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जिंदगी की रेलगाड़ी

राजेन्द्र लाहिरी
पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
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हां जिंदगी एरोप्लेन
या रेलगाड़ी नहीं,
पर घिसट-घिसट
कर चल रही,
एक्सप्रेस, सुपरफास्ट
तो नहीं कह सकता,
पर पैसेंजर रेल सा ही बहता,
कभी सिग्नल नहीं मिल पाता,
कभी टाइमिंग के इंतजार में
खड़ी रह जाती है जिंदगी,
कभी जबरन जीवन में घुस आये
नेता या रिश्तेदारों की तरह
खड़ी कर दी जाती है घंटों जंगल में,
नहीं पड़ रहा रंग में भंग पर
रुकावटें रौद्र रूप लिए
खींच रही अपनी ओर फुफकारते
बाधा डाल रहे अपने मंगल में,
समझ ही नहीं आ रहा
जियें, जीने की आस छोड़ दें,
या जिये जायें घिसटते कीड़ों जैसे,
बचे उम्र दिखाएंगे रंग कैसे कैसे,
कभी चल पड़ती है जिंदगी
तो पता नहीं क्यों भयंकर दर्द
का अहसास करने लगते हैं
सारे के सारे रिश्तेदार,
क्या मालूम ये वेदना
है या खुशी की खुमार,
एक बात तो जान पाया कि
कहने के लिए होती है जिंदगी हसीं,
हकीकत में झंझावतों से
अटा पड़ा होता जीवन का हर लम्हा।

परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी
निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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