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छटपटाती स्त्री

डॉ. अर्चना मिश्रा
दिल्ली

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स्त्री बन सोचा
क्या-क्या ना करूँगी
उन सभी दक़ियानूसी
सोच को दरकिनार करूँगी।
बंद अन्धेरें कमरों में
आहें मैं ना भरूँगी ।
लूटी हुई अस्मत का
बोझ यूँ अकेले ना सहूँगी।
रोज़ अपने स्वाभिमान
को तिलांजलि दें,
तुम्हें खुश मैं ना करूँगी।
हर जगह त्याग की
मूर्ति मैं ना बनूँगी।
अश्लील बातें और बेवजह के
तानों को कानो में ना पड़ने दूँगी।
कहीं झुरमुट के किनारे
फटें गले चीथड़ों में
मैं ना मिलूँगी।
विभत्स नंगा नाच
जो हो रहा समाज में,
मैं इसका हिस्सा ना बनूँगी।
बचपन से यही सोचती आई
पर हक़ीक़त कुछ
और ही नज़र आयी।
यूहीं ज़बरदस्ती
धकेला गया मुझे भी
इस मूक बधिर समाज में।
जैसे मेरे अंदर प्राण
ना होकर कोई सामान हो ।
कुत्सित विचारों और
कुत्सित सोच का
ही परिणाम हूँ।
हाँ इसीलिए
मैं परेशान हूँ
मेरे अंदर भी जलता
हुआ एक श्मशान है,
रोज़ ही एक-एक करके
बहुत कुछ मार रहा मेरे भीतर।
हर तरफ़ से हैवानियत सवार है,
जिस्मों को तो नोचना आदत है,
आदमखोर वहसी ये बदजात है।
घर से निकलते ही डर लगता है
घर के अंदर दम घुटता है,
मैं भी कहीं ना आ जाऊँ
इस पुरुषवादी समाज की चपेट में।
तिल-तिल के मेरा सुख जलता है,
खुल के साँस ले ना पाऊँ,
घर में रह जाऊँ या बाहर जाऊँ
शोषण से कहीं बच ना पाऊँ
कोई प्यार का नाम देता
कोई खिलवाड़ करता,
सिसकती आहें दफन होती है,
उसी काले सायों के घेरे में
जिससे दूर रहने की क़समे खाई थी।
स्त्रियों की भी प्रजातियाँ बन गई
देखते-देखते माँ बहन से
ना जाने क्या क्या बन गई।
उठो स्त्रियों सशक्त बनो
एक दूजे का सहारा बनो।
इस समाज को सुधारना होगा
हमे भी अब माँ काली,
माँ दुर्गा सा साहस
धारण करना होगा।
नव वर्ष ये प्रण लें,
ना जुल्म करें ना होने दें।

परिचय :-  डॉ. अर्चना मिश्रा
निवासी : दिल्ली
प्रकाशित रचनाएँ : अमर उजाला काव्य, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच व साहित्य कुंज में रचनाएँ प्रकाशित।
आपका रुझान आरम्भ से ही हिंदी की ओर था अपने स्कूल व कॉलेज के दिनो से ही मेआपने लेखन का कार्य शुरू कर दिया था। आपने अधिकतर रचनायें कविता एवं लेख के रूप में लिखी है। आपने हिंदू कॉलेज दिल्ली से हिंदी विषय से ही अपनी बीए एमए किया तत्पश्चात् बीएड और एमएड किया। साथ ही साथ आपने काउंसलिंग एंड गाइडेंस का भी कोर्स किया।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।

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