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भारतीय मतदाताओं का दृष्टिकोण

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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स्वत्नत्रता के ७५ वर्षों में हमारे देश का लोकतंत्र जितना सुदृढ़ और परिपक्व हुआ है, हमारा मतदाता उतना ही संकुचित होता जा रहा है। इसे एक विडम्बना भी कह सकते है। परन्तु यह वास्तविकता है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण, पहले भी और आज भी भारत में राजनीतिक दलों का वैचारिक दृष्टि से परिपक्व न होना है। उनकी सोच राष्ट्र के लिए न होकर अपने दल के लिए और इससे बढ़कर भी नेताओं के व्यक्तिगत स्वार्थ हेतु होती है। लोकतंत्र यह लोगों द्वारा, लोगों के लिए ,लोगों की व्यवस्था होती है, यह मूल मंत्र राजनीतिक दलों द्वारा भुला दिया गया है। राजनीतिक दलों द्वारा भारतीय राजनीति का हित शुरू से ही मतदाताओं को अशिक्षित रखने में ही समझा गया। आजादी के बाद से ही हमारे देश में शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर बहुत कम खर्च किया गया है।
परिवार और समाज में अगली पीढ़ी को शिक्षित, स्वस्थ और योग्य बनाने में हम दिनरात एक कर देते है, परन्तु इसके विपरीत राजनितिक दलों का स्वार्थ इन सब पर कुठाराघात करता है। राजनितिक दल अपने तात्कालिक लाभ हेतु मतदाताओं को एक काल्पनिक रंगीन विश्व में ले जाकर, झूठे आश्वासन देकर उन्हें वास्तविकताओं से बहुत दूर ले जाते हैं और उनका मत प्राप्त कर लेते हैं। उदहारण स्वरूप चुनाव के पूर्व शराब बाटना, नगद रुपये बाटना, बिना आर्थिक स्थिती का आकलन किये कर्ज माफ़ी का झूंठा आश्वासन देना, धर्म और जातियों में भेदभाव करना और स्थानिक परिस्थितियों के अनुसार जहां उस धर्म या जाति के मतदाता अधिक हो उनके पक्ष में बिना राष्ट्र का विचार किये असंभव ऐसे आश्वासन देकर मतदाताओं को ललचाना। स्थानीय मुद्दों को उद्वेलित करना,मोर्चे, हिंसक आंदोलन करना,और मतदाताओं को भड़काना। विगत ७५ वर्षों में राजनितिक दलों द्वारा दिए गए झूंठे आश्वासनों की एक लम्बी सूचि है, जो स्थानिक मतदाताओं को दिए गए है। और आजतक पुरे नहीं हुए है। इन सभी कारणों से मतदाता भ्रमित हो जाता और उसके मन ,मस्तिष्क में सिर्फ स्थानीय मुद्दे हावी हो जाते है।
सत्ता यह भ्रष्टाचार की जननी होती है और हर एक सत्ता भ्रष्ट ही होती है। सत्ता के इस महाकुंभ के लिए येन केन प्रकार से व्यवस्था पर नियंत्रण प्राप्त करना आवश्यक समझा जाता है। चुनाव ही इसकी पहली सीढ़ी होती है। भ्रष्टाचार द्वारा भ्रष्टाचार हेतु,भ्रष्टाचार के लिए यही आज राजनीतिक दल और नेताओं का उद्देश्य हो गया है। चुनाव निष्पक्ष हो यह जितनी व्यवस्था की जिम्मेदारी होती है उतनी ही राजनीतिक दल और यहाँ तक कि मतदाताओं की भी होती है। परन्तु राष्ट्रहित का अगर राजनीतिक दल विचार न करते हो तो मतदाता भी इन परिस्थितियों पर सार्थक दृष्टी से विचार नही करता।
एक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि, प्रत्येक चुनाव के समय स्थानीय परिस्थिति भिन्न भिन्न होती है, स्थानीय मुद्दे भी अलग होते है। यही स्थानीय स्थिति और स्थानीय मुद्दे मतदाताओं को उद्वेलित और प्रभावित करते रहते है। जो समस्याएं पंजाब में है जरूरी नहीं कि वही समस्याएं तमिलनाडु में भी हो। इतना ही नहीं वरन राज्य के हर जिले की और जिले के हर गांव की अपनी अलग अलग समस्याएं होती है। लेकिन विगत ७५ वर्षों में भारतीय मतदाता इन समस्याओं को अलग अलग करके रखना सीख गया है। दूसरे शब्दों में दलों के नेता भले ही परिपक्व न हुए हो पर मतदाता अब सयाना हो गया है। ग्रामपंचायत से लेकर नगर पालिका, नगर निगम, विधानसभा और लोकसभा इन सब के लिए वह अलग अलग सोचता है। शोधकर्ताओं के लिए यह सबसे रोचक हो सकता है कि जिस दिल्ली में आम आदमी पार्टी को विधानसभा में दो तिहाई बहुमत मिलता है वही लोकसभा की सभी सातों सीटें भाजपा के खाते में जाती है। शायद मतदाता यह सोचता हो कि अरविन्द केजरीवाल राष्ट्र का नेतृत्व करने में अभी परिपक्व नहीं है। इसका एक और अर्थ हम यह भी ले सकते हैं कि मतदाता देश में अस्थिरता नहीं चाहता वही वह विधानसभा में भी किसी तरह की अक्षमता सहन नहीं करता। या दूसरे शब्दों में उसे अच्छी तरह यह समझ है कि कौन सा दल राष्ट्र की रक्षा करने में और राष्ट्र को सुचारू रूप से चलाने में समर्थ है। यही मतदाताओं की भावना है।
परेशानी तब होती है जब राजनीतिक दल एक साथ अनेक मुद्दे या स्थानीय मुद्दे लेकर लोकसभा या विधानसभा के चुनाव में मतदाताओं के सामने जाते है। इससे मतदाता भ्रमित हो जाता है। अब अहमदाबाद मुंबई बुलेट ट्रेन का मुद्दा पुरे देश में नहीं चला। वह महाराष्ट्र की विधानसभा हेतु भी सफल नहीं हो सका। स्वाभाविक है गुजरात का मुद्दा अन्य राज्यों के मतदाताओं को कैसे आकर्षित कर सकता है।
मराठी में एक कहावत है,” पहले पोटोबा (पेट-भूख) फिर विठोबा (भगवान)” हिंदी में भी, “भूखे भजन न होय गोपाला” यह कहावत है। गरीब मतदाता सबसे पहले सिर्फ अपना और अपने परिवार का पेट किस तरह से भरा जाए यह विचार करता है। मतदाता कभी स्वार्थी नहीं होता। स्वार्थी होती है राजनीति और राजनीति करने वाले। भूखे पेट राष्ट्र का और देशभक्ति का विचार नहीं किया जा सकता। इसलिए गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले मतदाता राजनीतिक दलों के लिए “सॉफ्ट टारगेट” होते है। इसलिए मतदाताओं को कई तरह के लुभावने सपने दिखाकर उनकी अपेक्षाएं खूब बढ़ा दी जाती है। यह असम्भव अपेक्षाएं चुनाव बाद पूरी करना संभव नहीं होती इस तरह यह सबके लिए जी का जंजाल बन जाती है। मतदाता सभी दलों से निराश हो जाता है। स्वतंत्रता के बाद यह लोकतंत्र का नासूर बन कर रहा गया है।
मुद्दों को अनादि काल तक जीवित रखना यह राजनीतिक दलों का फैशन हो गया है। ७५ साल तक रोटी सेकते रहने के बाद अभी हाल के वर्षों में, राम मंदिर,धारा ३७०,तीन तलाक़ आदि मुद्दे अब इतिहास बन चुके है। हिन्दू-मुस्लिम और आरक्षण मुद्दों का इलाज शायद किसी भी दल के पास नहीं है। द्रढ इच्छाशक्ति से समस्या हल की जा सकती है यह तीन तलाक, राम मंदिर और धारा ३७० जैसे मुद्दों के हल होने से देश पता पड़ चुका है। मुद्दों का अंत होते ही या अप्रासंगिक होते ही नए मुद्दे उकेरे जाते है। इतिहास की घटनाएं, और शहरों का नामकरण जैसे भोले भाले नागरिकों को उत्तेजित करने वाले मुद्दों को जानबूझ कर सामने लाने के लिए उकेरा जाता है, उन पर अनावश्यक टीवी डिबेट आयोजित की जाती है।
मतदाताओं को उत्तेजित करने हेतु,राजनीतिक दलों के लिए सुविधाजनक हिन्दू-मुस्लिम और आरक्षण जैसे मुद्दों के अलावा गत वर्षों में अनावश्यक रूप से पैदा किये गए अनेक मुद्दे जैसे, कर्जमाफी, बिजली बिल, सिलेंडर, टोपी, पगड़ी, जनेऊ, स्थानीय जातियों में विद्वेष फैलाना, यहाँ तक कि महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज के कुत्ते को भी मुद्दा बनाया गया था। आज वह मुद्दा बिना हल हुए ही हवा हो गया है। जब राष्ट्रीय मुद्दों की जगह स्थानीय मुद्दों को लेकर मतदाता को उत्तेजित किया जाता है, तो मतदाता से क्या अपेक्षाएं की जा सकती है? हाल के दिनों में असंसदीय भाषा, अपमान, मानहानि के मुकदमे जैसे नकारात्मक मुद्दे भी लोकतंत्रीय बाजार में प्रचार के नये प्रोडक्ट है। रैली, हिंसक आंदोलन और तोड़फोड़ राष्ट्र का चरित्र बन चुका है। इन सब कारणों के कारण मतदाता असली मुद्दों से भटक जाता है और उसकी स्वस्थ वैचारिक क्षमता प्रभावित होती है।
आयाराम गयाराम अर्थात चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा सिर्फ निजी स्वार्थवश उनके दल को बदलना। यह भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय है। मतदाता इसे पसंद नहीं करता, परन्तु इस कृत्य की रोकथाम हेतु मतदाता के पास कोई उपाय नहीं होता। महाराष्ट्र की घटनाएं यह साबित करती है कि स्वत्नत्रता के ७५ वर्षों बाद भी दल और उनके प्रतिनिधियों को अभी भी कठोरता पूर्वक ‘लोकतंत्र में अनुशासन’ का पाठ पढ़ाएं जाने की आवश्यकता है।
सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि बहुतांश दलों की कमान एक ही परिवार या एक ही हाथों में होना। निर्णय लेने की प्रक्रिया सामूहिक न होकर केंद्रीयकृत होना। हमारा लोकतंत्र मजबूत हुआ है, पर हमारे राजनीतिक दल बहुत दुर्बल हो चुके हैं। भाजपा में भी मोदी और शाह बहुत मजबूत हो चुके है, और इनके रहते वहां किसी अन्य श्रेष्ठ नेतृत्व के आगे आने की संभावना नहीं है। अन्य दलों की हालत तो बहुत ही दयनीय है। लोकतंत्र में व्यक्ति का नहीं वरन दल का सुढृढ़ और श्रेष्ठ होना महत्वपूर्ण है। दल का अर्थ परिवार के लिए सात पीढ़ियों की व्यवस्था सर्वोपरि हो गयी है। इसी दृष्टि से दल का संचालन किया जाता है।पवार,मायावती, ममता, मुलायम, ठाकरे, पटनायक, अजितसिंह, लालूप्रसाद, देवगौड़ा ऐसे अनेक नाम भारतीय राजनीती में लिए सकते है जिन्होंने अपने दलों को परिवार के स्वार्थ के चलते राष्ट्रीय पटल पर उभरने ही नहीं दिया। गांधी घराने ने तो अपने परिवार के कारण पुरे दल को दाव पर लगा दिया,नतीजतन दल सिकुड़ता चला गया। राष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण निर्णय किसी एक व्यक्ति के पास केंद्रीयकृत होने से उसमें राष्ट्रीय भावनाओं की कमी होती है। यह स्वस्थ राजनीति न होकर दल के आंतरिक लोकतंत्र को ही नष्ट कर देती है।
तात्कालिक लाभ का प्रलोभन और दलों का स्वार्थी दृष्टिकोण होने के कारण मतदाता स्थानीय और राष्ट्रीय मुद्दों को अलग अलग नहीं कर पाता। अपने स्वयं के दल में अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए नेताओं द्वारा जाती और धर्म का सहारा लिया जाकर मतदाताओं को भड़कलाया जाता है। विधानसभा और लोकसभा के चुनाव के समय नेताओं को धर्म के ठेकेदारों से मिलने की आवश्यकता ही क्यों होती है? इसी कारण धर्म के ठेकेदार प्रोत्साहित होकर फतवे जारी करते है। इसके अलावा नेताओं द्वारा धार्मिक वेशभूषा धारण कर अपने आप को कट्टर धार्मिक बताने की होड़ सी लगी रहती है। स्थानीय रूप से भोलेभाले नागरिकों पर अनेक धर्मगुरुओं का प्रभाव होने से मतदाता भ्रमित होता है।
आखिर में एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह कि जब हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी तब देश की जनसँख्या ४० करोड़ भी नहीं थी। आज १४० करोड़ से भी अधिक है। इस जनसँख्या के महसमुद्र हेतु कितनी भी व्यवस्था करें वह कम ही रहेगी। इसमे हर समय चुनाव का ही मौसम होता है। इसलिए लोकसभा, विधानसभा यहाँ तक कि नगरीय संस्थाओं के चुनाव भी एक साथ हो तो उत्तम। इस हेतु पांच वर्ष में एक माह की अवधि तय की जा सकती है। समय, पैसा बचाने के अलावा राजनीतिज्ञों के बारहमासी षडयंत्रों पर भी रोक लग सकती है। युवाओं की संख्या वर्तमान में ६० करोड़ से भी अधिक है। बेरोजगारी अधिक होने से इनमें नाराजगी भी ज्यादा है, जो लोकतंत्र के लिए घातक है। युवाओं का भटकाव देश सहन नहीं कर सकता यह हम कश्मीर में देख चुके है जहा धारा ३७० हटने के पूर्व युवाओं को राष्ट्रद्रोहियों द्वारा ५००-१००० रुपये दे कर पत्थर फेंकने के काम में लिया जाता था। इसे कितना भी राष्ट्र विरोधी कृत्य कहले पर इससे बेरोजगारी तो प्रमाणित होती ही है। राष्ट्र विरोधियों के विभिन्न प्रकार के षड्यंत्र युवाओं को स्थानीय तथा राष्ट्रीय मुद्दों के बारे में भी चिंतन करने से विमुख कर देती है।
लोकतंत्र में अधिक से अधिक से अधिक मतदान हो यह स्वस्थ लोकतंत्र प्रणाली हेतु आवश्यक है। मतदाता को प्रेरित करने के अलावा मतदान हेतु कानून द्वारा सख्ती भी होना चाहिए। परन्तु ‘नोटा’ कानून के द्वारा हम क्या साबित करना चाहते है? अब नोटा की बिमारी कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी है। पहले से ही मतदान का प्रतिशत काम होता था अब नोटा की मेहरबानी से १० से १२ प्रतिशत मतदान प्राप्त करने वाला भी व्यवस्था का अपने मन माफिक उपयोग कर सकता है। इस तरह से राष्ट्रीय मुद्दे महत्वहीन हो जाते है।

परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर
मध्य प्रदेश इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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