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७० घंटे देश क़ी प्रगति क़े

 संगीता सनत जैन
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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नारायण मूर्तिजी द्वारा भारत देश क़े युवाओं को सप्ताह मेँ ७० घंटे तक काम कर देश को विकसित देश मेँ शामिल करने क़े आव्हान पर देश ज़हिर तौर पर दो घड़ो मेँ बँटा है। प्रधानमंत्री जी क़े किसी वक्तव्य पर इतनी रायशुमारी नहीं हुई, जितनी इनफ़ोसिस क़े फाउंडर और मिलेनियर नारायण मूर्तिजी क़े इस एक व्यक्तव्य नें बुद्धिजीवी और व्यावसाईक जगत को अपनी राय रखने पर मजबूर कर दिया है।
यहाँ यह बताना उचित होगा क़ी क़ानूनी रूप से भारतीय कारखाना अधिनियम १९४८ क़ी धारा ५१ क़े अनुसार एक कर्मचारी प्रति सप्ताह ४८ घंटे काम करेगा, जिसका ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त १० घंटे ३० मिनिट हो सकता है। लगातार ५ घंटे काम करने क़े बाद ३० मिनट का ब्रेक और ओवरटाइम क़े पैसे अलग से दिये जायेगे। ८ घंटे काम क़े ८ घंटे सोने क़े और ८ घंटे स्वयं और परिवार क़े लिये।

हम कह सकते है कि भारत युवाओं का देश है। इन युवाओं क़े पास भारत में उचित अवसरों क़ी कमी क़े बावजूद भारतीय युवा पूरे संसार में मेहनत और समझ में अपनी अलग ही छाप छोड़ते है। विदेशों में बसने से लेकर, आईटी हो या और कोई क्षेत्र, नेतृत्व में भारतीय युवा आगे है। कुछ भारतीय भारत से भी शिक्षित होकर गयें है, उनके लिये यह क़हना बेमानी है। कि वें भारतीय युवा मेहनती नहीं है। बल्कि यह क़हना सही होगा क़ी यहाँ का युवा मेहनत करे तो किस क्षेत्र में करे, क्योंकि उनके पास रोजगार ही नहीं है। वह अपनी प्रतिभा का उचित दोहन ही नहीं कर पा रहा है। आज बहुत ज्यादा पढ़ा लिखा व्यक्ति चपरासी की नौकरी में है। उसकी योग्यता द्वारा किस क्षेत्र में मेहनत करवाई जाये या उसे किस तरह अभिप्रेरित किया जाय जिससे अधिकतम उत्पादकता प्राप्त की जा सके, इस बात पर मनन होना चाहिये।

उद्योगपति नारायणजी क़े बोलने भर से उद्योग जगत में यह संदेश जा सकता है कि कार्य क़े ७० घंटे देश क़ी प्रगति क़े लिये सही है। ज़बकी इससे शोषण को बढ़ावा ज़्यादा मिलेगा क्योंकि प्राइवेट सेक्टर तो यहीं चाहता है कि लोग ज़्यादा से ज़्यादा काम करें और उन्हें मानक क़े अनुसार पैसे भी नहीं दिये जाते है। कई असंगठित क्षेत्रों में ऐसा अक्सर देखा जाता है, जहाँ घंटे ज़्यादा होते है, लेक़िन पैसा कम।

देश क़ी प्रगति क़े लिये निःसंदेह काम को तवज्जो दिया जाना चाहिये। जूनून क़े हद तक चाइना भी ऐसे ही आगे बढ़ा था। और अभी भी आगे है। लेक़िन वह कम्युनिस्ट देश है। वहाँ क़ी व्यवस्थायें हमें नहीं मालूम, हम सब एक प्रजातंत्र में जीते है। पहले हम युवाओं को काम तो दे फिर उनसे काम क़े घंटे एवं उनकी उत्पादकता मांग। इसलिए घंटो क़ी चर्चा ही गलत वक़्त पर क़ी जा रही है। उद्योगपति अशनिल ग्रोवर का क़हना है कि अभी भी घंटो क़ी बात क़ी जा रही है जबकि काम क़ी क्वालिटी क़ी बात नहीं क़ी जा रही उचित कथन है।

विवाद को कम करने क़े लिये स्वयं सुधा कृष्णमूर्तिजी नें यह कह कर नारायणजी का पक्ष लिया है कि वह स्वयं सप्ताह में ७० से ८० घंटे काम करते थे इसलिये उन्हें औसत काम क़े बारे में नहीं मालूम। दरअसल उद्योगपति संजय जिंदल का यह कथन सही प्रतित होता है कि मै नारायण मूर्ति क़े बयान से सहमत हूँ। यह थकावट क़े बारे मै नही है बल्कि समर्पण क़े बारे में है। हमें भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाना है। ज़िस पर हम सभी गर्व कर सकते है।

सही यहीं होगा कि यहाँ पर हमें मूर्तिजी क़े शब्दों पर नहीं, अपितु उनके भावों को पकड़ना चाहिये जिसका तात्पर्य यहीं है कि हमारा देश आगे तो केवल युवाओं की मेहनत से ही बढ़ पायेगा। आगे बढ़ने क़े लिये मेहनत ही एक मात्र उपाय है। तो,इसमें गलत कुछ नहीं कहा उन्होंने।

परिचय : श्रीमती संगीता सनत जैन
निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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