बीत गया,
लो जीवन पूरा बीत गया।३।
रिश्ते जनम करम के गहरे,
पलकों में रहते जो चेहरे,
सपनों की तन्द्रा से अपना,
पल में ही नाता टूट गया,
हर साथी पीछे छूट गया।
सोने से जडा, माटी का घडा,
था सुघड सलौना, फूट गया,
हर कोई पथ में लूट गया,
नहीं पुनीत प्रीत नवनीत दया,
लो पूरा जीवन बीत गया,
लो जीवन पूरा बीत गया।४।
पाप-पुण्य और धरम-करम में,
अहम् बहम् और शरम भरम में,
सँवार सजाते, इतना इतराते,
वही कंचन काया धूल हुई,
नारायण बोले अब तो
तूली ही भस्म समूल हुई,
तुमसे यह कैसी भूल हुई,
आये ना हाथ अतीत, गया,
लो पूरा जीवन बीत गया,
लो जीवन पूरा बीत गया।५।
सागर से निकली मछली का,
पानी जीवन संगीत हुआ,
प्यासे अधरों को आहत में ही,
जल का मोल प्रतीत हुआ,
जब बूंद बूंद राहत देती,
पर घट पनघट पर रीत गया,
तरसे पाल-पाल की चाहत को,
यूं ही बरसों-बरस व्यतीत किया,
अब आये ना हाथ अतीत,गया,
लो पूरा जीवन बीत गया,
लो जीवन पूरा बीत गया।६।
सब ही विभूति, परहित ज्योति,
सबके मन में है प्रीत दया,
अनाथ का हाथ पकड़ लेते,
सूने घर में भरते खुशियाँ,
जिस पथ पर संत विचारते हों,
चुनते काँटे, बनते छैय्या,
भाव भरा अंतर्मन है
होता दुहने वाली गैया,
अगणित ऊजली किरणें मुझमें,
मैं शिखर जगाता अखण्ड दीया,
लो पूरा जीवन बीत गया,
लो जीवन पूरा बीत गया।७।
परिचय :- हंसराज गुप्ता, लेखाधिकारी, जयपुर
निवासी : अजीतगढ़ (सीकर) राजस्थान
घोषणा पत्र : प्रमाणित किया जाता है कि रचना पूर्णतः मौलिक है।
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