भीष्म कुकरेती
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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गुप्त कालीन आभूषण – गुप्त कला के शुरुवात कब हुयी पर अभी तक चर्चा होती ही रहती है व यह सत्य है कि सभी गुप्त युग को चौथी सदी के प्राम्भिक वर्षों से मध्य आठवीं सदी तक माना जाता है।
वेशभूषा व आभूषण –
बुध गुप्त के बुध गुप्त के अभिलेख पढने से गुप्त साम्राज्य के निम्न सम्राटों की सूचना मिलती हैं –
महाराजा श्री गुप्त
महाराजा श्री घटोंत कच्छ
महाराजधिराज श्री चंद्र गुप्त प्रथम
समुद्र गुप्त
चन्द्रगुप्त द्वितीय
कुमार गुप्त प्रथम
स्कन्द गुप्त
पुरु गुप्त
नरसिंघ गुप्त
कुमार गुप्त द्वितीय
बुद्ध गुप्त
विनय गुप्त
भानु गुप्त
साक्ष्य – मुद्राएं, आदेश, अजंता, एलोरा उड़्यार, कई अभिलेख, यात्रियों की आत्मकथा, बाणभट्ट, कालिदास सरीखों के साहित्य आदि पुरुष वेशभूषा गुप्त सम्राटों ने कुषाण युग की शैली को अपनाया कि वेशभूषा पद व सम्मान के अनुसार पहने जायं यह गुप्त कालीन मुद्राओं में राजाओं द्वारा कोट, पतलून व बूट पहने दिखाई देते हैं। जबकि सामान्य समय राज पुरुष उत्तरीय, अन्तरीय व कायबद्ध ही उपयोग में लाते थे। गुप्त काल में विदेशी शैली से प्रभावित वस्त्र भी प्रचलन में थे व् शुद्ध भरतीय वस्त्र जो अब कटाई व सिलाई से बनाये जाते थे भी फैशन में गिने जाने लगे।
पगड़ी का धीरे-धीरे जाना
पगड़ी अब केवल राज पपुरुष, सम्मानीय व्यक्ति, व मंत्री ही पहनते थे। वस्त्र विन्यास में धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा था व शुद्ध भारतीय कंचुका जो सुरक्षा कर्मियों तक सीमित था अब उच्च वर्ग में भी प्रचलित होने लगा।
उच्च वर्ग रेशमी व महीन वस्त्र पहनते थे व निर्धन व्यक्ति मोटा कपड़ा पहनते थे। कमर पर बंध होता था जो कपड़ों को स्थिर रखता था।
सिर अलंकरण –
राजा व राजकुमारों हेतु मुकुट प्रचलित थे किन्तु संभवतया कभी-कभी पहना जाते थे ब्राह्मण या मुनि केशों को ऊपर गेड़ में बाँध देते थे बस।
महिला वस्त्र –
महिलाओं में भी उच्च वर्ग, धनिक वर्ग व निर्धन वर्ग अनुसार वस्त्र भेद मिलता है।
अन्तरीय – १८-३६ इंच चौड़ा होता था व ४-८ गज लम्बा होता था तथा भिन्न-भिन्न प्रकार से पहना जाता था। लघुस्तरीय कच्छ शैली में पहना जाता था। यह लंहगा जैसे होता था जो ददाएं कूल्हे पर लपेटा जाता था तुरंत शरीर पर लपेटा जाता था तत्पशचत बाएं कूल्हे में छुपाया जाता था। दुसरी शैली में अन्तरीय कच्छा व लहंगा साथ में होते हैं। अन्तरीय की लम्बाई भी उच्च वर्ग व सामन्य या निर्धन वर्ग को दर्शाता था। ब्रेस्ट बैंड या कछुक का प्रचलन था। कपड़ों के उपर कमर में लंगोट पहनने का प्रचलन था। अर्धोरका का भी प्रचलन था। चोली भी पसंद की जाती थी। इरानी कुर्ते को भारतीय कुरता बन गया था। उत्तरीय वैसे ही पहना जाता था जैसे कुषाण कला में किन्तु कुछ अंतर था।
महिला सर वस्त्र –
अब सर में केश अलंकरण को महत्ता मिलने व उच्च वर्ग की महिलाएं सर अलंकरण में बहुत ध्यान देते थे। दो प्रकार के सिर अलंकरण प्रचलन में थे दक्षिण की शैली व दक्क्न की शैली। दक्कनी शैली अधिक प्रचलित हुयी
आभूषण धातुएं – खनिज खुदाई में विकास होने से स्वर्ण या हिरण अधिक उपयोग में आने लगा था विशेषकर दिक्किन में जहाँ स्वर्ण भंडार थे या खनिज खानें थीं। रजत भी उपयोग में थे
शैली – सोने को पीटने व जाली प्रयोग में विकास हो गया था, महीन उत्कीर्णन को महत्व मिलने लग गया था। तारों का उपयोग कलयुक्त होने लगा था। इन तारों से मोती व आभूषण जोड़े जाते थे।
कर्ण आभूषण –
कर्ण आभूषणों को कुंडल कहा जाता था। कुंडल दो प्रकार के होते थे व दोनों गोल ही होते थे -एक बड़ी अंगूठी जैसे होते थी व दूसरा बटन जैसे कर्णफूल। कान के ऊपरी भाग में मोती जुड़े बाली होती थी। कुछ समय पश्चात कुंडल का आकार बड़ा हुआ व उन पर झुमके या लतकनलगने लगे। जब कान हिलते थे तो लटकन भी हिलते थे व उन्हें कंचुका कुंडल कहा जाता था।
कंठ आभूषण – गले में सूत्र होता था। यदि सूत्र स्वर्ण का हो व मध्य में रत्नों से जड़े हों तो उन्हें हेमसूत्र कहते थे। मोतियों से निर्मित कंठ सूत्र को मुक्तावली कहते थे। यदि एक सूत्र में लघु आकर के मोती हों तो उसे हरवस्ती कहते थे।
यदि सूत्र में बड़े मोती या मणि हों तो ताराहार कहे जाते थे।
वैजयंतिका – जब माला में मणि, मोती, हीरे, नीलम, माणिक जड़ें होंटो वः कंठ आभूषण वैजयंतिका कहलायी जाती थी। मुद्राओं के कंठ हार को निशक /निष्क कहते थे।
भुजा आभूषण –
बाजु आभूषणों में सर्प आकर के आभूषण को अंगद व सोने चांदी के महीन तारों से जड़ित बेलन नुमा आभूषण को केयूर कहते थे।
भुज आभषण – हाथों के आभूषणों में वल्य सरल शैली में होते थे या मोतियों से सज्जित होते थे। चूड़े या चूड़ियां हाथी दांत, शंक आदि से निर्मित होते थे जिन्हे आज भी पहना जाता है।
अँगुलियों के आभूषणों में स्वर्ण की अंगूठी को अंगुलीय, व रत्न जड़ित अंगूठी को रत्नांगुलीय कहते थे। कमर के भी आभूषण पहने जाते थे। .
मुकुट –
उच्च पदेन या राज परिवार या राज सभा के पुरुष व महिला मुकुट पहनते थे किन्तु सामन्य समय नहीं अपितु औपचारिक समय ही। इन्हे किरीट व मुकुट कहते थे। कमर आभूषण भी सामान्य थे।
पद आभूषण –
पैरों के आभूषण पुरुष व महिलाएं दोनों पहनते थे। पायल, पद पात्र, झूमर के संग पद आभूषण सामन्य थे।
आभूषणों में कुषाण काल व शुंग काल से कला व महीन अंकन दृष्टि से विकास दीखता है। मनुष्य व देव मूर्तियों में कुछ आभूषण देवताओं या मुनियों के बड़े लगते हैं जैसे मुकुट व कर्ण आभूषण।
इन धातुओं के अतिरिक्त वनस्पति निर्मित, शंख, पशु अंग निर्मित आभूषण भी उपयोग होते थे।
संदर्भ –
सुलोचना अय्यर – १९८७, कस्ट्यूम ऐंड ऑर्नामेंट्स ऐज डिपिक्टेड इन … पृष्ठ १९९ राधा कुमुद मुकर्जी १९८९ द गुप्त ऐम्पायर, पृष्ठ ४९ व कई अन्य सूत्र
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परिचय :- भीष्म कुकरेती
जन्म : उत्तराखंड के एक गाँव में १९५२
शिक्षा : एम्एससी (महाराष्ट्र)
निवासी : मुम्बई
व्यवसायिक वृति : कई ड्यूरेबल संस्थाओं में विपणन विभाग
सम्प्रति : गढ़वाली में सर्वाधिक व्यंग्य रचयिता व व्यंग्य चित्र रचयिता, हिंदी में कई लेख व एक पुस्तक प्रकाशित, अंग्रेजी में कई लेख व चार पुस्तकें प्रकाशित।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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