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रिश्तों की परछाइयाँ…

शुभांगी चौहान
लातूर (महाराष्ट्र)

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होती हैं ओस की बूंदों सी
कभी नजर आती
तो कभी ओझल सी
रिश्तों की परछाइयाँ
देखता हूँ मैं रोज
एक दीपक जलता हुआ
उस अनाथालय मे
और अनायास ही
खींचा चला जाता हूँ
उस अनाथालय की ओर
पुछा मैने उस
अनाथ से सवाल
क्यों जलाते हो
यह दीपक यहाँ
क्या देता हैं यह
अनाथालय तुम्हें
जवाब दिया उसने
बुझी सी और बहुत ही
धीमी आवाज में
बोला साहब…!
नही देखी मैने
कभी माँ की गोद
और पिता का साया
इस पाषाण ह्रदय दुनियाँ ने
भी कब अपनाया
तब इसी निस्वार्थ
प्रेम स्वरूपी अनाथालय
ने ही मुझे पाला हैं
हवा, बारिश तुफान
से हमे बचाया हैं
इसी ने दिखाया हैं
माँ का रूप और
पिता का स्वरूप
भाई-बहनों सा
दूलारा हैं इसी ने
और मित्र का भरपूर
प्रेम भी दिया हैं
इसी अनाथालय ने
जब बाहर की बनावटी,
आभासी और झूठी
दुनियाँ से थक जाता हैं
हर सच्चा मन
तो आता हैं साहब
वह इसी अनाथालय की ओर
होकर निश्चिंत पाने के लिए
इसी अनाथालय का निस्वार्थ प्रेम
जलाता हूँ रोज शाम को
एक आशा और अभिलाषा
से भरा एक दीपक
इसी अनाथालय में
और पाता हूँ हर शाम की
सुरमई शाम में
इसी दीपक की प्रकाश में
अपने सारे गुम हुए
रिश्तों की परछाइयाँ
कभी ओस की बूँदों सी
कभी नजर आती
तो कभी ओझल सी
रिश्तों की परछाइयाँ…
रिश्तों की परछाइयाँ…

परिचय :- शुभांगी मगनसिंह चौहान
निवासी : लातूर (महाराष्ट्र)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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