ललित शर्मा
खलिहामारी, डिब्रूगढ़ (असम)
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कुम्हारों के वंशागत पेशे से जगमगाती आ रही है दीपावली। आधुनिक युग में आधुनिक साज सज्जा की रोशनी में ध्यान केंद्रित है। दीपावली की रौशनी में भी आधुनिकता परोसने की घुड़दौड़ मची है। देशी विदेशी कम्पनी अपनी नई छाप छोड़कर नई रौशनी को परोसकर दीपावली की रौशनी के रंग बिखेरना चाहती है। यह उत्सव संस्कृति, परम्परा के निर्वाह से गहरा जुड़ा है। इसमें दीयों का होना आवश्यक है। कहा जाता है बिन दूल्हे के बारात का कोई महत्व नहीं ठीक दीयों के बिन दीपावली सुनी समझी जाती है। घर की मांगलिक महालक्ष्मी की पूजा पद्धति, सजावट, घर की रौशनी में दीयों की खरीददारी अनिवार्य होती है। आधुनिक सामग्रियों को कितना ही क्यों न व्यवहृत किया जाए, दीये के स्थान को छीन पाना असम्भव है। पूजन पद्धति संस्कृति परम्परा के निर्वाह में दूसरी सामग्री मूल्यहीन होती है सिर्फ मिट्टी का दीया मूल्यवान इसलिए होता क्योंकि उत्सव को उमंग उल्लास व परम्परागत मनाने की भावना ओतप्रोत जुड़ी हुई है। यूँ तो रौशनी की सौ व्यवस्थाओं को नकारा नहीं जा सकता है। शुभ सगुन भरने की मांगलिक ताकत दीयों को छोड़ कहीं भी उपलब्ध नहीं होती है। इसे कोई भी मात दे ही नहीं सकता।
मिट्टी के दीये वही ताकत संस्कृति और परम्परा को प्रतिवर्ष अटूट रखने को सचेत करती है। दीपावली उत्सव, घर की चहारदीवारी की सजावट उनमें दीयों की रौशनी अमीर गरीब दोनो के घरों में एक समान रखने का गुण कायम है। दीयो का दीपावली पर श्रेष्ठ स्थान रहता है । इनकी पूजा विशेष रूप से की जाती है। रोली मोली आदि अर्पित करके वहीं से सभी पूजित दीपक को घर की सभी दिशाओं कक्ष में रखा जाता है। घर आंगन में जलते दीपक शुभ शगुन के माने जाते है। दीयो की रौशनी का चार चांद लग जाता है। हमें वही दीये कुम्हार से लाते है, जलाते है। वे अपने हाथ से मिट्टी के दीपक बनाते है। दीपावली की वही पहली पसंद होती है। उसके दाम भले ही कितने क्यो न हो, दीया ही दीपावली का मूल काम आता है। दीया ही पूर्ति दीये से ही होती है। ये जगमगाते है तो अनुभव होता है कि घर की जगमगाहट हो गई। यही घर को सुशोभित करते है। दीयो के सारी रात जलने की विशेष निगरानी भी की जाती है। शुभ सगुन मानते हुए तेल बत्ती का ध्यान रखा जाता है। ये जब जलते है तभी घरों के कोने में शुभ शगुन हंसी उल्लास की एक ऊर्जा सिंचित होती है। हमारे घर के भीतर की नकारात्मक ऊर्जा का अंत होता है, मिट्टी के दीये से ऊर्जावान शक्ति मिलती है। दीपावली की रौशनी वह भी दीयो की। उसके प्रकाश का खास मजा, खास आनंद की अनुभूति होती है। आजकल मिट्टी के दीयो को भिन्न भिन्न रंगों से रँगकर आकर्षक किया जाता है। ये अत्यधिक लुभावने लगते है।
आज सामाजिक आर्थिक संकटो में कुम्हार परिवार उत्सवों की निगरानी अवश्य रखता है। उनके जीवन जीने की दशा को नई दिशा नहीं मिल सकी है। यह कह सकते है हमेशा अंधकार मे जीवन यापन करते है। अनेकानेक सुख सुविधाओ से वंचित रहकर भी हमारे उत्सव को फीका नही होने देते है। उनकी सुख सुविधाओं के प्रति ध्यान केंद्रित होना जरूरी है। कुम्हारों को प्रतियोगिता में कड़ा सँघर्ष करके भी कुम्हार परिवार हताश नहीं है। उत्सवों या मांगलिक आयोजन में मिट्टी के बर्तन और दीपावली के दीयो को मुहैया कराते है। आज भी कुम्हार परिवार जूझता है फिर भी आधुनिक पद्धति के संग नहीं चलता है। वह लकड़ी से चाक को घुमाकर सन्तुष्ट है। कुन्हार भले ही सुविधाओं से दूर है परंतु वंशागत पेशे से कुन्हार परिवार उपार्जन का साधन मिट्टी का बर्तन ही बनाता उत्सवों की खुशी उनसे ही दुगुनी हो रही है। ये मिट्टी के बर्तन या अन्य मिट्टी के उपयोगी सामग्रियों से हमारा नाता टूट गया तो उत्सवों का रंग चढ़ने की नोबत आएगी। हमें इसी पर अमल करना होगा भविष्य की पीढ़ियों को यह लीक सशक्त कराना नैतिक कर्तव्य समझना होगा तभी त्योंहारों की महत्ता का मूल अर्थ समझ पायंगे और असीमित आनंद उठा पायेंगे।
निवासी : खलिहामारी, डिब्रूगढ़ (असम)
संप्रति : वरिष्ठ पत्रकार व लेखक
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